शनिवार, 28 मई 2016

एक ग़ज़ल : अगर सोच में तेरी पाकीजगी है...

अगर सोच में तेरी पाकीज़गी है
इबादत सी तेरी  मुहब्बत लगी है

मेरी बुतपरस्ती का जो नाम दे दो
मैं क़ाफ़िर नहीं ,वो मेरी बन्दगी है

कई बार गुज़रा हूँ तेरी गली से 
हर इक बार बढ़ती गई तिश्नगी है

अभी नीमगुफ़्ता है रूदाद मेरी
अभी से मुझे नींद आने लगी है

उतर आओ दिल में तो रोशन हो दुनिया
तुम्हारी बिना पर ही ये ज़िन्दगी है

ये कुनबा,ये फ़िर्क़ा हमीं ने बनाया
कहीं रोशनी तो कहीं तीरगी  है

मैं राह-ए-तलब का मुसाफ़िर हूँ ’आनन’
मेरी इन्तिहा मेरी दीवानगी  है

-आनन्द पाठक-
09413395592

शब्दार्थ
पाकीज़गी  = पवित्रता
बुत परस्ती        = मूर्ति पूजा ,सौन्दर्य की उपासना
तिशनगी = प्यास
नीम गुफ़्ता रूदाद-=आधी अधूरी कहानी/किस्से ,अधूरे काम
तुम्हारी बिना पर = तुम्हारी ही बुनियाद पर
तीरगी =अँधेरा
राह-ए-तलब का मुसाफ़िर= प्रेम मार्ग का पथिक

