गुरुवार, 31 जुलाई 2014

नटवर सिंह की किताब पे एक द्रुत प्रतिक्रिया :वागीश मेहता

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द्रुत प्रतिक्रिया :गुडगाँव से डॉ वागीश मेहता 

पूर्व मंत्री और कांग्रेसी कुंवर नटवर सिंह ने जो पुस्तक लिखी है उसमें बहुत सारे राज होंगें। पर एक राज जो व्यक्त हुआ है वह यह है कि श्रीमती सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री न बनने का कारण किसी प्रकार की त्याग भावना से नहीं जुड़ा था। 

खोले गए राज की सच्चाई तो यह है कि उनके पुत्र राहुल गांधी ने यह आशंका व्यक्त की थी कि  जैसे प्रधानमन्त्री पद पर रहते हुए उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके पिता श्री राजीव गांधी की हत्या  कर दी गई थी वैसे ही कहीं सोनिया गांधी की भी हत्या  न हो जाए। वो अपनी माँ को नहीं खोना चाहते थे। यह उनके मन की एक भयावह कल्पना भी हो सकती है पर कुंवर नटवर सिंह का यह कथन विश्वसनीय है कि अपने बेटे की बात से प्रभावित होकर श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने स्थान पर सरदार मनमोहन सिंह को आगे कर दिया। बात भी ठीक है। इसमें ये आशंका इसलिए भी होती है कि बहुत पहले जब बांग्ला देश के बनने से पहले पाकिस्तान से भारत का युद्ध चल रहा था तो अखबारों में कुछ ऐसी खबरें छपी थीं कि श्रीमती सोनिया गांधी उस समय राजीव गांधी को इसलिए बचाकर इटली ले जाना चाहती थीं कि इंडियन एअर फ़ोर्स का पायलट होने के नाते कहीं उन्हें जंग में हिस्सा न लेना पड़े। अब यह तो जांच का विषय हो सकता है पर अखबार में छप जाने के बाद  बात कहीं से कहीं पहुँच ही जाती है। 

इस बार भी उन्होंने ने सोचा हो कि प्रधानमंत्री पद के पीछे ज़िंदगी को क्यों झंझट  में डाला जाए।और फिर पुत्र का इसरार भी था सो वो पीछे हट गईं। 

इसे कांग्रेसी चाटुकाारों ने श्रीमती सोनिया गांधी का महान त्याग कहकर उन्हें त्याग मूर्ती के रूप में प्रसारित कर दिया। अब श्री नटवर सिंह के खुलासे के बाद वह कह रहीं हैं कि मैं भी किताब लिखूंगी तब सच्चाई सामने आएगी। बहरहाल जिसने भी उन्हें किताब लिखने की सलाह दी है वे उनके हितैषी नहीं हो सकते। पहली बात  तो ये कि दुनिया सब जानती है दूसरी बात  ये कि मनीष तिवारी और मणिशंकर एैयर जैसे अंग्रेज़ी  साहब सामने आ भी जाएं तो भी उधार की भाषा में  अहसास और ज़ज़्बात कहाँ से आएंगे। और यदि उनके लेखन के बाद और जानकारों ने अपने पिटारे खोल दिये तो क्या होगा। 

सौ बातों की बात तो यह है कि झूठ की कालिख पे सफेद पर्दा डाल देने से वह सच नहीं हो जाता। 

बाकी ये भी है कि वे जो कुछ भी लिखेंगी वह प्रतिक्रिया कहलाएगी और प्रतिक्रिया तो बुद्धि से लिखी जाती है एहसास और ज़ज़्बात से नहीं। हमें तो श्रीमती गांधी से सहानुभूति है बाकी वो जाने और उनके सलाहकार।   

6 things that Natwar Singh has 'revealed' about SoniaGandhi


Natwar Singh the man that stood beside the UPA government through thick and thin, has now come out with perhaps a shocking critique of the Gandhi family. Singh’s autobiography One Life is Not Enough (published by Rupa) reportedly reveals a lot of information about the President of the Congress Party, Sonia Gandhi. His comments in an interview with senior journalist Karan Thapar about his soon to be released book has started a war of words between Natwar Singh and Sonia Gandhi. Gandhi has jumped to her defence saying that “I will write my own book, and then everyone with know the truth.” Why is it that the Congress leader is so upset with Singh's book? Here are six things that Natwar Singh reportedly reveals in his upcoming autobiography:


1) Sonia Gandhi: Fall of the Congress Party
According to reports, Singh in his five-page epilogue, criticises Sonia Gandhi for reducing Congress, one of the “greatest political parties” of the world into a humiliating hindquarters of just 44 members in the Lok Sabha.
2) Sonia Gandhi: “authoritarian” and “capricious” to “Machiavellian” and “secretive”
Natwar Singh describes the growth of Sonia Gandhi in an entire chapter where he describes her transformation from being a nervous and shy woman to becoming authoritarian in her leadership and extremely secretive in her approach. Commenting on her current role in politics, he even goes on to say that “her public image is not flattering”
3) 10 Janpath- Sonia Gandhi's residence, the real seat of power:
Extending the metaphor of Sonia Gandhi as a ruler in power, he claimed that her residence “10 Janpath” was the real seat of power and the centre from where she controlled the political actions of the UPA government.“Sonia very discreetly monitored the functioning of the most important ministries in the government, displaying a Machiavellian side to her character”
4) Secret access to confidential information:
Natwar Singh believes that there was perhaps a “mole” who existed in the Ministry of External affairs who gave Sonia false and confidential information. He traces this statement back to an incident in February 2005, when he accompanied Afghan President Hamid Karzai to Janpath. He got into a verbal argument with Sonia as she falsely accused him for getting involved in defence deals and had passed on files on some defence deals to Pranab Mukherjee, the defence minister at that point.
5) General Elections 2004: The truth behind turning down the post of Prime Minister
Singh says that “it was not her inner soul” but Rahul Gandhi who asked her to turn down the post of Prime Minister in the general elections of 2004. Rahul feared that his mother's fate would end up like that of his father and grandmother. “Rahul said he was prepared to take any possible step… Rahul is a strong-willed person; this was no ordinary threat,” Natwar writes. 
6) PV Narasimha Rao: The second choice
Natwar claims that it was then Vice President Shankar Dayal Sharma who was the first choice as Prime Minister in 1991, however due to his poor health, he declined the offer. Thus, Sonia chose PV Narasimha Rao. 
Natwar Singh served as the foreign minister in 2004-2005 but had to resign from the United Progressive Alliance (UPA)-I Government in 2005 in the wake of the Iraqi food-for-oil scam. His autobiography called One Life is Not Enough: An Autobiography is slated to be released soon.

