शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

मैं ही बूढ़ा हूॅ


 

 

रात को जब बिल्ली बर्तन गिराती है

तब माॅ भय से जाग जाती है

कि बिल्ली -

पी जाएगी सारा दूध बच्चे की

तब कैसे मिटेगी भूख बच्चे की

हांलाकि बच्चा हाता है मेरा

फिर भी माॅ का मन चिंता में लेता है फेरा

माॅ बुदबुदाती है

उठकर टार्च जलाती है

और बिल्ली को कमरे से भगाती है

इस बीच खलल होती है उंघाई में

मैं सहसा कह उठता हूं

माॅ!

क्या माॅ?

सोने भी दो

मत करो खटर पटर इतनी रात को

उठकर फला फला काम करना है प्रभात को।







थोड़ी देर बाद

जब होती है आधी रात

अचानक रोने लगता है बच्चा

पत्नी मनाती है

छांती से लगा दूध पीलाती है

तब भी नहीं होता चुप

तब माॅ तोड़कर आती है नींद कच्चा

लेकर अपने हाथ में बच्चा

पल भर में ही कर देती है अच्छा

फिर वह जब जाता है सो

माॅ देती है पत्नी को खूब हिदायतें

पर मैं नहीं सुगबुगाता बिस्तर से

मगर सोए सोए ही कह देता हूॅ

माॅ बोलो मत ,

सोने दो।





जब लगती है भूख

हाॅ भूख !

तब पत्नी नहीं

अक्सर माॅ लाती है खाना

जग में पानी व गिलास

और हम अपाहिज की तरह

एक जगह बैठकर तोड़ते है

गरम व नरम रोटियां

व पत्नी खेल रही होती है

पड़ोस के बच्चियों के साथ गोटियां

और माॅ पूछ पूछ कर खिलाती है

जैसे की वो हैघर की दासी।



पिता की बात ही छोड़ो

पूरा दिन नहीं होता उनका दर्शन

क्यांेकि वे करते रहते हैं खेतों में

निज शरीर का घर्षण

वो पीसतें हैं स्वयं को

जैसे चक्की में गेहूं

जैसे कोल्हू में गन्ना

और हम बनकर

घर में बैठे होते हैं नबाब

खॅाटी लखनउ वाला

लिए मन में उंची उंची तमन्ना।



माॅ नहीं कहती

माॅ अब कभी नहीं कहती मुझसे

स्वयं ही लेकर जाती है

खेत में पिता को पानी

मैं देखता हूं केवल

करता रहता हूं मनमानी

जैसे पिता बूढ़े नहीं

माॅ बूढ़ी नहीं

मैं ही बूढ़ा हूं

अपाहिज

जलपा

असहाय

व निरुपाय सा ।












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