शुक्रवार, 27 मई 2016

खम्बा बनाम आदमी 

मुझ जैसे बिजली के खम्बे तो आजकल बहुत कम दिखते हैं. इस महानगर में तो मुझ जैसा खम्बा शायद ही आपको दिखे. आदमी ने अब काफी तरक्की कर ली है. अब आपको दिखेंगे सीमेंट या लोहे के खम्बे. पर मेरी बात और है मुझे विधाता ने एक वृक्ष बनाया था. आदमी ने मुझे बिजली का खम्बा बना दिया. है न कितनी अजीब नियति?
लेकिन एक खम्भा बना कर भी आदमी मेरे अस्तित्व को पूरी तरह मिटा नहीं पाया है. कुछ है जो अब तक मेरे भीतर बचा हुआ है, कहीं बहुत भीतर. वैसे ही जैसे किसी झंझावात में सब कुछ ढह जाये पर कहीं बचा रह जाये किसी नन्ही चिड़िया का नन्हा-सा घोंसला. इतना ही नहीं, कभी-कभी लगता है अब तो मुझ में महसूस करने की शक्ति भी उपज आई है. शायद पहले से ही थी, पर इसका अहसास मुझे अभी ही हुआ है. अब हर बात को, जो चाहे बाहर घटे या भीतर, मैं महसूस कर सकता हूँ, ठीक वैसे ही जैसे कोई आदमी (पशु?) करता है.
जब मैं उस रूप में था जो रूप मुझे सृष्टि ने दिया था तब सब कितना अच्छा लगता था, धूप, हरियाली, पक्षियों की चहचाहट, झरने की कलकल, वर्षा की रिमझिम, गरजते बादल, आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैला इन्द्रधनुष, आसमान के किसी कोने से झांकता सूरज; सब कुछ कितना मधुर था. तब अनायास ही मन कोई गीत छेड़ दिया करता था. उन दिनों कभी कोई थका हारा पक्षी आता, मेरी किसी शाख़ पर पत्तियों की छाया में बैठ सुस्ता लेता और फिर फुर्र से उड़ जाता तो मुझे लगता कि मेरा होना कितना सार्थक है.
अब न कोई शाखा है न कोई छाया. बिजली की तारें हैं जिन में फंस कर कभी-कभार कोई प्राणी अपनी जान गवां बैठता है. मृत्यु की घड़ी में निकली उन जीवों की दारुण चीख़ें मेरे भीतर कहीं कैद हो गई है, उन चीख़ों को सुनसुन कर अब मुझे लगने लगा है कि आदमी की भांति मुझे भी दुःख का अहसास नहीं रहा. लगता है अब मैं भी आदमी जैसा हो गया हूँ. उस रोज़ की बात ही बताऊँ. उस दिन सुबह का समय था. मैं कुछ देर पहले ही नींद से जगा था.
शुरू के दिनों में मैं बहुत जल्दी जाग जाया करता था. पर अब शोर-शराबे के बावजूद मैं देर तक सो लेता हूँ ठीक वैसे ही जैसे नीचे फुटपाथ पर रहने वाले  आदमी, औरतें और बच्चे सो लेते हैं.
सुबह की हल्की धूप में मैं सड़क की चहल-पहल देख रहा था कि एक बस मेरे निकट आकर रुकी. बस से चार लड़के बाहर आये. उनमें एक लड़का दुबला-पतला सा था.  उस दुबले-पतले लड़के को एक अन्य लड़के ने दबोच रखा था. उनके उतरते ही बस चल पड़ी. बस के जाते ही तीनों लड़के दुबले-पतले लड़के को पीटने लगे. वह लड़का कुछ मिमिया रहा था और अपने को बचाने का एक निष्फल प्रयास कर रहा था.
दो लोग उधर से गुज़र रहे थे. दोनों किसी दफ्तर की बाबू जैसे दिखते थे. उनके पास आने पर सुना, एक कह रहा था, “आजकल के लड़कों का खून ज़्यादा ही गर्म है. बहुत जल्दी लड़ने-मरने पर उतर आते हैं.”
दूसरा बोला, “लगता है आज फिर अपनी बस छूट गई है, बस स्टॉप पर तो कोई दिखाई नहीं दे रहा?”
दोनों तेज़ी से स्टॉप की ओर चल दिये.
उनके जाते ही दो लोग और आते हुए दिखाई दिए. वे क्या करते हैं यह जानने को मैं उत्सुक था.
एक कह रहा था, “यहाँ इस देश में सरकार जितनी निकम्मी है और पुलिस जितनी भ्रष्ट है शायद ही किसी और देश की सरकार उतनी निकम्मी और पुलिस उतनी भ्रष्ट होगी. अब भला किसी और देश में कोई इस तरह राह चलते को कोई पीट सकता.....”
दोनों इतनी दूर निकल गये थे कि सुन न पाया कि उनकी बात कहाँ खत्म हुई.
एक-दो करके कुछ और लोग वहां से गुज़रे परन्तु किसी ने न तो कुछ कहा और न ही कुछ किया. मुझे लगा कि उन सब को एक दुबले-पतले लड़के की पिटाई करते हुए तीन लड़के दिखाई न दिये होंगे. अब इस महानगर में हर एक को इतनी जल्दी रहती है कि सब कुछ देख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं. हर एक की अपनी ही बीसियों मुसीबतें भी तो हैं.
दो लोग और आये. थोड़ा ठिठके और रुक गये. मैं ध्यान से उन्हें देखने लगा. दोनों गहरी सोच में थे.
एक बोला, “जब तक हमारा सामाजिक ढांचा बदल न जायेगा तब तक कुछ होने वाला नहीं है. अवर सोशल सिस्टम हैस आउट लिव्ड इट्स यूटिलिटी. एक नये समाज का उत्थान होना चाहिये, एक ऐसा समाज जिसमें आदमी को आदमी की चाह हो.”
दूसरा बोला, “ आज के समाज में हम सिर्फ दूसरों को यूज़ करना जानते हैं, यूज़ एंड थ्रो. हमारे लिए दूसरे मनुष्य सिर्फ उपयोग की वस्तु हैं, नहीं भोग की वस्तु हैं यह कहना उचित होगा. वुई जस्ट एक्सपोलाइट अदर्स. हमें न किसी दूसरे से प्रेम है न किसी दुसरे की ज़रूरत.”
एक बोल, “हम सिर्फ अपने से प्रेम करते हैं. हमें सिर्फ अपनी ज़रूरत है. अन्य सब हमारी सभी इच्छाएं पूरी करने के साधन मात्र है.”
दूसरा बोला, “न जाने कब हम इस अभिशाप से मुक्त होंगे, या शायद मुक्ति हमारे भाग्य में है ही नहीं?”
धीरे-धीरे वह दोनों आगे बढ़ गये. मुझे विश्वास न हो रहा था कि इस संसार में ऐसे विचार करने वाले लोग भी हैं. उस दिन पहली बार आदमी के प्रति मेरे मन में आदर भाव जागा. पहली बार मैंने विधाता को कोसा कि उसने मुझे इतने सूक्ष्म विचारों से वंचित क्यों रखा. मैंने मन ही मन उन मनुष्यों को प्रणाम किया जिन्होंने मुझे मेरे अभाव का आभास कराया था.
अब तक दुबला-पतला लड़का इतनी बुरी तरह पिट चुका था कि वह अपना होश खो बैठा था, उसे उसी हालत में छोड़ कर तीनों लड़के एक चलती बस में चढ़ गये.
घायल लड़के को देख मुझे लगा कि अगर जल्दी ही उसकी सहायता न की गई तो वह मर भी सकता है. कुछ लोग इकट्ठे हो गये थे. पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. सब उसे देख रहे थे.
मेरा मन इस सबसे उकता चुका था. क्या हुआ कि  कभी मैं एक वृक्ष था और मेरी डाल पर बैठ कर पक्षी सुस्ताया करते थे और सुंदर गीत गाया करते थे. आज तो मैं बस एक खम्बा भर हूँ.
घायल लड़का दम तोड़ चुका था. उसके आसपास खड़ी भीड़ कहीं लुप्त हो गयी थी. मैं चिंतित हूँ कि क्या मैं सचमुच मनुष्य जैसा हो गया हूँ.
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© आइ बी अरोड़ा 