नटवर सिंह की किताब पे एक द्रुत प्रतिक्रिया :वागीश मेहता 

सोमवार, 28 जुलाई 2014

आधा हिस्सा पीहर में



हाँ,आज भी टूट जाता है
घर आँगन अंदर तक
जब बेटी विदा होती है.

अपनी ससुराल जाकर भी
अपना आधा हिस्सा
छोड़ जाती है पीहर में.

फ़िक्र अपने भाई की,
मालिश पापा के सिर की,
आलिंगनबद्ध होना माँ से
ललक बचपन को जीने की
कर देती है भाव - विभोर
जमघट सहेलियों का
दौर चाय -कॉफी का देर रात तक
गीली-गीली रातों में
अलाव जलता है जज्बातों का.

शायद बेटियां पीहर जीने आती है--
छूटे हुए बचपन की यादें
भाई के साथ की गई शरारतें
पापा से की गई ज़िद
माँ के हाथ की रोटी
और कहीं गिरा पड़ा वो लम्हा
जिसमे दर्द भी था,खुशी भी.

और इन सबको जी कर
जब वो लौटती है ससुराल
अपना आधा हिस्सा
छोड़ जाती है पीहर में.

सुबोध

चन्द माहिया : क़िस्त 05



:1:
जब बात निकल जाती
लाख करो कोशिश
फिर लौट के कब आती

:2:

यारब ! ये अदा कैसी ?
ख़ुद से छुपते हैं
देखी न सुनी ऐसी

:3:

ऐसे न चलो ,हमदम !
लहरा कर जुल्फ़ें
आवारा है मौसम

:4:

माना कि सफ़र मुश्किल
होती है आसां
मिलता जब दिल से दिल

:5:

 जब क़ैद-ए-ज़ुबां होती
बेबस आँखें तब
इक तर्ज-ए-बयां होती

-आनन्द.पाठक-
09413395592

रविवार, 27 जुलाई 2014

Ocean of Bliss: फिर से महकने लगी चांदनी

Ocean of Bliss: फिर से महकने लगी चांदनी: सुरमई रात पेड़ों के पत्तों से छन कर गुनगुनाती हुई गीत मधुर गाती खिलखिलाने लगी चांदनी आहट  सुनते ही उसकी बिछ गये मखमली फूल राहों म...

Ocean of Bliss: दूधो नहाओ और पूतो फलो ''

Ocean of Bliss: दूधो नहाओ और पूतो फलो '': जब मै बचपन में अपनी माँ की उंगली पकड़ कर चला करती थी ,बात तब की है ,हमारे पडोस में एक बूढी अम्मा रहा करती थी ,उन्हें हम सब नानी बुलाते थे |...
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 http://shakuntlamahakavya.blogspot.com/2014/07/fiz-ferzksa-vkids-fy-d-tkxj.html

तुम सुंदर हो


तुम सुंदर, तुम से जग सुंदर
इस जग की सब बाते सुंदर
पशु ,पक्षी, जंगल सुंदर
धरती, नदिया ,बादल, सुंदर

सागर, बालू, सीपीं सुंदर
लहराती फसलें सुंदर
इस धरती की ममता सुंदर
और अस्मानी छाता सुंदर

हरलो मानव मन की कालिख
तो, बन जाये वह भी सुंदर
मैं भी सुंदर, वह भी सुंदर
तेरा प्रकाश सब के अंदर

हर रूप मे हो मानव सुंदर
बाहर से हो या फिर हो अंदर

क्यू कि तुम सुंदर हो।






गुरुवार, 24 जुलाई 2014

"कैसी सजी आ रही"

मित्रों आज एक नवगीत 
कैसी    सजी     आ     रही 
बालीबुड से चली  आ  रही।  
अनुपम    सुगन्ध    लिए 
वर   आभूषण   से   सजी
दिव्य    सुन्दरता   लेकर 
वह    चली      आ     रही
कैसी    सजी     आ     रही 
बालीबुड से चली  आ  रही।
अनेक     पुष्पों   से   सजी   
मन्द  -  मन्द    मुस्काती 
जैसे   कुछ     गुनगुनाती
तनिक   आवाज  न  रही  
कैसी    सजी     आ     रही 
बालीबुड से चली  आ  रही।
मैं अपलक उसे  देख  रहा 
उसके  तन  व  चाल   को
मगर    वह   कैसी     थी 
मेरी  तरफ  देख  न  रही
कैसी    सजी     आ     रही 
बालीबुड से चली  आ  रही।
वह    कोई    और     नहीं
एक    कार     थी    सजी  
सुन्दर   वर   को   लेकर
मेरी तरफ चली आ रही 
कैसी    सजी     आ     रही 
बालीबुड से चली  आ  रही।   
http://shakuntlamahakavya.blogspot.com/2014/07/blog-post_24.html


