सोमवार, 29 नवंबर 2021

 

एक पुराना किस्सा

“आज एक पुराना किस्सा याद आ गया,” मुकन्दी लाल जी आज फिर बीते दिनों में पहुँच गये थे. “एक वकील के साथ मेरा पहली बार वास्ता पड़ा था. सुनेंगे?”

“अरे, आप सुनाये बिना रह पायेंगे क्या?” मैंने हंसते हुए कहा.

“हमारे एक कर्मचारी ने ट्रिब्यूनल में केस कर दिया कि बिना ट्रेड टेस्ट पास किये उसे प्रमोशन दी जाए. हम ने कहा कि नियमों के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता. जो लोग ट्रेड टेस्ट पास करेंगे उन्हें ही प्रमोशन के लिए विचार किया जा सकता है. पर वह माना नहीं और उसने ट्रिब्यूनल में केस कर दिया. मैने डीडीजी के अनुमति लेकर फाइल कार्मिक विभाग को भेज दी और उन्होंने भी कहा कि ट्रेड टेस्ट पास करने के बाद ही किसी की प्रमोशन हो  सकती है. फाइल लेकर मैं सरकारी वकील से मिलने गया. उन्होंने भी कहा कि हमारा निर्णय सही है. उन्होंने आश्वासन दिया कि ट्रिब्यूनल एक ही सुनवाई में उक्त अर्जी खारिज कर देगा.”

“तो अवश्य ही ऐसा नहीं हुआ होगा?” मैंने चुटकी लेते हुए कहा.

“साहब, सुनवाई के दिन तो गज़ब हो गया. मैं भी ट्रिब्यूनल गया था, मेरा पहला अनुभव था. पूरा हॉल भरा हुआ था. हॉल के बीचोंबीच एक जंगला था. मुझ जैसे अधिकारी एक ओर खड़े या बैठे थे. दूसरी और ट्रिब्यूनल के मेम्बर्स के बैठने के लिए विशाल मंच थे और उनके सामने सब वकील थे. हमारे केस की बारी आई तो हमारे सरकारी वकील ने कहा कि विभाग ने कर्मचारी के केस को पुनर्विचार करने के निर्णय लिया है. उनकी बात सुन कर ट्रिब्यूनल ने अगली तारीख देकर सुनवाई खत्म कर दी. इस सब में तीस सेकंड भी नहीं लगे होंगे. मैं दंग रह गया. समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ था, क्योंकि न हमने ऐसा कोई निर्णय लिया था और न ही उन्हें ऐसा ब्यान देने के लिए कहा था. मैं तुरंत भागा कि वकील साहब से कहूँ कि उन्होंने ने ऐसा बयान क्यों दिया था. जब तक भीड़ को चीरते हुए मैं बाहर आया वकील साहब पहले दरवाज़े से बाहर निकल, किसी दूसरी कोर्ट में जा चुके थे.”

“आश्चर्य है!”

“तब मुझे भी आश्चर्य हुआ था. गुस्सा भी आया था. मैंने आकर अपने डीडीजी को यह बताई और कहा कि हमें विधि मंत्रालय को शिकायत करनी चाहिए.”

“फिर?”

“वह अनुभवी अधिकारी थे. मुस्कराए. बोले, अभी पाँच साल की ही नौकरी है तुम्हारी. आज पहली बार कोर्ट या ट्रिब्यूनल गए थे. इसलिए उत्तेजित हो रहे हो. धीरे-धीरे समझ आएगी.”

“शायद ठीक ही कहा था उन्होंने,” मैंने टिपण्णी क्यों की वकीलों के साथ मेरा अपना अनुभव भी कोई ख़ास अच्छा न था.

“बाद में कई बार वकीलों से वास्ता पड़ा. और धीरे-धीर समझ आ ही गया कि.......”

…..लोग क्यों कामना करते हैं कि कभी अदालत न जाना पड़े, कभी वकीलों के मुँह न लगना पड़े,” मैंने सिर हिला कर बीच में टोक कर कहा.

उपलेख: यह किस्सा सत्य घटना पर आधारित है. आगे चल कर वकील साहब कुछ समय के लिए भारत सरकार के एएसजी भी बने.        

