बुधवार, 30 नवंबर 2022

 कितनी बार कहा है तुमसे

यूँ न ताका करो छुप छुप कर

मैं पकड़ ही लेती हूँ ये चोरी  तुम्हारी

दूसरे भी समझ जाते हैं और 

मैं हो जाती हूँ अप्रस्तुत।

ठीक है कि एक चाहत सी है

हमारे बीच,  किंतु क्या इसे

इस तरह  प्रकाशित करना चाहिये

अरे प्रेम तो छुपाने की ही चीज़ है

है ना ?



.।

शनिवार, 26 नवंबर 2022

मोहब्बत क्यों हो

 न वक्त

न हालात
न जज़्बात
मेरे काबू में
तू ही कह दे
मुझे तुझसे
मोहब्बत क्यों हो

कोई बेज़ार सा
बेगैरत  कोई अहसास
दिन रात मुझे मथता है
तू ही बता
तुझ से
तेरे इश्क़ से, मुझे
शिकायत क्यों हो

खुदा  ऐसे ही
किसी किरदार की
तकदीर में हिज्र
कहां लिखता है
तेरे इस  वस्ल से
तेरे  उस हिज्र से
मुझको फ़िर
बगावत क्यों हो

तू मुझे छोड़ दे
जिस लम्हा बस
उसी  पल मर जाऊं मैं
हर दफा
मरने के गुनाह में
शामिल
ये कयामत क्यों हो

शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

चन्द माहिए

 


चन्द माहिए


1

दिन भर का थका होगा,

कुछ न हुआ हासिल

दुनिया से ख़फ़ा  होगा।


2

अब लौट के है जाना,

एक भरम था जग,

उसको ही सच माना।


3

जब जाना है, बन्दे!

अब तो काट ज़रा,

माया के सब फन्दे।


तुम को न भरोसा है,

कोई है दिल में,

मिलने को रोता है।


5

इक मेरी मायूसी,

उस पर दुनिया की,

दिन भर कानाफ़ूसी।


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 2 नवंबर 2022

हरिगीतिका छंद "भैया दूज"



"भैया दूज"

तिथि दूज शुक्ला मास कार्तिक, मग्न बहनें चाव से।
भाई बहन का पर्व प्यारा, वे मनायें भाव से।
फूली समातीं नहिं बहन सब, पाँव भू पर नहिं पड़ें।
लटकन लगायें घर सजायें, द्वार पर तोरण जड़ें।

कर याद वीरा को बहन सब, नाच गायें झूम के।
स्वादिष्ट भोजन फिर पका के, बाट जोहें घूम के।
करतीं तिलक लेतीं बलैयाँ, अंक में भर लें कभी।
बहनें खिलातीं भ्रात खाते, भेंट फिर देते सभी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

छंद का विधान निम्न लिंक में देखें:-

हरिगीतिका छंद

 

32 मात्रिक छंद "रस और कविता"

मोहित होता जब कोई लख, पग पग में बिखरी सुंदरता।
दाँतों तले दबाता अंगुल, देख देख जग की अद्भुतता।।
जग-ज्वाला से या विचलित हो, वैरागी सा शांति खोजता।
ध्यान भक्ति में ही खो कर या, पूर्ण निष्ठ भगवन को भजता।।

या विरहानल जब तड़पाती, धू धू कर के देह जलाती। 
पूर्ण घृणा वीभत्स भाव की, या फिर मानव हृदय लजाती।।
जग में भरी भयानकता या, रोम रोम भय से कम्पाती।।
ओतप्रोत वात्सल्य भाव से, माँ की ममता जिसे लुभाती।।

अरि की छाती वीर भाव से, छलनी करने भुजा फड़कती।
या पर पीड़ निमज्जित छाती, जिसकी करुणा भरी धड़कती।।
या शोषकता सबलों की लख, रौद्र रूप से नसें कड़कती।
या अटपटी बात या घटना, मन में हास्य फुहार छिड़कती।।

अभियन्ता ज्यों निर्माणों को, परियोजित कर के सँवारता।
बार बार परिरूप देख वह, प्रस्तुतियाँ दे कर निखारता।।
तब वह ईंटा, गारा, लोहा, जोड़ धैर्य से आगे बढ़ता।
और अंत में वास्तुकार सा, नवल भवन सज्जा से गढ़ता।।

भावों को कवि-मन वैसे ही, नया रूप दे दे संजोता।
अलंकार, छंदों, उपमा से, भाव सजा कर शब्द पिरोता।।
एक एक कड़ियों को जोड़े, गहन मनन से फिर दमकाता।
और अंत में भाव मग्न हो, प्रस्तुत कर कर के चमकाता।।

जननी जैसे नवजाता को, लख विभोर मन ही मन होती।
नये नये परिधानों में माँ, सजा उसे पुत्री में खोती।।
वही भावना कवि के मन को, नयी रचित कविता देती है।
तब नव भावों शब्दों से सज, कविता पूर्ण रूप लेती है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
22-05-2016

(अभियन्ता= इंजीनियर;   परियोजित= प्रोजेक्टींग;   परिरूप= डिजाइन;   प्रस्तुती= प्रेजेन्टेशन )

छंद का विधान निम्न लिंक में देखें:-
Nayekavi: 32 मात्रिक छंद "रस और कविता":