रविवार, 22 मई 2016

प्रतीक्षालय (एक कहानी)
एक मित्र की अंतिम संस्कार में भाग लेने हेतु मुझे उसके गाँव, अमीरपुर जाना पडा. हम दोनों एक साथ सेना में थे. सन इकहत्तर की लड़ाई में हम दोनों ने ही भाग लिया था. उस युद्ध में वह बुरी तरह घायल हो गया था. उसकी दोनों टांगें काटनी पडीं थीं. सेना से उसे सेवानिवृत्त कर दिया गया.
अमीरपुर गाँव में उसकी पुश्तैनी ज़मीन थी. वह अपने गाँव चला आया. पर साधारण खेती करने के बजाय उसने बीज पैदा करने का काम शुरू किया. कई दिक्कतें आयीं, पर वह हार मानने वाला न था.
सुचना मिली कि उसका अचानक निधन हो गया था. किसी को भी विश्वास न हुआ. सेना के कई साथी अंतिम संस्कार में भाग लेने अमीरपुर आये.
लौटने के लिए मुझे रात ग्यारह बजे राजपुर से गाड़ी लेनी थी. मैं दस बजे ही स्टेशन पहुँच गया था. वहां पहुँचने के बाद पता चला कि ट्रेन तीन घंटे की देरी से चल रही थी. मैंने अपने को कोसा, चलने से पहले ही थोड़ी पूछताछ कर लेनी चाहिये थी. अब तीन घंटे स्टेशन पर बिताने पड़ेंगे. इस बात का भी भरोसा न था कि ट्रेन के आने में कहीं और विलम्ब न हो जाए.
अपने को कोसता हुआ मैं स्टेशन के प्रतीक्षालय के भीतर आ गया. देख कर आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से स्टेशन का प्रतीक्षालय बहुत साफ़-सुथरा था.
उस समय एक ही व्यक्ति थे जो किसी ट्रेन की प्रतीक्षा में वहां बैठे थे. देखने में वह बहुत बूढ़े लग रहे थे. वह एक कुर्सी पर चुपचाप, अपना सर झुकाए, बैठे थे. बिना कोई हलचल किये, वह ऐसे बैठे थे  की जैसे गहरी नींद में हों.   
मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया. उन्होंने मेरी ओर देखा भी नहीं, शायद उन्हें पता ही न चला था कि कोई भीतर आया है. मैंने उनकी नींद में विघ्न डालना उचित न समझा और एक किताब निकाल कर पढ़ने लगा.
कोई आधे-पौन घंटे के उपरान्त उन्होंने धीरे से अपना सर उठाया और मेरी ओर देखा. उनका चेहरा उदास और उनकी आँखें निष्प्राण लग रहीं थीं. वह एकटक मुझे देखते रहे. मैं हौले से मुस्कुराया परन्तु उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की.
‘आपको देख कर लगता है कि आप सेना के एक अधिकारी हैं?’ उनकी वाणी भी निष्प्राण थी.
‘मैं सेना का अधिकारी था, पाँच वर्ष हो गए मुझे सेना छोड़े हुए.’
‘मेरा बेटा भी सेना में है, एक सिपाही है. बहुत ही जांबाज़ आदमी है.’ वह बिना किसी हाव-भाव के बात कर रहे थे.
किस रेजिमेंट में है?’
‘पांचवीं कुमाऊँ रेजिमेंट में, उसका नाम वीरसिंह है. इकहत्तर के युद्ध में वह युद्धबंदी बन गया......’
मेरे रोंगटे खड़े हो गए. वीरसिंह तो मेरी ही यूनिट में था, ‘वह तो मेरे ही यूनिट का सिपाही था. हम एक साथ युद्ध लड़े थे......पर वह लापता हो गया था.’  
‘वह तभी से ही युद्धबंदी है.’
‘आप को कैसे पता चला?’ मैं कह न पाया कि सेना के पास ऐसी कोई पक्की जानकारी न थी.
‘मेरे बचपन का एक मित्र पकिस्तान चला गया था. उसका बेटा वहां पुलिस में है. उसने किसी की मार्फत सूचना भिजवाई थी.’
‘यह सूचना आपने सरकार या सेना.....’
‘किसी ने कुछ नहीं किया. पर वीर रिहा हो रहा है. आज ही घर लौट रहा है.’ इतना कह वह अचानक बाहर चले गए.
मैं इस घटनाक्रम से इतना हतप्रभ हो गया था कि लम्बे समय तक चुपचाप वहीं बैठा रहा. इकहत्तर के युद्ध के कई चित्र आँखों के सामने तैरने लगे.
लगभग बारह बज रहे थे. मैं प्रतीक्षालय से बाहर आया. वीर के पिता कहीं दिखाई न दिए. मन में कई प्रश्न एक साथ उमड़ रहे थे. मैं सहायक स्टेशन मास्टर से मिला. जब उन्हें पता चला कि मैं सेना का एक सेवानिवृत्त अधिकारी हूँ तो मुझे अपने दफ्तर में ले गए.
‘अभी प्रतीक्षालय में एक व्यक्ति से भेंट हुई, उनका बेटा सेना में था. मेरी ही रेजिमेंट में था वह. पकिस्तान में युद्धबंदी है. उनके विषय में कुछ जानते हैं?’
स्टेशन मास्टर ने मुझे घूर कर देखा. मुझे लगा कि मैंने कोई आपत्तिजनक बात कह दी थी.
‘वह अभी आपसे मिले? समझ नहीं आता कि वह आपसे कैसे मिले.’
‘इस में न समझने वाली बात क्या है?’
‘यह सच है कि उनका बेटा युद्धबंदी है. वही कहते थे. कई वर्षों से हर शाम स्टेशन आ रहे थे, कहते थे, “वीर रिहा हो रहा है और रात की ट्रेन से घर लौट रहा है”. पिछले वर्ष जून तक ऐसा ही हुआ. फिर वह कभी नहीं आये.’
‘क्यों?’
‘पिछले जून में उनकी मृत्यु हो गयी थी, यहीं स्टेशन के इस प्रतीक्षालय के भीतर. उस दिन भी वह आये थे और देर रात तक बेटे की राह देखते रहे थे. कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उन्होंने प्राण त्याग दिए थे. किसी की पता न चला था. सुबह कोई भीतर आया तो समझा कि वह बैठे-बैठे सो रहे हैं. पर वह सो नहीं रहे थे. उनकी मृत्यु हो चुकी थी.’
मैं समझ न पा रहा था कि स्टेशन मास्टर मुझे एक कहानी सुना रहे थे या कोई सत्य बता रहे थी. तभी मेरी ट्रेन प्लेटफार्म आ रुकी और मैं गाड़ी पर सवार होने चल दिया.