पचास पार मर्द


जिन अभावों से गुजरा मैं
मेरा परिवार रूबरू न हो उनसे
इसी कोशिश में
जिम्मेदारियों से झुके कंधे लिए
पचास पार का मर्द
लौटता है जब घर
स्वागत करते मिलते बीवी,बेटी,बेटा
दरवाज़े पर
अपनी-अपनी ख्वाइशों के साथ
जो बताई थी सुबह जाते वक्त..
पैसे की कमी के कारण
कुछ जो रह गई अधूरी
मनाना है उसके लिए...
गीलापन पसर जाता है आँखों में
जिसे साफ़ करता है चेहरा छुपाकर
--
दो रोटी परोसी जाती है
एक कटोरी दाल
एक कटोरी सब्ज़ी
और एक कटोरी फ़िक्र के साथ.
रोटी निगलता है
बिखरे ख्वाबों की किरचों से
बीबी की शिकायते सुनते-सुनते
उन शिकायतों में
पडोसी की नई गाड़ी,
सहेली की नई साड़ी से लेकर
दुनिया भर की अतृप्ति है.
-
टीवी के ऊँचे वॉल्यूम में
बहिन-भाई के झगडे
याद दिलाते है उसकी अपनी निष्फिक्री के दिन
तब वो नहीं समझता था फ़िक्र पापा की
आज ये नहीं समझ रहे है
कल जब ये बनेंगे माता, पिता
तो समझ जायेंगे अपने आप
-
रात को जब जाता है सोने
तो सोता नहीं
ऊंघता है कल की फ़िक्र में
सूरज कब माथे पर देने लगता है दस्तक
पता ही नहीं चलता ..
----
तैयार होकर जल्दी से
आधी खाता,आधी छोड़ता
निकल जाता है
बाहरी दुनिया में
जहाँ उसे करना है संघर्ष
परिवार की सुरक्षा और सुविधा के लिए
खुद का वज़ूद खोकर
किसी का पति ,पिता बनकर
ये जिम्मेदारी का सम्बल
पचास पार मर्द की पीड़ा कम करता है
और सफेदी कनपट्टीयों के पास की
खुद्दारी बन जाती है.

सुबोध- १३ जून,२०१४

आलू -प्याज--टमाटर [एक लघु व्यंग्य कथा]



जब से प्याज़ ने एक बार दिल्ली की सरकार हिला दी तब से इन सब्ज़ियों को अपनी ताक़त का अन्दाज़ा लग गया और सरकार को अपनी औक़ात का।इसी प्याज़ के दाम ने दिल्ली की सत्ता पलट दी थी । वरना लोग सब्ज़ियों को घास ही नहीं डालते थे? तेल घी दाल तिलहन से लोग डरते थे कि मँहगाई न बढ़ जाये ।  डीजल पेट्रोल से लोग डरते थे कि  कहीं ग़रीबी में आँटा न गीला कर दे। नेताओं की नींद हराम हो गई इन सब्ज़ियों के मारे।चुनाव के पहले जनता की मिन्नत करो-चुनाव के बाद अब इन सब्ज़ियों की मिन्नत करो।सरकार चलाना आसान है क्या!

कभी प्याज़ के भाव आँख दिखाते हैं तो कभी ’टमाटर" । सरकार इनके भाव रोकने के लिए "युद्ध स्तर" की तैयारी करती है । इतनी तैयारी तो सरकार पाकिस्तान और चीन के घुसपैठ रोकने भी नहीं करती है । अभी प्याज को ठीक किया नहीं कि आलू ने आँख दिखाना शुरु कर दिया । अभी आलू को पकड़ा तो अब टमाटर । टमाटर 100/- के पार जाने के तैयारी कर रहा है । अब सरकार के "युद्ध स्तर" की तैयारी का मुंह टमाटर की ओर मुड़ गया । पाकिस्तान समझ गया कि अभी भारत की "युद्ध स्तर की तैयारी" टमाटर की तरफ़ है अत: पाकिस्तान सीमा पर 10-20 घुसपैठिये भेज दिया। चीन ने घुसपैठ कर दिया।