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

एक ग़ज़ल

 

 

एज ग़ज़ल

 

तेरे इश्क़ में इब्तिदा से हूँ राहिल ,

न तू बेख़बर है, न मैं हीं हूँ ग़ाफ़िल।      

 

ये उल्फ़त की राहें न होती हैं आसाँ,

अभी और आएँगे मुश्किल मराहिल ।

 

मुहब्ब्त के दर्या में कागज की कश्ती,

ये दर्या वो दर्या है जिसका न साहिल     

 

जो पूछा कि होतीं क्या उलफ़त की रस्में,

दिया रख गई वो हवा के मुक़ाबिल ।      

 

इबादत में मेरे कहीं कुछ कमी थी.

वगरना वो क्या थे कि होते न हासिल।    

 

अलग बात है वो न आए उतर कर,

दुआओं में मेरे रहे वो भी शामिल ।       

 

कभी दिल की बातें भी ’आनन’ सुना कर,

यही तेरा रहबर, यही तेरा आदिल ।       

 

-आनन्द. पाठक-

 

राहिल = यात्री

 

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

                            क्या यह लोग हिंदू विरोधी नहीं हैं?

किसान कानूनों के वापस लेने के परिपेक्षय में नागरिकता कानून को लेकर लेफ्ट-लिबरल और कुछ नेता सक्रिय हो रहे हैं. इनके बयानों को सुन कर प्रश्न उठता है कि क्या यह लोग हिंदू विरोधी नहीं हैं?

नागरिकता कानून के अंतर्गत उन लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है जो बँगला देश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक हैं और जो धार्मिक उत्पीड़न के कारण 2014 से पहले भारत आ गये थे.

पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तो हिंदुओं की संख्या अब न के बराबर ही है. बँगला देश में भी हिंदुओं की संख्या बहुत घट गई है. इसलिए स्वाभाविक है कि धार्मिक उत्पीड़न के चलते, इन देशों से भारत में आये लोगों में सबसे बड़ी संख्या हिन्दुओं की है.

इस कानून के द्वारा भारत के किसी नागरिक की नागरिकता खत्म करने का कोई प्रावधान नहीं है और न ही किसी का कोई अधिकार छीना जा सकता है. इसलिए जब लेफ्ट-लिबरल वगेरह इस कानून को वापस लेने की मांग करते हैं तो एक तरह से वह मांग कर रहे हैं कि भारत से आये हिन्दुओं को भारत की नागरिकता न दी जाए.

विचारणीय है कि जब पिछले दिनों बँगला देश में हिन्दुओं पर फिर से हमले हुए थे तब इन लेफ्ट-लिबरल या इन नेताओं  ने इसके विरोध में एक शब्द भी न कहा था. (वेस्ट बंगाल के हिन्दुओं की चुपी तो चिंता का विषय होनी चाहिए). अगर ऐसे हमले यू पी या गुजरात में एक वर्ग विशेष पर हुए होते तो नश्चय ही यह लेफ्ट लिबरल दिल्ली से लेकर न्यू यॉर्क तक छाती पीट कर रो रहे होते.

तो क्या इस व्यवहार को देखते हुए, यह अनुमान लगाना गलत होगा की यह लोग हिंदू विरोधी हैं और हिंदू विरोध में ही नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग कर रहे हैं?

उपलेख: क्या कश्मीर से मार कर भगाए गये हिन्दुओं के समर्थन में जेएनयू में कभी कोई प्रदर्शन हुआ था? क्या लेफ्ट लिबरल लोग मोमबत्तियां लेकर जंतर-मंतर या कहीं ओर कभी इकट्ठे हुए थे?  

बुधवार, 24 नवंबर 2021

 

क्यों?

“यह अचानक सभी लोग हिन्दुओं के विरुद्ध ऐसी अपमानजनक बातें क्यों कहने लगे हैं?” मुकन्दी लाल जी ने बड़े दुःखी भाव से पूछा.

“भाई साहब, मैंने पहले भी आप से कहा था, राजनीति में अचानक कुछ नहीं होता.  यह सब भी अचानक नहीं हो रहा. इस देश में कुछ लोग हैं जिन्हें हिन्दुओं से कुछ अधिक ही प्रेम है. बस अपना प्रेम व्यक्त करने का ढंग थोड़ा निराला है.”

“कोई कारण तो होगा जो वो ऐसा कर रहे हैं.”

“अब किसी के मन में झाँक कर तो देख नहीं सकते, हम तो अनुमान ही लगा सकते हैं.”

“क्या अनुमान है आपका?”

