शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

एक ग़ज़ल

 

 

एज ग़ज़ल

 

तेरे इश्क़ में इब्तिदा से हूँ राहिल ,

न तू बेख़बर है, न मैं हीं हूँ ग़ाफ़िल।      

 

ये उल्फ़त की राहें न होती हैं आसाँ,

अभी और आएँगे मुश्किल मराहिल ।

 

मुहब्ब्त के दर्या में कागज की कश्ती,

ये दर्या वो दर्या है जिसका न साहिल     

 

जो पूछा कि होतीं क्या उलफ़त की रस्में,

दिया रख गई वो हवा के मुक़ाबिल ।      

 

इबादत में मेरे कहीं कुछ कमी थी.

वगरना वो क्या थे कि होते न हासिल।    

 

अलग बात है वो न आए उतर कर,

दुआओं में मेरे रहे वो भी शामिल ।       

 

कभी दिल की बातें भी ’आनन’ सुना कर,

यही तेरा रहबर, यही तेरा आदिल ।       

 

-आनन्द. पाठक-

 

राहिल = यात्री

 

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