हमें तो इस "टमाटर" भाव वृद्धि में विदेशी शक्तियों का हाथ नज़र आ रहा है कि इस टमाटर की औक़ात  कि 5/- किलो  वाली हैसियत की सब्ज़ी 100/- किलो में बात करे? ’विदेशी शक्तियों का हाथ" -वाली थ्योरी भारत में ख़ूब चलती है ।जब चाहे तब चला दो।  विदेशी शक्तिया  सोचती हों कि भारत सरकार  के ’युद्ध स्तर ’ की तैयारी को इसी ’आलू-प्याज़-टमाटर ’ के भाव में उलझाये रहो कि इधर देखने की फ़ुरसत ही न मिले। फिर जनता ,अपनी सरकार को कोसना छोड़ -विदेशी शक्तियों को कोसना शुरू कर देती है। जनता भी खुश -सरकार भी ख़ुश। जनता ख़ुश इस लिये कि विदेशी शक्तियों को कोसने से ’देशभक्ति’ का मामला बन जाता है। सरकार ख़ुश इसलिए की क्या टोपी पहनाई है जनता को। और टमाटर खुश इस लिए कि उसका भी भाव बढ़ गया वरना तो लोग उसकी हैसियत को समझ ही नहीं रहे थे और ’टमाटर ’चटनी बना रहे थे अब तक।
इधर, जब से श्रीमती जी ने टमाटर लाने के नाम पर , मुझसे बार बार पैसे माँगना शुरु कर दिया तभी मेरे काम खड़े हो गए ,हो न हो ये महिला ज़रूर ’टमाटर’ के नाम से मुझ से छुपा कर कुछ अपने लिए बचत कर रही होगी। पिछले महीने ही कोई साड़ी देख कर आई थी और मैने ’गाँधी जी’ के धोती दर्शन पर व्याख्यान दे दिया था। अपने इस शक को मिटाने के लिये तो ’सी0ए0जी0 [CAG] ko  क्या लगाता । उनकी रिपोर्ट भी आती तो कौन सा एक्शन हो जाता ,सो मैने ’ श्रीमती के इस पैसे की माँग की खुद ही आडिट करने की सोची और घोषणा कर दी कि अब ’टमाटर’ मैं ही लाऊँगा।
एक झोला ले कर सब्ज़ी मंडी पहुँच गया
" भैया ! टमाटर क्या भाव लगाया"
"100/-किलो"
"मगर पहले तो ये 10/-किलो बिक रहा था"
  टमाटर वाले ने मुझे ऊपर से नीचे बड़े गौर से देखा फिर कुछ सकुचाते हुए पूछा
" स्साब ! आप सीधे ’सतयुग" से " कलियुग’ में पैदा हुए हैं क्या ?"
मैं इसका निहित अर्थ न समझ सका और अपनी मोल-भाव का हुनर प्रदर्शित करता रहा और कहा
" मगर दूरदर्शन वाले तो 80/- किलो बता रहे थे ।"
"तो दूर दर्शन पर ही ख़रीद लो स्साब"
"नहीं नहीं ,मैं तो कह रहा था कि......"
" देखो स्साब ! आप शरीफ़ आदमी दिखते हो ..बोहनी का टैम है ..आप को 90/-लगा देगा ..एक दाम ..बस
 मैं "टमाटर"  ख़रीद के क्या मरता कि उसके इस शरीफ़ वाले विशेषण पर मर गया । कम से कम दुनिया में एक आदमी ने मुझे "शरीफ़’ समझा।मैने भी अपनी ’शराफ़त’ की लिहाज़ रखते हुए बड़े शान से अपना झोला बढ़ाते हुए कहा
"तो ठीक है ..दे दो 100 ग्राम टमाटर इस झोले में "
टमाटर वाले ने एक बार मुझे ऊपर से नीचे बड़े गौर से देखा फिर कुछ सकुचाते हुए पूछा
"आप  हिन्दी के कवि हैं  स्साब ?
"हां ,हाँ ,बन्धु ! मगर तुम्हें कैसे पता ?"
" हिन्दी का ’कवि’ इस से ज़्यादा "टमाटर’ ख़रीद भी नहीं सकता"

 एक बार फिर मैं इसका निहित अर्थ न समझ सका।

 लौट के ’आनन्द’ घर को आये
अब श्रीमती जी फिर से सब्ज़ी लाना शुरु कर दी हैं। शायद साल के अन्त होते होते वो वाली साड़ी खरीद ही लें।
अस्तु

-आनन्द.पाठक
09413395592











कांग्रेस महागर्त में (दूसरी किश्त )

Manish Tewari, I&B Minister, claims the flawed report into the 2G scam did serious damage to India's economy

कांग्रेस महागर्त में (दूसरी किश्त )

पिछली किश्त में हमने खंदक में गिरी कांग्रेस के बारे में कुछ तथ्यगत सूचनाएं दी थीं। कांग्रेस के इस गर्त पतन के लिए स्वयं कांग्रेस का अहंकार उत्तरदाई है। पर कांग्रेस ने इससे कोई सबक नहीं लिया। अब भी वह ओछी राजनीति से बाज नहीं आ रही। अहंकार इतना कि 'घी खाया मेरे बाप ने ,सूँघो मेरा हाथ ',बार -बार १२५ साल पुरानी कांग्रेस की दुहाई दी जाती है। अपनी स्थापना १८८५ से लेकर १९३० तक कांग्रेस ने अंग्रेज़ों की खुशामद के अलावा कुछ नहीं किया। बेहतर हो कि वे अपने इतिहास की बार -बार दुहाई न दें। 

कोई क्रम तो ऐसा निर्धारित नहीं था पर पिछले लेख में हमने एक चतुर्वेदी नाम के कांग्रेसी नेता की बात कही थी। सीधे सीधे इन्हें नामित करना अच्छा तो नहीं है पर तथ्यगत सूचनाओं के साथ कुछ कहना भी गलत नहीं है। यूं तो कांग्रेसी अहंकार के कई नमूने और कई मीनारें हैं। न चाहते हुए भी इस बार एक ऐसे नमूने का ज़िक्र करना पड़  रहा है जो स्वयं को मीनार समझता है। देश का दुर्भाग्य और कांग्रेस की परिपाटी यह है कि जो विरोधियों को जितनी गाली और अपशब्द दे सकता है वह कांग्रेस में उतना ही मान पाता  है। 

स्वयं को अंग्रेजी और हिंदी में दक्ष मानने वाले अहंकार की इस कांग्रेसी मीनार का नाम है :मनीष तिवारी 