“हो सकता है उन्हें लगता हो कि अब सत्ता पाने का उनके पास एक ही उपाय है. देखा जाए तो भाजपा कांग्रेस बनती जा रही है, ऐसे में कांग्रेस के पास क्या विकल्प है? भाजपा तो बन नहीं सकती, तो एक ही रास्ता बचता है, मुस्लिम लीग बनना.”   

“मुझे तो लगता है कि ऐसा करने के लिए उन्हें कोई मजबूर कर रहा.”

“कौन मजबूर कर सकता है?” मैंने पूछा.

“कोई भी...चीन कर सकता है...चर्च कर सकती है....जिहादी कर सकते हैं, याद नहीं मुंबई हमले के लिए एक नेता ने आरएसएस को ज़िम्मेवार ठहराया था.”

“चीन?”

“चीन की पार्टी के साथ एग्रीमेंट जैसा कुछ नहीं किया था क्या?”

“नहीं-नहीं, मुझे लगता यह कारण नहीं हो सकते हैं, शायद इन लोगों की सोच ही विकृत है. शायद यह लोग सच में सनातन धर्म से घृणा करते हैं.”

“सनातन धर्म से या हिन्दुओं से? बीच-बीच में यह लोग मंदिर-मंदिर भी जाते हैं.”

“मंदिरों में घूमने से क्या होता है.मन में क्या है वह महत्वपूर्ण है.”

“अच्छा तो यह होता कि ईमानदारी से बता देते कि.......”

मुकन्दी लाल जी को मैंने बीच में ही टोका, “ईमानदारी, अब आप अन्याय कर रहे हैं राजनेताओं के साथ.”

मेरी बात सुन कर वह ज़ोर से हंस दिए.    

सोमवार, 22 नवंबर 2021

                                                        क्यों आई ऐसी स्तिथि?

कुछ दिन पहले तेलगु देशम पार्टी के अध्यक्ष श्री चन्द्र बाबू नायडू विधान सभा से बाहर आये. उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई और लोगों से बात करते-करते फूट-फूट कर रोने लगे.

उनके जैसे वरिष्ठ राजनेता का इस प्रकार अश्रुपूर्ण हो जाना सब के लिए चिंता का विषय होना चाहिए पर लगता नहीं है कि देश के अधिकाँश राजनेताओं ने इस ओर कोई ध्यान भी दिया है.

नायडू जी का कहना था कि विधान सभा के कुछ सदस्यों के व्यवहार ने उन्हें बहुत आहत किया था, क्योंकि उनकी पत्नी को लेकर अपशब्द कहे गये थे. उनका यह भी कहना था कि उनके साथ तो अभद्र व्यवहार लंबे समय से हो रहा था.

प्रश्न यह है कि ऐसी स्तिथि क्यों आई और इसके लिए उत्तरदायी कौन है.

मेरा मानना है कि इस स्थिति के लिए राजनेता स्वयं उत्तरदायी हैं. वह किसी और को दोष नहीं दे सकते. कम से कम जनता को दोषी नहीं ठहरा सकते.

अगर राजनितिक पार्टियाँ परिवारों की बंधक बन कर रह गई हैं तो राजनेताओं का दोष है. अगर वह अपराधिक छवि के लोगों को चुनाव में उतारती हैं तो उसका परिणाम भी उन्हें ही भुगतना पड़ेगा. अगर परिवार को, जाति को, धर्म को, क्षेत्र को, भाषा को देश से अधिक महत्व दिया जाता है तो वैसी ही राजनीति के लिए उन्हें तैयार रहना होगा.

सच तो यह है कि राजनीति में कई लोग ऐसे हैं जिन्हें राजनीति से कोसों दूर होना चाहिए था. परन्तु आज की राजनीति में ऐसे लोग खूब फलफूल रहे हैं क्योंकि आज की राजनीति का उद्देश्य किसी भी तरह सत्ता पाने और भोगने का है.

जिस प्रकार मर्यादाएं भंग हो रही हैं उसे देखते हुए हमें रत्ती भर भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर निकट भविष्य में ऐसा व्यवहार अन्य विधान सभाओं के सदस्यों और सांसदों के साथ होने लगे.

शनिवार, 20 नवंबर 2021

 

स्टैंड-अप कमेडियन

“यह वीरदास ने क्या कह दिया? आश्चर्य होता है कि लोग किस हद तक गिर सकते हैं. जब  स्वामी............” मुकन्दी लाल बिना रुके बोले जा रहे थे. मैंने बीच में टोका, “रुकिए, आप यह क्या कहने जा रहे हैं? आप किस की तुलना किस के साथ करने जा रहे हैं.”

