बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

एक व्यंग्य व्यथा : सम्मान करा लो----

                                     एक व्यंग्य व्यथा : सम्मान करा लो---

एक लघु व्यथा : सम्मान करा लो---

जाड़े की गुनगुनी धूप । गरम चाय की पहली चुस्की --कि मिश्रा जी चार आदमियों के साथ आ धमके।

-पाठक जी ! इनसे मिलिए --ये हैं फ़लाना जी--ये हैं हिरवाना जी--ये सरदाना जी--और ये हैं--मकवाना जी-’ मिश्रा जी ने परिचय कराया।

मैने भी किसी नवोदित साहित्यकार की तरह 45 डीग्री  कोण से झुक कर अभिवादन किया और आने का प्रयोजन पूछ ही रहा था कि मिश्रा जी सदा की भाँति बीच में  बोल उठे-""ये लोग ’पाठक’ का सम्मान करना चाहते हैं"

’-अरे भाई ,आजकल पाठक का सम्मान कौन करता है-? --सब लेखक का सम्मान करते है।

-यार समझे नहीं ,ये लोग आप का सम्मान करना चाहते है-पाठक जी का -मिश्रा जी ने स्पष्ट किय।

-अच्छा ये बात है  ,मगर ये लोग तुम्हें  मिले कहाँ?-- मन में  उत्सुकता जगी और लड्डू भी फूटे ।

-" ये लोग  मुहल्ले में भटक रहे थे ,पूछा तो पता लगा कि ये किसी मूर्धन्य साहित्यकार का सम्मान करना चाहते हैं तो मैने सोचा तुम्हारा ही करा देते हैं ,सो पकड़ लाया"

’अच्छा किया ,वरना ये लोग न जाने कहाँ कहाँ भटकते।अब अच्छे साहित्यकार मिलते कहाँ हैं और जो हैं वो सभी ’मूर्धन्य हैं ।अच्छा किया कि आप लोग यहाँ आ गए ।समझिए की आप की तलाश पूरी हु॥-’नो लुक बियान्ड फर्दर"- इस बार मैं45 डीग्री के कोण से झुक कर अभिवादन किया ।शायद ’अपना सम्मान’ शब्द सुनकर रीढ़ की हड्डी में 45 डिग्री का और झुकाव आ गया।वह लोग  भले हैं जिनमें रीढ़ की हड्डी नहीं होती।


श्रीमती जी ने चाय भिजवा दिया । श्रीमती जी की धारणा  है कि यदि कोई आ जाए और उसे जल्दी से ’टरकाना’ हो तो जल्दी से चाय पिलाइए कि वो जल्दी से ’टरके’। आजमाया हुआ नुस्खा है ।मगर मिश्रा जी उन प्राणियों में से न थे।

चाय आगे बढ़ाते हुए शिष्टाचारवश पूछ लिया--’जी आप लोग पधारे कहाँ से  हैं’?

’जी हमलोग ,ग्राम पचदेवरा जिला अलाना गंज से आ रहे है । हम लोगो ने गाँव में एक संस्था खोल रखी है ’अन्तरराष्ट्रीय ग्राम हिन्दी उत्थान समिति" और संस्था की योजना है हर वर्ष हिन्दी के एक मूर्धन्य साहित्यकार के सम्मान करने की ।

-पंजीकॄत  है? -मैने पूछा

-जी अभी नहीं ,हो जायेगी ,बहुत से साहित्यकार जुड़ रहें है हम से  --सक्रिय भी--,निष्क्रिय भी---नल्ले भी-ठल्ले भी --निठल्ले भी और ’टुन्ने ’ भी।

-टुन्ने  ? मतलब?

-जी. जो पी कर ’टुन्न’ रहते है और साहित्य की सेवा करते हैं।

-जी, बहुत अच्छा काम कर रहे है आप लोग ,बताइए मुझे क्या करना होगा?

’-आप को कुछ नहीं करना है --आप को बस हाँ करना है ---अपना सम्मान करवाना है --’सम्मान’ हम कर देंगे --  ’सामान’ आप  देंगे । बाक़ी सब ’हिरवाना ’ जी सँभाल लेंगे"---फ़लाना जी ने बताया

हिरवाना  जी ने बात यहीं से उठा ली  --- "सर कुछ नहीं ,हम लोगों  का बस 5-लाख का बजट है। आप को बस कुछ सामान की व्यवस्था करनी होगी -अपना सम्मान कराने हेतु जैसे --चार अदद शाल --चार अदद ’पुष्प-गुच्छ"---चार अदद रजत प्रमाण पत्र--चार अदद  चाँदी के स्मॄति चिह्न--चार अदद चाँदी की तश्तरी--चार अदद फोटोग्राफ़र-- चालीस निमन्त्रण पत्र--- टेन्ट-कुर्सी की व्यवस्था  -चालीस आदमियों के अल्पाहार की व्यवस्था---कुछ प्रेस वालों के लिए स्मॄति चिह्न --- सब 5-लाख के अन्दर हो जायेगा ।

-’अच्छा--- तो आप लोग क्या करेंगे?- मैने मन की क्षुब्धता दबाते हुए पूछा।

-’हम सम्मान करेंगे’ -जवाब फ़लाना जी ने दिया -’हमलोग भीड़ इकठ्ठा करेंगे--आप का गुणगान करेंगे--आप का प्रशस्ति पत्र पढ़ेंगे ...आप को इस सदी का महान लेखक बताएंगे--एइसा लेखक--- न हुआ है और न सदियों तक होगा। आप का नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में लाने के लिए सत्प्रयास करेंगे--जिसे हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने छॊड़ दिया है ! आप की हैसियत देख कर  5-लाख का बजट ज़्यादा नहीं है ,सर! वरना तो यहाँ बहुत से साहित्यकार  सम्मान कराने हेतु दस-दस ,बीस-बीस लाख तक खर्च करने से भी गुरेज नहीं करते और हमें फ़ुरसत नहीं मिलती। अगर कुछ बच गया तो संस्ठा में आप के नाम से  ’योगदान’ में डाल देंगे। साथ में आप की एक पुस्तक  का ’विमोचन’ फ़्री में  करवा देंगे ----