©आइ बी अरोड़ा 

शनिवार, 21 मई 2016

चन्द माहिया : क़िस्त 33



:1:
जब तुम ने नहीं माना
टूटे रिश्तों को
फिर क्या ढोते जाना

:2:
मुझ को न गवारा है
ख़ामोशी तेरी
आ, दिल ने पुकारा है

:3:
तुम तोड़ गए सपने
ऐसा भी होगा
सोचा ही नहीं हमने

  :4:
क्या वो भी ज़माना था
आँख मिचौली थी
तुम से छुप जाना था

:5:
इक राह अनोखी है
जाना है सब को
पर किसने देखी है

-आनन्द पाठक-
09413395592


बुधवार, 18 मई 2016

मुआवज़ा  (अंतिम भाग)
‘यह फाइल पढ़ लें. कभी माल रोड जाने का अवसर मिले तो उसकी कोठी के भी दर्शन कर लें.  तीनों शोरूम भी उधर ही हैं,’ सियाराम की आँखें उपहास से भरी हुईं थीं.
पहले पन्ने से ले कर अंतिम पन्ने तक मैंने फाइल पढ़ी,. सियाराम की कही हर बात फाइल में दर्ज थी.  परन्तु मुझ लग रहा था कि कहीं कोई ऐसी सच्चाई है जो कागजों में नहीं थी.
मैंने सियाराम से ही पूछा, ‘तुम्हें क्या लगता है की घनश्याम दास ऐसा क्यों कर रहे हैं?’
‘अरे साहब, आप इतना भी नहीं समझते? लालच और क्या? आदमी के पास कितना भी पैसा क्यों न हो उसका लालच कभी कम नहीं होता. आदमी जितना अमीर होता है उतना ही बड़ा उसका लालच होता है, यही सच है इस संसार का.’
मुझे सियाराम की बात जंची नहीं पर मेरे पास कोई ऐसा तर्क नहीं था जिसके आधार पर मैं कह पाता कि उसका निष्कर्ष गलत था.
कई हफ्तों तक घनश्याम दास मिलने नहीं आये. मैं भी अपनी उलझनों से गिरा हुआ था, अनुभाग के लगभग सभी लोगों ने मेरे विरुद्ध असहयोग आंदोलन छेड़ रखा था. मेरे साहब की भाषा का स्तर हर दिन गिर रहा था. काम का बोझ था कि बढ़ता ही जा रहा था.
एक दिन माल रोड जाना हुआ. अचानक ध्यान आया कि घनश्याम दास की कोठी भी वहीं कहीं थी. अनचाहे ही मैं हर कोठी के बाहर लगी नाम की पट्टियाँ पढ़ने लगा. एक कोठी के बाहर ‘घनश्याम निवास’ की पट्टी देख कर ठिठक गया.
सच में कोठी बहुत ही आलीशान थी. कई विचार एक साथ मन में आने लगे. कई प्रश्न एक साथ सामने खड़े हो गये. मुझे विश्वास न हो रहा था कि ऐसी कोठी में रहने वाला व्यक्ति तीन वर्षों से थोड़े से मुआवज़े के लिए हमारे कार्यालय के चक्कर लगा रहा था.
किसी की कोठी से बाहर आते देखा. घर का नौकर लग रहा था. अनायास ही में आगे आया और उससे बोला, ‘क्या मैं घनश्याम दास जी से मिल सकता हूँ?’
उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, मेरा नाम, पता पूछा और बड़े अदब से बोला, ‘साहब. आप पीछे पार्क में चलें. मैं मालिक को ले कर वहीं आता हूँ.’
“क्या मैं भीतर जाकर उनसे नहीं मिल सकता?’ मैंने आश्चर्य से पूछा.
‘सर, जो मैं कह रहा हूँ वैसा ही करें. बड़ी कृपा होगी आपकी.’
नौकर की आँखों से झलकती विवशता देख मेरे मन में एक विचार आया. ‘मुझे लगता है की घनश्याम दास जी को परेशान करने की आवश्यकता नहीं है. अगर तुम्हारे पास समय है तो तुम ही मेरे साथ चलो. मुझे उनके मुआवज़े के केस के विषय में थोड़ी जानकारी चाहिये. तुम भी तो घर के आदमी हो, तुम ही मेरे सवालों के उत्तर दे देना.’
उसने कहा कि वह साहब को बता कर ही मेरे साथ चल पायेगा. वह भीतर गया और तुरंत लौट आया.
पार्क में बैठ घंटा भर उससे बातें हुईं. जब मैं उठा तो पूरी तरह निराश था. मैंने अनुमान भी न लगाया था की जो सच फाइल में दर्ज नहीं था वह सच इतना कठोर होगा.
लगभग पाँच वर्ष पहले घनश्याम दास के सबसे छोटे लड़के को एक पुलिस की गाड़ी ने टक्कर मारी थी. गाड़ी बहुत तेज़ चल रही थी जैसे की अकसर सरकारी गाड़ियाँ चलती हैं. लड़का सड़क पार कर रहा था परन्तु पार न कर पाया था बीच में ही उसका सफ़र समाप्त हो गया था. कई लोगों ने देखा था और स्वभाव अनुसार, हाथ जेबों में डाले, बस देखते ही रहे थे. पुलिस की गाड़ी रूकी नहीं, अपनी गति पर चलती रही थी. किसी ने भी गाड़ी का नंबर नोट नहीं किया था. किसी ने उसकी सहायता न की थी. सड़क पर पड़े-पड़े ही उसकी मृत्यु हो गई थी.