“क्या मतलब?” मुकन्दी लाल जी की त्योरी चढ़ गई.

“कभी सिंह की तुलना लकड़बग्घे के साथ की जा सकती है?”

मुकन्दी लाल जी ने अपनी जीभ काट ली, “भयंकर भूल होने जा रही थी.”

“जी......और एक बात कहूँ, मुझे तो लगता है कि दोष इस जोकर का नहीं है, दोष हम सब का है. हमें न अपनी सभ्यता पर गर्व है न अपने सनातनी संस्कारों में आस्था. यह आदमी भी तो इस समाज का ही तो हिस्सा है, कोई हम से भिन्न थोड़ा ही है. परन्तु इतना तो स्वीकार करना पड़ेगा कि जो उसका उद्देश्य था वह तो उसने पूरा कर ही लिया.”

“क्या उद्देश्य था उसका?”

“वही जो हर उस आदमी का होता है जो कभी राम को अपशब्द कहता है तो कभी गांधी को, सस्ते में प्रसिद्धि पाना. अब देखिए, कल तक गिने-चुने लोग ही उस जोकर के बारे में जानते थे, आज बड़े-बड़े महानुभाव उसके समर्थन में खड़े ही गये हैं. और हम दोनों भी तो उसी की चर्चा कर रहे हैं.”

“बात तो आप सही कह रहे हैं,” मुकन्दी लाल जी बोले. “सच कहूँ तो मैंने भी उसका नाम न सुना था पर अब यु-ट्यूब पर उसके दो-चार विडियो देख चुका हूँ. यह उसके अपशब्दों का ही तो करिश्मा है.”

“उसकी कॉमेडी कैसी लगी?” मैंने पूछा क्योंकि मैंने भी उसका कोई विडियो नहीं देखा है.

“कॉमेडी? मुझे तो उन लोगों पर तरस आया जो उसकी वाहियात बातों पर हँस रहे थे. या फिर मजबूरी में हँसने का ढोंग कर रहे थे.”

“मुझे लगता है जिस आदमी में न लेखक बनने की योग्यता होती है और न एक्टर बनने की, वह स्टैंड-अप कमेडियन बन जाता है.”

“सही कहा आपने,” मुकन्दी लाल जी ने हँसते हुए कहा.

     

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

                                                दो समितियाँ

हमारे मोहल्ले में दो समितियां हैं, एक समिति ने मानवों की कुत्तों से रक्षा का बीड़ा उठा रखा है तो दूसरी ने कुत्तों की मानवों से रक्षा का. दोनों समितियों की जन्मगाथा बहुत रोचक है.

सुखीलाल हमारे मोहल्ले के उन जाने माने व्यक्तियों में से एक हैं जो समाज की हर समस्या पर अपनी समझ और बुद्धि का प्रकाश व प्रभाव डालना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. कहीं पिता-पुत्र में अनबन हो या म्युनिसिपेलिटी के चुनाव, सफ़ाई कर्मचारियों की हड़ताल हो या दहेज़ का अभिशाप, हर जगह हर समस्या का समाधान ले कर उपस्थित हो जाते हैं हमारे सुखीलाला.

इन्हीं सुखीलाला ने एक दिन कुत्ता विरोधी समिति के गठन का बीड़ा उठा लिया. हुआ यूँ कि एक दिन उनकी चौदह वर्ष की बालिका पड़ोस की मौसी जी से एक कटोरा चीनी उधार लेने गई. लगभग सभी पड़ोसियों से उनका ऐसा लेन-देन लगा ही रहता है, वह अलग बात है कि लेना अधिक और देना कम होता है. किसी घर से कटोरा भर चीनी, किसी घर से डिब्बा भर आटा, किसी घर से....खैर वह एक अलग किस्सा है, कभी  उसकी चर्चा करेंगे. उस दिन चीनी की आवश्यकता थी, उनकी श्रीमती जी ने अपनी तीसरी नंबर की बालिका को पड़ोस की बिमला मौसी के घर भेजा.