पहले इन्हें कांग्रेस प्रवक्ता का पद सौंपा गया। इन्होनें बढ़चढ़ के बातें करनी शुरू  कीं। जनरल वी. के.सिंह बनाम सरकार के मामले में इन्होने भारतीय शौर्य के प्रतीक जनरल वी. के. सिंह पर जो टिपण्णी की वह कांग्रेसी अहंकार और अभद्रता की पराकाष्ठा थी। 

एक पत्रकार ने मनीष तिवारी से पूछा कि जनरल वी.के.सिंह के मामले में आपका क्या कहना है ,तो उसका उत्तर था -"कि वो सरकारी कर्मचारी ",ये बात उन्होंने मंत्री रहते कही। भारतीय सेना अध्यक्ष पद को सुशोभित करने वाले और शानदार सैनिक जीवन को चरितार्थ करने वाले भारतीय सेना की शौर्य गाथा के प्रतीक जनरल वी.के. सिंह के बारे में कही गई इस अभद्र टिप्पणी को लगता है बाद में प्रसारित करने से रोक दिया गया। पर एक बार तो वह कांग्रेसी अहंकार को अभिव्यक्त कर ही चुके थे। कोई और देश होता तो ऐसे मंत्री को क़ानून के हवाले कर दिया जाता पर ये कांग्रेस थी जिसने इस मामले को रफा दफा होने  दिया। हो सकता है कि रिकार्ड को भी नष्ट कर दिया गया हो। पर वर्तमान भारत सरकार को इस और ध्यान देना चाहिए। वह व्यक्ति का अपमान नहीं था सम्पूर्ण भारतीय शौर्य परम्परा का अपमान  था। 

वह तो जनरल वी. के.सिंह की उदारता थी कि उन्होंने इसको तूल नहीं दिया पर न्याय की मांग तो यह है कि इस मामले को गंभीरता से लिया जाए और अहंकार की मीनार पर बैठे उस आदमी को जमीन पर लाया जाए। 


General Singh retired in 2012 after a row with the government over his age [AP]

बुधवार, 23 जुलाई 2014

कांग्रेस महागर्त में ( (दूसरी किश्त )

Manish Tewari, I&B Minister, claims the flawed report into the 2G scam did serious damage to India's economy

कांग्रेस महागर्त में (दूसरी किश्त )

पिछली किश्त में हमने खंदक में गिरी कांग्रेस के बारे में कुछ तथ्यगत सूचनाएं दी थीं। कांग्रेस के इस गर्त पतन के लिए स्वयं कांग्रेस का अहंकार उत्तरदाई है। पर कांग्रेस ने इससे कोई सबक नहीं लिया। अब भी वह ओछी राजनीति से बाज नहीं आ रही। अहंकार इतना कि 'घी खाया मेरे बाप ने ,सूँघो मेरा हाथ ',बार -बार १२५ साल पुरानी कांग्रेस की दुहाई दी जाती है। अपनी स्थापना १८८५ से लेकर १९३० तक कांग्रेस ने अंग्रेज़ों की खुशामद के अलावा कुछ नहीं किया। बेहतर हो कि वे अपने इतिहास की बार -बार दुहाई न दें। 

कोई क्रम तो ऐसा निर्धारित नहीं था पर पिछले लेख में हमने एक चतुर्वेदी नाम के कांग्रेसी नेता की बात कही थी। सीधे सीधे इन्हें नामित करना अच्छा तो नहीं है पर तथ्यगत सूचनाओं के साथ कुछ कहना भी गलत नहीं है। यूं तो कांग्रेसी अहंकार के कई नमूने और कई मीनारें हैं। न चाहते हुए भी इस बार एक ऐसे नमूने का ज़िक्र करना पड़  रहा है जो स्वयं को मीनार समझता है। देश का दुर्भाग्य और कांग्रेस की परिपाटी यह है कि जो विरोधियों को जितनी गाली और अपशब्द दे सकता है वह कांग्रेस में उतना ही मान पाता  है। 

स्वयं को अंग्रेजी और हिंदी में दक्ष मानने वाले अहंकार की इस कांग्रेसी मीनार का नाम है :मनीष तिवारी 

पहले इन्हें कांग्रेस प्रवक्ता का पद सौंपा गया। इन्होनें बढ़चढ़ के बातें करनी शुरू  कीं। जनरल वी. के.सिंह बनाम सरकार के मामले में इन्होने भारतीय शौर्य के प्रतीक जनरल वी. के. सिंह पर जो टिपण्णी की वह कांग्रेसी अहंकार और अभद्रता की पराकाष्ठा थी। 

एक पत्रकार ने मनीष तिवारी से पूछा कि जनरल वी.के.सिंह के मामले में आपका क्या कहना है ,तो उसका उत्तर था -"कि वो सरकारी कर्मचारी ",ये बात उन्होंने मंत्री रहते कही। भारतीय सेना अध्यक्ष पद को सुशोभित करने वाले और शानदार सैनिक जीवन को चरितार्थ करने वाले भारतीय सेना की शौर्य गाथा के प्रतीक जनरल वी.के. सिंह के बारे में कही गई इस अभद्र टिप्पणी को लगता है बाद में प्रसारित करने से रोक दिया गया। पर एक बार तो वह कांग्रेसी अहंकार को अभिव्यक्त कर ही चुके थे। कोई और देश होता तो ऐसे मंत्री को क़ानून के हवाले कर दिया जाता पर ये कांग्रेस थी जिसने इस मामले को रफा दफा होने  दिया। हो सकता है कि रिकार्ड को भी नष्ट कर दिया गया हो। पर वर्तमान भारत सरकार को इस और ध्यान देना चाहिए। वह व्यक्ति का अपमान नहीं था सम्पूर्ण भारतीय शौर्य परम्परा का अपमान  था। 