उसकी मृत्यु माता-पिता के लिए असहनीय आघात थी. घनश्याम दास की पत्नी का निधन उनके छोटे बेटे की मृत्यु को दो माह बाद ही हो गया था. अपने बेटे की आकस्मिक मृत्यु ने माँ को बिलकुल तोड़ दिया था. पत्नी के देहांत के बाद उनका मन पूरी तरह उखड़ गया था.
उनके चार बेटे थे. बड़े बेटे शुरू से ही काम में उनका हाथ बटाते थे. सब से छोटा निठल्ला था. माता-पिता का लाड़ला भी था. पढ़ने में शुरू से ही तेज़ था. पर पिता के काम-काज में उसकी बिलकुल मन न लगता था. उसे तो बस कवितायें और कहानियाँ लिखना ही आता था. संगीत और कला में उसकी रूचि थी.
घनश्याम दास ने सारा काम बड़े बेटों पर छोड़ दिया. आरंभ में सब कुछ पिता के नाम पर ही चलता रहा. बीच-बीच में पिता से बेटे थोड़ी-बहुत राय लेते रहे. उनके हस्ताक्षरों की भी आवश्यकता रहती.
धीरे-धीरे बेटों ने सब कुछ अपने नाम कर लिया. अब पिता कुछ कहते तो बेटों को अच्छा न लगता. एक दिन सबसे बड़े ने कह ही दिया, ‘हम देख रहे हैं न सब कुछ तो आप इतनी छिकछिक क्यों करते हो. अब आप आराम करो. इस तरह बेकार की टोका-टाकी मत किया करो. अच्छा नहीं लगता.’
जिस दिन अंतिम कानूनी कार्यवाही भी पूरी हो गई उस दिन घनश्याम दास कोठी के पिछवाड़े बने एक कमरे में पहुँच गये. एक बेटे ने छोटा टीवी लगवा दिया, दूसरे ने एक नन्हा-सा फ्रिज, और तीसरे ने थोड़ा-सा फर्नीचर.
कुछ समय तक खाना कोठी से ही आता रहा, कभी पहली मंजिल से, कभी दूसरी से तो और कभी सबसे ऊपर वाली मंजिल से. पर ऐसा अधिक दिन न चला. कभी पहली मंजिल वाला खाना भेजना भूल जाता, कभी दूसरी वाला और कभी ऊपरी मंजिल वाला.
धीरे-धीरे उनकी देखभाल का दायित्व घर के पुराने नौकर पर आ गया. पर समस्या यह थी की खाने-पीने पर खर्च होने वाले पैसे कहा से आते.  नौकर की जितनी आमदनी थी उसमें उसका अपना ही खर्च कठिनाई से चलता था. उसने एक-दो बार सबसे बड़े बेटे से कहा भी था पर उसने उसकी बात अनसुनी कर दी थी.
घनश्याम दास को यह चिंता सताने लगी थी कि जीवन के अंतिम दिन कैसे काटेंगे. एक दिन नौकर ने यूँ ही कहा, ‘मालिक, अगर किसी की रेल में या सड़क पर दुर्घटना ही तो क्या सरकार मुआवजा नहीं देती?’
उसी दिन से घनशयाम दास मुआवज़े के लिए चक्कर लगाने लगे. उन्हें लगने लगा कि अगर मुआवजा मिल गया तो बाकि के दिन ठीक से कट जायेंगे.
‘क्या बेटे जानते हैं?’
‘उन्होंने ही तो मालिक के मन में यह बात बिठा दी है कि मुआवज़ा पाना उनका अधिकार है. अगर पूरी कोशिश करेंगे तो उन्हें अवश्य मुआवजा मिलेगा. उन्होंने ही कहा था कि सरकारी गाड़ी से दुर्घटना होने पर सरकार को मुआवज़ा देना ही पड़ता है. उसी विश्वास के कारण ही तो वह बार-बार चक्कर काट रहे हैं, कभी इस दफ्तर के तो कभी उस दफ्तर के.’
मैंने उठते-उठते पूछा, ‘तुम ने मुझे भीतर क्यों नहीं जाने दिया, घनश्याम दास जी से मिलने के लिये?’
‘सर, पहली मंजिल में बड़े बेटे रहते हैं. उन्हें अच्छा नहीं लगता अगर मालिक से मिलने कोई पिछले कमरे में जाये.’
मैं चलने लगा तो नौकर ने कहा, ‘सर, कुछ हो सकता है क्या?’
हवा की एक ठंडी लहर अचानक कहीं से आई और मुझे छू कर आगे निकल गई. एक पल को लगा की इस सर्द हवा में हड्डियाँ भी जम जायेंगी. आस-पास लगे पेड़ भी थोड़ा सिहर गये. कुछ सूखे पत्ते पेड़ों से झड़ कर इधर-उधर बिखर गये.
मैं कोई उत्तर न दे पाया और चुपचाप वहां से चल दिया.
©आइ बी अरोड़ा 

