बुधवार, 20 नवंबर 2019

है संघर्ष ही जीवन

नादां है बहुत

कोई समझाये दिल को

चाहता उड़ना आसमाँ में

है पड़ी पांव ज़ंजीर

कट चुके हैं पंख

फिर भी उड़ने की आस

..

नादां है बहुत

कोई समझाये दिल को

डगमगा रही नौका बीच भंवर

फिर भी लहरों से

जुझने को तैयार

परवाह नहीं डूबने की

मर मिटने को तैयार

नहीं मानता दिल यह समझाने से भी

जब तक है साँस, रहेगी आस तब तक

है संघर्ष ही जीवन

अंतिम क्षण आने तक

रेखा जोशी 

Mujhe Yaad aaoge - Hindi Kavita Manch

मुझे याद आओगे


कभी तो भूल पाऊँगा तुमको, 
मुश्क़िल तो है|
लेकिन, 
मंज़िल अब वहीं है||

पहले तुम्हारी एक झलक को, 
कायल रहता था|
लेकिन अगर तुम अब मिले, 
तों भूलना मुश्किल होगा||

सोमवार, 11 नवंबर 2019

एक ग़ज़ल : भले ज़िन्दगी से हज़ारों शिकायत---

एक ग़ज़ल : भले ज़िन्दगी से हज़ारों ---

भले ज़िन्दगी से  हज़ारों शिकायत
जो कुछ मिला है उसी की इनायत

ये हस्ती न होती ,तो होते  कहाँ सब
फ़राइज़ , शराइत ,ये रस्म-ओ-रिवायत

कहाँ तक मैं समझूँ ,कहाँ तक मैं मानू
ये वाइज़ की बातें  वो हर्फ़-ए-हिदायत

न पंडित ,न मुल्ला ,न राजा ,न गुरबा
रह-ए-मर्ग में ना किसी को रिआयत

मेरी ज़िन्दगी ,मत मुझे छोड़ तनहा
किसे मैं सुनाऊँगा अपनी हिकायत

निगाहों में उनके लिखा जो पढ़ा  तो
झुका सर समझ कर मुहब्बत की आयत

बुरा मानने की नहीं बात ,’आनन’
है जिससे मुहब्बत ,उसी से शिकायत

-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ
फ़राइज़ = फ़र्ज़ का ब0व0
शराइत = शर्तें [ शर्त का ब0व0]
रह-ए-मर्ग = मृत्यु पथ पर [ मौत की राह में ]
अपनी हिकायत  = अपनी कथा कहानी
आयत = कलमा-ए-क़ुरान [ की तरह पाक] -

बुधवार, 6 नवंबर 2019

हरसिंगार

हे हरसिंगार
ओ शेफाली
अरी ओ प्राजक्ता !
सुना है
तू सीधे स्वर्ग से
उतर आई थी
कहते है
सत्यभामा की जलन
देवलोक से
पृथ्वी लोक पर
तुझे खींच लाई थी
तू ही बता
है ये चन्द्र का प्रेम
या सूर्य से विरक्ति
कि बरस में
फ़कत एक मास
सिर्फ रात को
देह तेरी
हरसिंगार के फूलों से
भरभराई थी !

रविवार, 3 नवंबर 2019

एक ग़ज़ल : दुश्मनी कब तक निभाओगे---

एक ग़ज़ल : दुश्मनी कब तक-----

दुश्मनी कब तक निभाओगे कहाँ तक  ?
आग में खुद को जलाओगे  कहाँ  तक  ?

है किसे फ़ुरसत  तुम्हारा ग़म सुने जो
रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक ?

नफ़रतों की आग से तुम खेलते हो
पैरहन अपना बचाओगे  कहाँ  तक ?

रोशनी से रोशनी का सिलसिला है
इन चरागों को बुझाओगे कहाँ  तक ?

ताब-ए-उलफ़त से पिघल जाते हैं पत्थर
अहल-ए-दुनिया को बताओगे कहाँ  तक ?

झूठ की तलवार से क्या खौफ़ खाना
राह-ए-हक़ हूँ ,आजमाओगे  कहाँ तक ?

सब गए हैं ,छोड़ कर जाओगे तुम भी
महल अपना ले के जाओगे कहाँ  तक ?

जाग कर भी सो रहे हैं लोग , कस्दन
तुम उन्हें ’आनन’ जगाओगे कहाँ  तक ?

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
पैरहन = लिबास ,वस्त्र
ताब-ए-उलफ़त से = प्रेम की तपिश से
अहल-ए-दुनिया को = दुनिया के लोगों को
राह-ए-हक़ हूँ    = सत्य के मार्ग पर हूँ
क़सदन            = जानबूझ कर

शनिवार, 2 नवंबर 2019

क्या मैं कयामत हूं

तुम ही कहो न 
क्या मैं ख्वाहिश को
देर तक याद में तेरी ....
जागने की ...
इजाज़त दूं ?

तुम ही कहो न
क्या मैं यादों को
खुदा के सजदे सा
नाम  और दर्ज़ा
इबादत दूं ?

तुम ही कहो न
क्यों इन  हवाओं ने
तुझसे लिपटने की 
बदमाशियां की और 
शरारत क्यूं ?

तुम ही कहो न
क्या ग़ज़ल मैं हूं ?
इक नज़्म सी मैं हूं
रूबाइयों की सी
 क़यामत हूं ?