वह तो जनरल वी. के.सिंह की उदारता थी कि उन्होंने इसको तूल नहीं दिया पर न्याय की मांग तो यह है कि इस मामले को गंभीरता से लिया जाए और अहंकार की मीनार पर बैठे उस आदमी को जमीन पर लाया जाए। 

General Singh retired in 2012 after a row with the government over his age [AP]

जनरेशन गैप



(कुछ दर्द जो सिर्फ महसूस होते है
कह नहीं सकते ऐसा ही दर्द है ये
जो हर पिता की ज़िन्दगी में आता है --)

आज़ादी दी तुम्हे ऐसी
जिसके लिए तरसा था मैं.
व्यवहार किया तुमसे
दोस्त की तरह
खोकर अपनी गरिमा.
खड़ा रहा हर पल तुम्हारे लिए
तुम्हारी हर तकलीफ
हर दर्द,
हर हताशा ,
हर तड़फ,
हर नाकामी
झेलता रहा अपने काँधे पर.

शायद शामिल न था तुम्हारी मुस्कान में
पर तुम्हारे आँसुओं में शामिल थे मेरे आँसूं भी
भरपूर कोशिश की मैंने
तुम्हारी आवाज़ बनने की ,
तुम्हारी सोच समझने की
सिर्फ इसलिए कि
ना आये कोई जनरेशन गैप
एक सोच का फर्क
रिश्ते जो बदल देता है ....

पिता की ज़िन्दगी में बेटा
अहम हिस्सा है उसकी ज़िन्दगी का
लेकिन बेटे की ज़िन्दगी में
ज्यादा महत्वपूर्ण होती है
उसकी खुद की ज़िन्दगी
उसकी खुशियाँ
उसका प्यार,
उसके दोस्त,
उसका कैरियर,
उसका….,
उसका....
और पिता कहीं पीछे छूट जाता है
शायद यही तकाज़ा है
उम्र का,
सोच का,
प्रकृति का .

मैं सोचता हूँ और कहीं अंदर तक
खिंच जाती है दर्द की एक लकीर
दिल से दिमाग तक...
कि कल ये दर्द
झेलना है तुमको भी
जनरेशन गैप का
तब शायद बेहतर
समझ पाओ मुझे तुम
मेरे गुस्से को,
मेरे लगाव को,
और मेरे उस स्पर्श को
जब मैं सीने से लगाता हूँ तुम्हे !!!

सुबोध- जून २७, २०१४


एक गीत : मैं नहीं गाता हूँ...



मन के अन्दर एक अगन है ,रह रह गाती है
मैं नहीं गाता हूँ.......

बदली आ आ कर भी घर पर ,नहीं बरसती है
प्यासी धरती प्यास अधर पर लिए तरसती है
जा कर बरसी और किसी घर ,यहाँ नहीं बरसी
और ज़िन्दगी आजीवन  बस ,राहें   तकती  है

आशा की जो शेष किरन है ,राह दिखाती है
मन के अन्दर एक अगन है ,रह रह  गाती है।
 मैं नहीं गाता हूँ........

नदी किनारे बैठ कोई जब  तनहा गाता है
कल कल करती लहरों से वो क्या बतियाता है ?
लहरें काट रहीं है तट को,तट भी लहरों को
इसी समन्वय क्रम में जीवन चलता जाता है

पीड़ा है जो आँसू बन कर ढलती जाती है
मन के अन्दर एक अगन है ,रह रह गाती है।
मैं नहीं गाता हूँ.......

टेर रहा है समय बाँसुरी ,अपना गाता है
गोधूली बेला में मुझको कौन बुलाता  है ?
जाने की तैयारी में हूँ ,क्या क्या छूट गया
जो भी है बस एक भरम है ,जग भरमाता है

धुँधली धुँधली याद किसी की बस रह जाती है
मन के अन्दर एक अगन है ,रह रह  गाती है
मैं नहीं गाता हूँ........

-आनन्द.पाठक-
09413395592

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

Ocean of Bliss: फैलते कंक्रीट के जंगल

Ocean of Bliss: फैलते कंक्रीट के जंगल: ढलती शाम में  जब सूर्य देवता धीरे धीरे पश्चिम की ओर प्रस्थान किया करते  थे  तब नीतू का मन अपने फ्लैट में घबराने लगता । वह अपने बेटे के साथ...

Ocean of Bliss: फैलते कंक्रीट के जंगल

Ocean of Bliss: फैलते कंक्रीट के जंगल: ढलती शाम में  जब सूर्य देवता धीरे धीरे पश्चिम की ओर प्रस्थान किया करते  थे  तब नीतू का मन अपने फ्लैट में घबराने लगता । वह अपने बेटे के साथ...