मंगलवार, 17 मई 2016

मुआवज़ा (भाग १)
मैंने अपने पद का कार्यभार सँभाला ही था की एक वृद्ध मेरे सामने आ खड़े हुए. चेहरा झुर्रियों से भरा था, बाल सफ़ेद और बिखरे हुए थे, आँखों पर निराशा और उदासी की परत चढ़ी हुई थी.
एक सहमी हुई आवाज़ मुझ तक पहुंची, ‘सर, क्या मैं  आप से कुछ कह सकता हूँ?’
मेरे कुछ कहने के पहले ही अनुभाग के कुछ लोग एक साथ बोल पड़े, ‘अरे बाबा, हमारा पिंड कब छोड़ोगे? कितनी बार तुम्हें समझा चुकें हैं कि हम कुछ नहीं हो सकते पर तुम हो कि कुछ समझने को ही तैयार नहीं हो.’
यह सब कुछ मेरे लिए बिल्कुल अप्रत्याशित था.
‘क्या बात है?’ जैसे ही मैंने वृद्ध से पूछा, अनुभाग के सबसे वरिष्ठ सहायक, सियाराम, ने बीच में टोकते हुए वृद्ध से कहा, ‘तुम जो हर दिन यहाँ आ जाते हो उससे क्या नियम-कानून बदल जायेंगे? जब एक बार कह दिया कि मुआवज़ा नहीं मिल सकता तो बार-बार आकर क्यों परेशान करते हो?’
‘मैं तो साहब से बस एक मिनट बात करना चाहता था,’ वृद्ध ने सहमी आवाज़ में कहा.
‘साहब ने आज ही ज्वाइन किया है, उन्होंने अभी तुम्हारा केस नहीं देखा,’ सियाराम ने मुझसे कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं समझी.
मुझे अपने आप पर क्रोध आ रहा था. आज मेरा पहला दिन था इस कार्यालय में और मैं अपनी पहली चुनौती में असफल हो रहा था. सियाराम ऐसे व्यवहार कर रहा था जैसे मैं वहां था ही नहीं.
‘आप कुछ दिनों के बाद मुझे मिलें. इस बीच मैं आपकी फाइल देख लूंगा,’ मैंने साहस कर कहा. सियाराम ने घूर का मुझे देखा.
वृद्ध के जाते ही मैंने सियाराम से ही कहा कि मुझे इस केस के विषय में बताये.
‘सर, पिछले दो वर्षों से इसने परेशान कर के रखा है. इसके एक बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. बस, तब से मुआवज़े के लिए घूम रहा है. बीस से अधिक अर्ज़ियाँ दे चुका है. राष्ट्रपति से लेकर हमारे चपरासी तक सबको अपनी फ़रियाद लिख चुका है. करोड़-पति है, पर मरे हुए बेटे का मुआवज़ा मांग रहा है.’
बात बीच में ही रह गई, बड़े साहब ने मुझे बुला लिया. मैं उनके समक्ष हाज़िर हुआ तो देखते ही बोले, ‘जिस कुर्सी तक पहुँचने में मुझे बीस साल लगे थे उस कुर्सी पर तुम सीधे आकर बैठ गये हो. यहाँ काम करना है तो अधिक होशियारी मत दिखाना. मेरे चाहे बिना यहाँ पत्ता भी नहीं हिलता. सुना है यूनिवर्सिटी में तुम प्रथम आये थे, फिर आईएएस क्यों नहीं बन पाये? यू पी एस सी रैंक इतना नीचे कैसे हो गया?’
बॉस की बातें आने वाले तूफ़ान की ओर संकेत कर रही थीं. मेरे पास बस एक ही उपाये था. मुझे अपने काम को समझ कर सही ढ़ंग से निपटाना था. काम में मैं ऐसा उलझा कि उस वृद्ध का ध्यान ही न रहा.
लगभग एक माह बाद वह वृद्ध फिर आये. मेरे कुछ कहने से पहले ही एक सहायक ने चिल्ला कर कहा, ‘ओ महेंद्र, इस मुसीबत को अंदर क्यों आने दिया? तुझे कितनी बार कहा है कि इसे भीतर न आने दिया कर. इसे समझ कुछ आता नहीं है और हमारा दिमाग चाट जाता है.’
एक माह की उठा-पटक के बाद मैं लोगों को कुछ-कुछ समझने और पहचानने लगा था.
वृद्ध मुझ से बात करना चाहते थे, पर एक सहायक उसे बाहर कर देने का आदेश दे रहे थे. ‘ओ महेंद्र, सुन रहा है कि सो रहा है. इसको बाहर छोड़ कर आ.’
मैंने साहस कर कहा, ‘आप अपना काम देखें, मैं इन से कुछ बात करना चाहता हूँ.’
सहायक ने मुझे ऐसे देखा कि जैसे मैंने उसे कोई भद्दी गाली दे दी हो. मैंने उसकी उपेक्षा करते हुए वृद्ध से कहा, ‘आप बैठिये, क्या कहना है आपको?’
मैं दो वर्षों से पागलों की तरह चक्कर लगा रहा हूँ. प्रधान मंत्री के कार्यालय से भी पत्र आया था, गवर्नर का भी आया था. मुझे मालूम है, जानता हूँ हर जगह  घूस दे कर ही कोई काम करवाया जा सकता है. पर मैं क्या करूं? मेरे पास तो घूस देने के लिए कुछ भी नहीं है. मेरा जवान बेटा सरकारी गाड़ी के नीचे आ कर मर गया. और आप लोग मुझे कोई मुआवज़ा देने को तैयार नहीं हो. क्या करूं मैं? घूस नहीं दे सकता, आप कहें तो आप लोगों के घर के काम कर दिया करूंगा. परन्तु इतना अन्याय तो न करें.’
इन शब्दों की बाढ़ में मैं न चाहते हुए भी बह गया. ध्यान आया कि सियाराम इनके केस के विषय में कुछ बता रहा था पर शायद बात पूरी न हो पाई थी. सियाराम अभी आया न था.
‘आप मुझे थोड़ा सा समय दें. मैं अभी नया-नया ही यहाँ आया हूँ. आपका केस देख न पाया. पर विश्वास करें मैं स्वयं आपका केस देखूंगा.’
“देखने भर से मेरी कोई सहायता न होगी, आप कोई रास्ता निकालें, आपकी बहुत कृपा होगी.’
हर दिन की भांति उस दिन भी सियाराम बारह बजे के आस-पास ही आया. उसके आते ही मैंने उसे वृद्ध के केस के बारे में पूछा. वह एक-आध घंटे के बाद एक फाइल लाया और बोला, ‘यह रही उसकी फाइल. आप चाहें तो मैं इस केस के बारे में आपको सब कुछ बता सकता हूँ.’
उसके स्वर में उसकी खीज साफ़ सुनाई दे रही थी पर अब मैं धीरे-धीरे इन बातों का आदि हो रहा था. जितनी कड़वी बातें मुझे बड़े साहब की सहनी पड़ती थीं उतने ही बेरुखी अपने अनुभाग के लोगों की झेलनी पड़ती थी. शायद यह मेरी नियति थी.
‘इस बूढ़े का नाम घनश्याम दास है. माल रोड पर इसकी  तीन मंज़िला कोठी है. पाँच करोड़ से कम की न होगी. माल रोड पर ही तीन शो रूम हैं. सुना है हर माह लाखों-करोड़ों की बिक्री होती है. घनश्याम दास खुद बिज़नस से रिटायर हो चुका है. इसलिये दुकानें इसके बेटे चलाते हैं. यह घर में बैठ के बस खाता है.
‘कुछ साल पहले इसके सबसे छोटे बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. इस का कहना है की बेटा किसी सरकारी गाड़ी के नीचे आ कर मरा था. इस बात की कभी पुष्टि न हो पाई, न ही यह स्वयं कोई प्रमाण दे पाया. पिछले दो-तीन वर्षों से मुआवज़े के लिए हाय-तौबा मचा रहा है. परन्तु नियमानुसार इसे कोई मुआवजा नहीं दिया जा सकता. अगर गरीब होता तो शायद थोड़ी-बहुत मदद की जा सकती थी. पर यह तो बहुत ही संपन्न व्यक्ति है.’
सियाराम ने जो बताया वह अविश्वसनीय लगा. घनश्याम दास को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह एक संपन्न व्यक्ति था. उससे न तो पैसों की बू आती थी न ही उसमें वह गरिमा थी जो अकसर पैसे वालों में होती है. वह तो हर कोण से एक दीन-हीन व्यक्ति था.
‘आपको लगता है कि वह एक दीन-हीन आदमी है?’ सियाराम ने अपनी कुटिल आँखें मुझ पर गड़ा दीं.

