एक ग़ज़ल
ख़ुदाया ! काश वह मेरा कभी जो हमनवा होता ,
उसी की याद में जीता, उसी पर दिल फ़ना होता !
कभी तुम भी चले आते जो मयख़ाने में ऎ ज़ाहिद !
ग़लत क्या है, सही क्या है, बहस में फिर मज़ा होता ।
किसी के दिल में उलफ़त का दिया जो तुम जला देते
कि ताक़त रोशनी की क्या ! अँधेरों को पता होता ।
उन्हीं से आशनाई भी , उन्हीं से है शिकायत भी ,
करम उनका नहीं होता तो हमसे क्या हुआ होता ।
नज़र तो वो नहीं आता, मगर रखता ख़बर सब की,
जो आँखें बन्द करके देखता, शायद दिखा होता ।
वो आया था बुलाने पर, वो पहलू में भी था बैठा ,
निगाहेबद नहीं होती , न मुझसे वो ख़फ़ा होता ।
निहाँ होना, अयाँ होना, पस-ए-पर्दा छिपा होना ,
वो बेपरदा चले आते समय भी रुक गया होता ।
हसीनों की निगाहों में बहुत बदनाम हूँ ’आनन’ ,
हसीना रुख बदल लेतीं, कभी जब सामना होता ।
-आनन्द.पाठक-