बालिका चीनी की कटोरी हाथ में लिए घर लौट रही थी कि न जाने कहाँ से एक कुत्ता आ धमका, न जाने कि उसे क्या सूझा और उस बालिका पर झपटा. इस अप्रत्याशित आफत से बालिका इतना घबरा गई कि एक दिल दहला देने वाली चीख उसके मुख से निकल गई और गली के एक छोर से दूसरे छोर तक फ़ैल गई. गली में रहने वाले लोग सन्न रह गये. कई खिड़कियाँ दरवाज़े एक साथ खुल गये. कई चेहरे अलग-अलग  भाव लिये खिड़कियाँ , दरवाजों से बाहर आये. सबने देखा कि सुखीलाल की कन्या बदहवास भागी जा रही है और एक कुत्ता उसके पीछे भाग रहा है. दृश्य अत्यंत मार्मिक, सबके दिल को दहला देने वाला था.   

तभी अपेक्षानुसार सुखीलाल जी वहां आ पहुंचे. पर इससे पहले कि अपनी समझ व ज्ञान का प्रकाश इस घटना पर डाल पाते, बालिका उनसे आ टकराई. एक घबराई, सहमी सी हिरणी सामान वह अपने पिता के अंक में समा गई. उसकी सांस धौंकनी के सामान चल रही थी. कटोरी और चीनी का कहीं अता-पता न था. आश्चर्य, भय और क्रोध में डूबे सुखी लाला ने उसी क्षण प्रण ले लिया कि अपने नगर को कुत्तों से छुटकारा दिला कर ही दम लेंगे.

 

 

प्रकृति के उस नियम का तो आप को भी ज्ञान होगा जिस नियम के आधार पर इस संसार में जहां राजा होता है वहां रंक भी होते हैं, जहां दुःख होते हैं वहां सुख भी होता है, जहां रात होती वहां दिन भी होता है.

हर भाव व वस्तु का सृजन अपने साथ ही विरोधी भाव व वस्तु को जन्म दे देता है. प्रकृति के इस अटल नियम से सुखीलाल और उनकी समिति कैसे मुक्त रहते?

जिस दिन उन्होंने मानवों की कुत्तों से रक्षा करने का प्रण लिया उसी दिन कुत्तों पर हो रहे अत्याचार ने चुन्नीलाल के हृदय में एक तूफ़ान पैदा कर दिया था.

कुछ आवारा बच्चों द्वारा पिटा एक पिल्ला चुन्नीलाल के सामने से गुज़र गया और उनके समक्ष कई प्रश्न खड़े कर गया. क्या आवारा कुत्ते और उनके पिल्ले इस समाज में इस तरह ही एक उपेक्षित जीवन जीते रहेंगे? क्या मनुष्य का कोई कर्तव्य नहीं है इस प्राणी की ओर जो पाषाण युग से उसका साथी रहा है? क्या कोठियों में पलते कुत्ते ही सुख के अधिकारी हैं? क्या आवारा कुत्तों को सदा अत्याचार ही सहना होगा?

चुन्नीलाल ने आवारा बच्चों को डपट दिया और एक-दो बच्चों को चपत रसीद कर उस आवारा पिल्ले को उन आवारा बच्चों के अत्याचार से मुक्त कराया. उसी दिन, म्युनिसिपेलिटी के दो चुनाव जीते पर पिछ्ला चुनाव हारे, चुन्नीलाल ने आवारा कुत्तों की मानवों से रक्षा का बीड़ा उठा लिया. आनन-फ़ानन में चुन्नीलाल ने एक समिति का गठन कर दिया.

दोनों समितियों ने बड़े उत्साह और जोश के साथ अपना कार्य आरंभ किया. सुखीलाल की दौड़ धूप के फलस्वरूप म्युनिसिपेलिटी वाले कुछ आवारा कुत्तों को पकड़ कर ले गये. सारे नगर में सनसनी फ़ैल गयी. इतिहास में ऐसा कभी न हुआ था. अब तक आदमी, गाय, भैंस, गधे, कुत्ते और अन्य प्राणी बड़े मेलजोल के साथ यहाँ रहते आये थे. कुत्तों का पकड़ा जाना एक आश्चर्यजनक घटना थी.  

सीना तान, सुखीलाल एक गली से दूसरी गली घूम रहे थे. उनकी तीसरे नंबर की बालिका भी खुशी से फूली न समा रही थी.

उधर अभी तक कुछ आवारा कुत्तों को आवारा बच्चों के अत्याचार से बचाने के अतिरिक्त कोई भी सफलता चुन्नीलाल की समिति अर्जित न कर पायी थी. आवारा कुत्तों के भविष्य को लेकर कुछ गोष्ठियां भी आयोजित की गयीं थीं और इस समस्या पर गंभीर चर्चा भी हुई थी. पर अभी तक कोई ऐसी महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिली थी जो की अखबारों की सूर्खी बन पाती या जिस को लेकर किसी टी वी चैनल पर गरमा-गरम बहस हो पाती. अब सुखीलाल की दौड़-धूप ने उन्हें एक स्वर्णिम अवसर दे दिया था.