मैं चुप रहा.
©आइ बी अरोड़ा 

संदेह

मैं लिखना चाहता हूॅ
अंतिम कलम की नोंक से 
अंतिम कागज की पटल पर
अपना अंतिम अनुभव।

परंतु, 
क्या लिखने देगी 
पूर्ण होने देगी मेरी अंतिम इच्छा
मेरी मृत्यु? 

क्या मैं पहला आदमी हो जाउॅगा जग का
जो कह सकूॅगा अपने मृत्यु का ज्ञान?

सोमवार, 16 मई 2016

एक क़ता

क़ता

तेरी शख़्सियत का मैं इक आईना हूँ
तो फिर क्यूँ अजब सी लगी ज़िन्दगी है

नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक
अज़ल से लबों पर वही तिश्नगी है

-आनन्द.पाठक-
09413395592
[अज़ल से = अनादि काल से]

रविवार, 15 मई 2016

गाय और वीवीआइपी
(कई वर्ष पुरानी बात है. मैं लोधी रोड पर स्थित एक मंदिर के भीतर था. मंदिर के निकट सड़क किनारे एक गाय बैठी थी. प्रधान मंत्री उसी समय उस रास्ते से जाने वाले थे. सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त था. जीप में बैठे एक अधिकारी ने गाय को देखा. उसको बाद जो कुछ हुआ उससे प्रेरित हो कर यह रचना लिखी थी.)

मोहल्ले में गहमा-गहमी थी. और होती भी क्यों न? आखिर बात ही ऐसी थी. मोहल्ले में वीवीआइपी आने वाले थे.

हमारे मोहल्ले में एक स्कूल के अध्यापक  रहते हैं. अब तक बहुत कम लोगों को उनके होने का पता था. एक अध्यापक जैसे मामूली व्यक्ति का किसी दूसरे के जीवन में क्या महत्व हो सकता है? जिस देश में पैसा और सत्ता ही महानता के मापदंड हों वहां अध्यापक जैसा व्यक्ति किस गिनती में आता है.


इन्हीं अध्यापक की बेटी का विवाह था. अध्यापक जी ने वीवीआइपी को न्योता दिया था. वीवीआइपी ने न्योता स्वीकार कर लिया था.

वैसे इन अध्यापक का राजनीति से दूर-दूर तक का संबंध भी न था. न उन्होंने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया था, न किसी राजनेता की चरण रज माथे पर लगाई थी. शायद ही किसी चुनाव में उन्होंने अपना मत डाला हो. परन्तु फिर भी उनकी बेटी के विवाह में वीवीआइपी आ रहे थे.

यह भाग्य की उठा पटक ही थी कि स्कूल के दिनों का उनका अभिन्न मित्र आज वीवीआइपी था. उन दिनों आज के वीवीआइपी आज के अध्यापक के पीछे-पीछे घूमा करते थे. हर छोटी-बड़ी समस्या के निधान हेतु अपने मित्र पर निर्भर थे. परीक्षा के समय तो उन की नैया मित्र (अर्थात आज के अध्यापक) के सहारे ही पार लगती थी.

आज अध्यापक जी के अभिन्न मित्र वीवीआइपी हैं; पर वीवीआइपी बनने के बाद भी वह अपने बचपन के मित्र को भूले नहीं हैं. अतः मित्र की बेटी के विवाह का निमन्त्रण सहर्ष  स्वीकार कर लिया. वैसे वीवीआइपी जी को इस बात का पूरा आभास था कि इस विवाह में सम्मिलित होकर अपनी छवि को वो जितना निखार पायेंगे उतना वह बीस सभाओं में भाग लेकर भी शायद न निखार पायें. निमन्त्रण स्वीकार हुआ और रातों रात अध्यापक मोहल्ले के वीवीआइपी बन गये.

वीवीआइपी आते उससे पहले कई पुलिस के अफसर आये, सुरक्षा कर्मी आये. सड़क पर लगी बत्तियां जो वर्षों से बंद थीं जलने लगीं, जिन नालियां की सफ़ाई वर्षों से न हुई थी उनकी सफ़ाई हुई. विवाह के पूर्व और पश्चात ऐसा बहुत कुछ हुआ, पर जिस घटना का उल्लेख मैं करना चाहता हूँ वह विवाह मंडप से कुछ दूर घटी थी.

वीवीआइपी के आने से पहले ही वधु के घर की ओर जाने  वाले रास्ते पर  सुरक्षा कर्मी तैनात हो गई थे. विवाह रात में था पर सुरक्षा कर्मी दुपहर बाद ही तैनात हो गये थे. अपने में बेहद उकताये हुए सुरक्षा कर्मी हर आने जाने वाले पर पैनी(?) नज़र रखे हुए थे. विवाह मंडप की ओर जाने वाली सड़क पर वाहन खड़ा करने की मनाई थी.  गुब्बारे वाले और ऐसे अन्य लोग जो विवाह मंडपों के बाहर अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं, उन्हें तो मोहल्ले के निकट भी फटकने न दिया गया.

वीवीआइपी के आने में अधिक समय न था. एक सुरक्षा कर्मी की नज़र एक गाय पर पड़ी. गाय सड़क के किनारे निश्चिंत बैठी जुगाली कर रही थी. चारों ओर तैनात पुलिस और पुलिस के बंदोबस्त से वह पूरी तरह बेखबर थी. सुरक्षा कर्मी कुछ तय न कर पाया कि उसे क्या करना चाहिये. बेमन से उसने गाय को आवाज़ दी. गाय ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की. असमंजस में डूबा वह गाय के निकट आया और धीरे-धीरे उठ-उठबोल, गाय को उठाने का प्रयत्न करने लगा.

किसी ध्यान मग्न योगी की तरह गाय जुगाली करती रही. सुरक्षा कर्मी इधर-उधर देखता रहा. उसे कुछ समझ न आया कि उसे क्या करना चाहिये. झुंझला कर वह अपनी निश्चित जगह पर आकर खड़ा हो गया. वह धीमे-धीमे कुछ बुदबुदा रहा था और गाय को ऐसे देख रहा था जैसे गाय गाय न होकर एक ऐसी मुजरिम हो जो उसकी आँखों के सामने ही अपराध कर रही हो.

सारे प्रबंध का निरीक्षण करने के लिए एक अधिकारी अपनी जीप में चला आ रहा था. उसका आना इस बात का सूचक था कि वीवीआइपी बस आ ही रहे थे. अधिकारी अपने आप में पूरी तरह संतुष्ट था, उसके प्रबंध में कभी भी कोई कोताही न हुई थी. अचानक अधिकारी की नज़र गाय पर पड़ी. वह चौंका जैसे कोई भूत देख लिया हो, “हटाओ उसे, जल्दी हटाओ उसे.भोंपू पर वह ज़ोर से चिल्लाया.

आस पास खड़े सुरक्षा कर्मिओं की प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी उस आदमी की होती है जो अनायास बिजली का नंगा तार छू लेता है. पाँच-सात सुरक्षा कर्मी गाय की ओर ऐसे दौड़े जैसे शिकारी कुत्ते अपने शिकार की ओर दौड़ते हैं. कुछ सिपाही  ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे, कुछ सीटी बजा रहे थे.

इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबरा कर गाय एक झटके से उठी और सड़क के बीचों-बीच आ गई. पल भर को गाय निर्णय न कर पाई कि उसे किस ओर भागना चाहिये. तभी जीप में बैठे अधिकारी और अन्य सुरक्षा कर्मियों पर जैसे बिजली सी गिरी. गाय उस ओर ही भागने लगी जिस ओर से वीवीआइपी आने वाले थे.          

वीवीआइपी किसी भी क्षण आ सकते थे और गाय थी कि उसी ओर भागी जा रही थी. गाय के पीछे चार-पाँच सिपाही भाग रहे थे. जीप में बैठे अधिकारी को कुछ न सूझा तो उसने भी अपनी जीप उन सिपाहियों के पीछे भगा दी. गाय को अपने पद और अधिकार का अहसास दिलाने के लिए उसने जीप का सायरन भी बजाना शुरू कर दिया. भोंपू पर उसका चिल्लाना बंद न हुआ था.

लगभग सुनसान सड़क पर भागती एक गाय, उस गाय के पीछे भागते चार-पाँच सिपाही, उन सिपाहियों के पीछे दौड़ती, सायरन बजाती जीप,  जीप में बैठे अधिकारी का भोंपू पर चिल्लाना, यह सब एक अद्भुत दृश्य था.

तभी वीवीआइपी की गाड़ी आती दिखाई दी. वीवीआइपी स्वयं बैठे तो एक ही गाड़ी में थे पर उस गाड़ी की चारों ओर सात-आठ गाड़ियाँ और थीं. इस काफ़िले और गाय का कभी भी आमना सामना हो सकता था. अचानक गाय सड़क छोड़, एक संकरी-सी गली में घुस गई.

वीवीआइपी गाड़ियों की  सड़क पर भागते सिपाहियों और उनके पीछे आती जीप से टक्कर होते-होते बची. सड़क पर तैनात अन्य सिपाही और अधिकारी सांस रोके खड़े थे, सब किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे. पर कोई अनहोनी न हुई, सौभाग्य से. वीवीआइपी का काफ़िला बिना रुके(और बिना अपनी गति घटाये) आगे बढ़ गया.
सुरक्षा कर्मी एक दूसरे को ऐसे देख रहे थे जैसे किसी दुः स्वप्नॅ से जागे हों. पर जीप में बैठे अधिकारी की हालत खराब थी. वह सब को गालियां दे रहा था.

अगले दिन समाचार पत्रों में छपा कि वीवीआइपी सुरक्षा नियमों का उलंग्न करने के अपराध में कुछ अधिकारियों को निलम्भित कर दिया गया था, और गाय के मालिक का पता न लगने के कारण, गाय को हिरासत में ले लिया गया था.  

सुरक्षा नियमों की समीक्षा करने के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी भी बना दी गई थी.
© आइ बी अरोड़ा