मेरे स्कूल के दिन



मेरे बचपन के दिन
मेरे स्कूल के दिन
मैथ्स की कॉपी से फाड़कर पन्ने
हवाई जहाज़ बनाना
क्लासरूम में उड़ाना
दोस्तों का खिलखिलाना
एक -दूसरे के टिफ़िन पर
हाथ आजमाना
मोर-पंखी किताबों में छुपाना
तितली पकड़ने को
वो भागना -दौड़ना
मास्टरजी का धुंद पड़ा चश्मा
पुरानी कुर्सी का डगमगाना
बारिश में खिड़की से
क्लास का भीग जाना
और वो छुट्टी होने पर
दौड़ते- भागते
एक दूसरे को टंगड़ी मारना
वो रूठना
मान जाना
वो दोस्ती लम्बी-लम्बी
वो दुश्मनी छोटी-छोटी
वो सच
वो झूठ
वो खेल
वो नाटक
वो किस्से
वो कहानी
परियों वाली
राक्षस वाली
बचपन के सपने
जिसमे सब कुछ मुट्ठी में
न गम
न फ़िक्र
याद बहुत आते है
वो दिन ...
मेरे बचपन के दिन
मेरे स्कूल के दिन

सुबोध- जुलाई २, २०१४

एक सूचना : मैं नहीं गाता हूँ ....[गीत ग़ज़ल संग्रह]




मित्रो !
आप सभी को सूचित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि आप लोगों के आशीर्वाद व प्रेरणा से मेरी चौथी किताब "मै नहीं गाता हूँ....." [ गीत गज़ल संग्रह] सद्द: प्रकाशित हुई है
3-किताबें जो प्रकाशित हो चुकी हैं

1  -शरणम श्रीमती जी ----[व्यंग्य संग्रह}

2 - अभी सम्भावना है ...[गीत ग़ज़ल संग्रह]

3 - सुदामा की खाट .....[व्यंग्य संग्रह] 

मुझे इस बात का गर्व है कि इस मंच के सभी मित्र  इन तमाम गीतों और ग़ज़लों के आदि-श्रोता रहे हैं और सबसे पहले आप लोगो ने ही इसे पढ़ा ,सुना और आशीर्वाद दिया है


मिलने और प्रकाशक का पता  ---[मूल्य 240/-]

   अयन प्रकाशन
1/20 महरौली ,नई दिल्ली- 110 030

दूरभाष 2664 5812/ 9818988613
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पुस्तक के शीर्षक के बारे में कुछ ज़्यादा तो नहीं कह सकता ,बस इतना समझ लें

मन के अन्दर एक अगन है ,वो ही गाती है
मैं नहीं गाता हूँ......

इस पुस्तक की भूमिका आदरणीय गीतकार और मित्र श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने लिखी है 
आप लोगों की सुविधा के लिए यहाँ लगा रहा हूँ ...
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कुछ बातें


कभी हिमान्त के बाद की पहली गुनगुनाती हुई सुबह में किसी उद्यान में चहलकदमी करते हुए पहली पहली किरणों को ओस की बून्दों से प्रतिबिम्बित होकर कलियों की गंध में डूबे इन्द्रधनुष देखा है आपने ? कभी पांव फ़ैलाये हुये बैठे हवा के झोंके से तितलियों के परों की सरगोशी सुनी है आपने ?तट पर किसी पेड़ की झुकी हुई पत्तियों की परछाईं से महरों की आंखमिचौली का आनन्द लिया है आपने ??

संभव है आपकी व्यस्त ज़िन्दगी में आपको समय न मिल सका हो इन सब बातों के सुनने और अनुभूत कर पाने के लिये लेकिन यह सभी बातें सहज रूप से आपको मिल जाती हैं आनन्द पाठक के गीतों में । और सबसे अहम बात तो ये है कि सब अनुभूतियाँ उनकी रचनाओं में ऐसे उतरती हैं मानो उनके अधरों से फ़िसलते हुये सुरों के सांचे में भावानायें पिघल कर शब्द बन गई हों और आप ही आप आकर बैठ गई हों.

आनन्द पाठक की प्रस्तुत पुस्तक  -"मैं नहीं गाता हूँ...." में  संकलित जो रचनायें हैं वे न केवल उनकी सूक्ष्मदर्शिता की परिचायक हैं अपितु आम ज़िन्दगी के निरन्तर उठते प्रश्नों का मूल्यांकन करने हुये समाधान की कोशिश करती हैं. वे अपने आप को समय के रचनाकार से विलग नहीं करते:-

शब्द मेरे भी चन्दन हैं रोली बने
भाव पूजा की थाली लिये आ गया
तुमको स्वीकार हो ना अलग बात है
दिल में आया ,जो भाया, वही गा गया

और बिना किसी गुट में सम्मिलित हुये सबसे अलग  अपनी आप कहने की इस प्रक्रिया में आनन्द जी पूरी तरह सफ़ल रहे हैं ।रोज की ज़िन्दगी के ऊहापोह और असमंजस की स्थितियों को वो सहज वार्तालाप में बखान करते हैं—

आजीवन मन में द्वन्द रहा मैं सोच रहा किस राह चलूँ
हर मठाधीश कहता रहता मैं उसके मठ के द्वार चलूँ
मुल्ला जी दावत देते हं, पंडित जी उधर बुलाते हैं
मन कहता रहता है मेरा, मैं प्रेम नगर की राह चलूँ

और उनके मन का कवि सहसा ही चल पड़ता है सारी राहों को छोड़ ,एक शाश्वत प्रीति के पथ पर और शब्द बुनने लगते है वह संगीत जो केवल शिराओं में गूँजता है. मन सपनों से प्रश्न करने लगता है और उन्ही में उत्तर ढूँढ़ते हुये पूछता है

तुमने ज्योति जलाई होगी , यार मेरी भी आई होगी ?