म्युनिसिपेलिटी ने कई आवारा कुत्तों को पकड़ लिया था. उन्होंने तुरंत एक आंदोलन छेड़ दिया. उनकी मांग थी की इन असहाय कुत्तों को तुरंत छोड़ दिया जाये और उन्हें अपने-अपने मोहल्लों में  पुनः स्थापित किया जाये.  

सुखीलाल ने सुना तो गुस्से से कांप उठे. लम्बी प्रतीक्षा और अथक प्रयास के बाद उनकी  प्रतिज्ञा पूरी होने वाली थी कि चुन्नीलाल ने अड़ंगा लगा दिया था. उन्होंने अपना आंदोलन तेज़ कर दिया. चुन्नीलाल भी पीछे हटने वाले न थे. उन्होंने भी अपनी पूरी शक्ति अपने आंदोलन में झोंक दी.

दोनों आंदोलनों ने प्रचंड रूप ले लिया. आंदोलनों के वेग से सारा नगर कंपकंपा गया. म्युनिसिपेलिटी के चेयरमैन घबरा गये. ऐसा तो पहले कभी न हुआ था. क्या करें, क्या न करें कुछ समझ न पा रहे थे. मानवों से कुत्तों की सुरक्षा का सोचें कि कुत्तों से मानवों की सुरक्षा का?

जब चेयरमैन को कुछ न सूझा तो उन्होंने दोनों समितियों के अध्यक्षों को बुलाया. खूब सोच-विचार हुआ. खूब तर्क-वितर्क हुआ. कोई भी ज़रा भी पीछे हटने को तैयार न था. कोई रास्ता दिखाई न दे रहा था. हार कर चेयरमैन महोदय ने कहा, “क्यों न देश के दूसरे नगरों में आवरा कुत्तों से निपटने की प्रचलित प्रथा की जानकारी प्राप्त की जाये? मैं आज ही एक आदेश जारी करता हूँ. सुखीलाल जी आप देश भ्रमण कर यह पता लगाओ कि अन्य नगरों में कुत्तों से मानवों की सुरक्षा का क्या-क्या प्रबंध किये जाते हैं. चुन्नीलाल जी आप यह जानकारी इक्कठी करो की अलग-अलग नगरों में मानवों के अत्याचारों से कुत्तों को बचाने के क्या-क्या तरीके अपनाये गये हैं.”

सुखीलाल और चुन्नीलाल ने सुना तो प्रसन्नता से फूले न समाये. दोनों को न तो तनिक सा आभास न था कि उनके आंदोलनों का इतना आश्चर्यजनक परिणाम निकलेगा. दोनों ने चेयरमैन का बार-बार धन्यवाद किया.

पर उन कुत्तों का क्या होगा जिन्हें पकड़ कर रखा गया है?” उठते-उठते चुन्नीलाल ने पूछा.

उन्हें हरगिज़ न छोड़ा जाये,”सुखीलाल ने आवेश से कहा.

उनके साथ कोई भी अत्याचार हम सहन न करेंगे,” चुन्नीलाल ने भी जोर दे कर कहा.

चेयरमैन असमंजस में पड़ गये. कुछ सोच कर बोले, “जब तक कोई निर्णय नहीं हो जाता तब तक उन कुत्तों को अनाथालय में रख देंगे. कुछ बच्चों को वहां से बाहर निकाल देंगे और कुत्तों के लिए जगह बना लेंगे. बच्चों पर होने वाला जो खर्चा बच  जायेगा उसे कुत्तों पर खर्च कर देंगे. इस तरह न कुत्तों पर कोई अत्याचार होगा न ही किसी को कुत्तों का कोई भय रहेगा.”

यह उत्तम विचार है,” सुखीलाल और चुन्नीलाल एक साथ बोले.

आजकल सुखीलाल और चुन्नीलाल देश भ्रमण पर हैं. परदेस में न जाने कब कैसी विपत्ता आन पड़े, यह सोच दोनों एक साथ ही यात्रा कर रहे हैं.

अनाथालय से निकाले गये बच्चे, अनाथालय में बंद आवारा कुत्ते, दोनों समितियों के सभी सदस्य उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं.