शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

एक ग़ज़ल : तुम्हारे हुस्न से --

 एक ग़ज़ल : तुम्हारे हुस्न से ---



तुम्हारे हुस्न से जलतीं हैं ,कुछ हूरें  भी जन्नत  में ,

ये रश्क़-ए-माह-ए-कामिल है,फ़लक जलता अदावत में ।


तेरी उल्फ़त ज़ियादा तो मेरी उलफ़त है क्या कमतर ?

ज़ियादा कम का मसला तो नहीं होता है उल्फ़त में ।


पहाडों से चली नदियाँ बना कर रास्ता अपना ,

तो डरना क्या  ,फ़ना होना है जब राह-ए-मुहब्बत में ।


वही आदत पुरानी है तुम्हारी आज तक ,जानम !

गँवाया वक़्त मिलने का ,गिला शिकवा शिकायत में ।


चिराग़ों को मिला करती हवाओं से सदा धमकी ,

नहीं डरते, नहीं बुझते, ये शामिल उनकी आदत में ।


उन्हें भी रोशनी देगी जो थक कर हार कर बैठे ,

मेरा जब ज़िक्र आयेगा ज़माने की हिकायत में ।


जहाँ सर झुक गया ’आनन’ वहीं काबा,वहीं काशी ,

वो खुद ही आएँगे चलकर बड़ी ताक़त मुहब्बत में ।


-आनन्द.पाठक-

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 04 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-12-2020) को   "उलूक बेवकूफ नहीं है"   (चर्चा अंक- 3907)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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