और प्रश्न बुनते हुये यह अपने आप को सब से अलग मानते हुये भी सबसे अलग होने को स्वीकृति नहीं देता
ये कहानी नई तो नहीं है मगर
सबको अपनी कहानी नई सी लगे
बस खुदा से यही हूँ दुआ मांगता
प्रीति अपनी पुरानी कभी न लगे

आनन्द जी के गीत जहाँ  अपना विवेचन और विश्लेषण ख़ुद करते हैं वहीं एक सन्देश भी परोक्ष रूप से देते जाते हैं-

मन के अन्दर ज्योति छुपी है क्यों न जगाता उसको बन्दे

और

जितना सीधी सोची थी पर उतनी सीधी नहीं डगरिया
आजीवन भरने की कोशिश फिर भी रीती रही गगरिया

आनन्द जी के गीतों में जहाँ अपने आपको  अपने समाज के आईने में देखने की कोशिश है वहीं अनुभूति की गहराईयों का अथाहपन भी. उनकी इस अनवरत गीत यात्रा में इस पड़ाव पर वे सहज होकर कहते हैं

जीवन की अधलिखी किताबों के पन्नों पर
किसने लिखे हैं पीड़ा के ये सर्ग न पूछो.


आनन्द जी की विशेषता यही है कि उनकी कलम किसी एक विधा में बँध कर नहीं रहती. जब ग़ज़ल कहते हैं तो यही आनन्द फिर ’आनन’ [तख़्ल्लुस] हो जाता है। सुबह का सूर्य चढ़ती हुई धूप के साथ जहाँ उनके मन के कवि को बाहर लेकर आता है वहीं ढलती हुई शाम का सुनहरा सुरमईपन उन्के शायर को नींद से उठा देता है और वे कहते हैं

हौसले   परवाज़  के लेकर  परिन्दे   आ  गए
उड़ने से पहले ही लेकिन पर कतर  जातें हैं क्यों?

लेकिन व्यवस्था की इस शिकायत के वावज़ूद शायर हार नहीं मानता और कहता है

आँधियों से न कोई गिला कीजिए
लौ दिए की बढ़ाते रहा कीजिए

सीधे साधे शब्दों में हौसला बढ़ाने वाली बात अपने निश्चय पर अडिग रहने का सन्देश और पथ की दुश्वारियों ने निरन्तर जूझने रहने का संकल्प देती हुई यह पंक्तियाँ आनन्द पाठक  ’आनन’ की सुलझी हुई सोच का प्रमाण देती हैं हर स्थिति में गंभीर बात को व्यंग्य के माध्यम से सटीक कहने की उनकी विशिष्ट शैली अपने आप में अद्वितीय है. स्वतंत्रता के ६७ वर्षों के बाद के भारतीय परिवेश की सामाजिक और राजनीति परिस्थितियों से पीड़ित आम आदमी के पीड़ा को सरल शब्दों में कहते हैं

जो ख्वाब हमने देखा वो ख्वाब यह नहीं है
गो धूप तो हुई है पर ताब  वो नहीं है

और अपनी शिकायतों के एवज में मिलते हुये दिलासे और अपनी  आस्थाओं  पर अडिग रहते हुए भरोसे की बातें दुहराई जाने पर उनका शायर बरबस कह उठता है

तुमको खुदा कहा है किसने? पता नहीं है
दिल ने भले कहा हो हमने कहा नहीं है.

आनन्दजी की कलम से निकले हुये गीत, गज़ल लेख और व्यंग्य अपनी आप ही एक कसौटी बन जाते हैं जिस पर समकालीन रचनाकारों को अपनी रचनाओं की परख करनी होती है. 

मेरी आनन्दजी से यही अपेक्षा है कि अपनी कलम से निरन्तर प्रवाहित होने वाली रचनाओं को निरन्तर साझा करते रहें और बेबाक़ कहते रहें

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

शुभकामनायें
राकेश खंडेलवाल
१४२०५ पंच स्ट्रीेट
सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलेंड ( यू.एस.ए )
+१-३०१-९२९-०५०८
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पुस्तक प्राप्ति का पता
मूल्य 150/-
अयन प्रकाशन
1/20,महरौली .नई दिल्ली 110 030
दूरभाष   011-2664 5812
मोबाईल  98189 88613

-आनन्द पाठक-
09413395592

सोमवार, 21 जुलाई 2014

एक नवगीत  
पिस रही चाहत एैसे 
रोलर से गिट्टी जैसे 
पास टका नहीं किञ्चित 
सभी दगा देते परिचित 
आशा जिधर लगता हूँ 
उधर निराशा पाता हूँ
अपना हाल कहूँ कैसे  
उड़ते से तिनके जैसे 
पिस रही चाहत एैसे 
रोलर से गिट्टी जैसे 
पड़ा अकेला रोता हूँ 
अपने आँशू पीता हूँ 
कैसा जीवन का नाता 
कुछ भी मन को न भाता 
गरीबी झेल रहा एैसे 
जल के बिन मछली जैसे 
पिस रही चाहत एैसे 
रोलर से गिट्टी जैसे 
परिश्रम दिनभर करता हूँ 
रोटी खातिर मरता हूँ 
परिकर की किस्मत फूटी 
अपनी छानी भी टूटी 
जीवन अब बीते कैसे 
लगता है दोजख जैसे 
पिस रही चाहत एैसे 
रोलर से गिट्टी जैसे 
बिलख रहे बच्चे सारे 
फूटी किस्मत के  मारे
नंगे बदन दौड़ते हैं 
हमसे खूब झगड़ते हैं 
देदो अब मुझको पैसे 
भूखे है बरसों जैसे 
पिस रही चाहत एैसे 
रोलर से गिट्टी जैसे 
दुख में काट रहा जीवन 
फिर भी आशा बादी मन 
कभी खुशी भी आयेगी 
हमको खूब हंसाएगी 
होंगे आनन्दित कैसे 
सागर की लहरों जैसे 
पिस रही चाहत एैसे 
रोलर से गिट्टी जैसे  
http://shakuntlamahakavya.blogspot.com/2014/07/blog-post_21.html