-कोई --रिबेट---डिस्काउन्ट--आफ़-- सीजनल  डिस्काउन्ट ..? -कन्सेशन - कैश बैक ,’गिफ़्ट कूपन ?-मैने जानना चाहा

इस बार मकवाना जी बोले --" सर महँगाई का ज़माना है --गुंजाइश नहीं है  --अगर होता तो ज़रूर कर देते।

-अच्छा-- ये चार अदद--चार अदद --किसके लिए?

-सर एक तो मंच के सभापति जी के स्वागत के लिए --जो फ़लाना जी ख़ुद हैं ।दूसरा मुख्य अतिथि के स्वागत के लिए- जिसके लिए  हिरवाना जी ने अपनी सहमति प्र्दान कर दी है---तीसरा इस संस्था के संस्थापक के स्वागत के लिए जो यह हक़ीर अकिंचन आप के सामने है और चौथा आप के लिए--

-और सरदाना जी ? ---जिज्ञासावश पूछ लिया।

सरदाना जी को कुछ नहीं ,शायर आदमी हैं । वह तो बस भीड़ जुटाएंगे--टेन्ट लगवाएंगे-कुर्सी लगवाएँगे -दरी  बिछाएंगे--जाजिम उठाएँगे --अल्पाहार के प्लेट घुमाएंगे----’ फ़लाना जी ने स्थिति स्पष्ट की

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 कुछ देर तक आँख बन्द कर  मै  चिन्तन-मनन करता रहा --अपनी इज्जत की कीमत लगाई--लेखन का दाम लगाया-कलम की धार देखी- बुलन्दी का एहसास किया - बुलन्दी की शाख टूट भी सकती है --सदी कितनी बड़ी होती है-सदी का साहित्यकार कितना बड़ा होता होगा -मूर्धन्य साहित्यकार क्या होता है । जो मूर्धन्य हैं  क्या वो भी  इसी रास्ते से गए होंगे-- लेखन की साधना का कोई सम्मान नहीं  - यह सम्मान हो भी जाए तो कितना दिन रहेगा---उस सम्मान की अहमियत क्या ---जो संस्था खुद ही अनाम है---कैसे कैसे दुकान खुल गए है  हिन्दी के नाम पर ---लेखन पर ध्यान नहीं  हिंदी के ’उत्थान पर ध्यान नहीं -छपने छपाने पर ध्यान है - सम्मान कराने पर ध्यान है--तभी तो ऐसी कुकुरमुत्ते जैसी  संस्थायें पल्लवित पुष्पित हो रही है। आजकल--- थोक के भाव-सम्मान पत्र वितरित कर रहें है -आप नाम बताएँ और प्रमाण-पत्र पाएँ -चाहे तो अपना नाम खुद ही भर लें ॥ भाग रहे हैं लोग इन्ही  संस्थाऒ के पीछे -- बाद में उसी को एक  नामी और विख्यात -- ,विश्व विख्यात --राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संस्था बताने की एक  नाकाम कोशिश-करेंगे--क्या सोच रहा है आनन्द ..मूढ़्मते ! ---गंगा खुद चल कर तेरे घर आईं है -बहती गंगा में  हाथ धो ले ---उतार यह कॄत्रिमता का लबादा्--- हरिश्चन्द्र बना रहेगा तो ’चांडाल के हाथ बिक जायेगा  - तू पीछे रह जायेगा -दुनिया आगे निकल जाएगी  -धत.-  - घॄणा होती है --हिन्दी के उत्थान के नाम पर क्या क्या तमाशे हो रहे हैं ---जिन्हे उत्थान के लिए कुछ करना नहीं - -लेना देना नहीं -उन्हीं लोगो का तमाशा है --अब तो लोग ’वर्तनी’ भी ठीक से नहीं लिख पा रहे हैं --भाषा विन्यास की तो बात ही छोड़ दें-व्याकरण की बात तो हवा हो गई --सम्मान करवाने की जल्दी है- छपने-छपाने की जल्दी है --कतरन बटोरने की जल्दी है -माला पहनने की जल्दी है-- शाल लपेटने की जल्दी है --- बाबुल मोरा नइहर  छूटल जाय   --

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मैने आँखे खोली या यूँ कहें ’मेरी आँखे खुल गई’,।

हिरवाना जी ने रसीद बुक आगे बढ़ाते हुए ,पूछा--" कितने की ’रसीद’ काट दूँ ,सर!?

हाथ जोड़ कर कहा--"भाई साहब ,माफ़ कीजिएगा --मुझे स्वीकार नहीं कि-मैं --।"

अभी वाक्य पूरा भी नहीं  हो पाया था कि फ़लाना सिंह जी दुर्वासा-सा शाप देते हुए उचानक उठ खड़े हुए--" मालूम था ,आप जैसे नकली लेखको से ही हिन्दी का उत्थान नहीं हो पा रहा है। पता नहीं कहाँ कहाँ से ,कैसे कैसे कंजड़ ’कलम घिसुए’ ’चिरकुटिए’ चले आते है  साहित्य जगत में॥ हम तो शकल से ही पहचान गए थे।--भगवान भला करे इस देश का ।चलो मित्रो !"


-आनन्द.पाठक-



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