गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

नए वर्ष पर एक गीत : आशाओं की नई किरण से---

 [ शनै: शनै: हम आ ही गए ,आगत और अनागत के मुख्य द्वार पर,जहाँ जाने वाले वर्ष की

कुछ विस्मरणीय स्मृतियाँ हैं तो आने वाले नववर्ष से कुछ आशाएँ हैं। इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत है

एक गीत--- 


नए वर्ष पर एक गीत : आशाओं की नई किरण से---


आशाओं की नई किरण से, नए वर्ष का स्वागत -वन्दन ,

नई सुबह का नव अभिनन्दन।


ग्रहण लग गया विगत वर्ष को 

उग्रह अभी नहीं हो पाया  ।

बहुतों ने खोए  हैं परिजन ,

"कोविड’ की थी काली छाया ।


इस विपदा से कब छूटेंगे, खड़ी राह में बन कर अड़चन ।

नई सुबह का नव अभिनन्दन।


देश देश आपस में उलझे

बम्ब,मिसाइल लिए खड़े हैं ।

बैठे हैं शतरंज बिछाए ,

मन में झूठे दम्भ भरे हैं ।


ऐसा कुछ संकल्प करें हम, कट जाए सब भय का बन्धन ।

नई सुबह का नव अभिनन्दन।


धुंध धुआँ सा छाया जग पर

साफ़ नहीं कुछ दिखता आगे ।

छँट जाएँगे काले बादल ,

ज्ञान-ज्योति जब दिल में जागे ।


हम सब को ही एक साथ मिल ,करना होगा युग-परिवर्तन ।

नई सुबह का नव अभिनन्दन।


मानव-पीढ़ी रहेगी ज़िन्दा ,

जब तक ज़िन्दा हैं मानवता ।

सत्य, अहिंसा ,प्रेम, दया का

जब तक दीप रहेगा जलता ।


महकेगा यह विश्व हमारा ,जैसे महके चन्दन का वन ।

नई सुबह का नव अभिनन्दन।


-आनन्द.पाठक--


शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

एक ग़ज़ल : क्या कहूँ मैने किस पे----

 एक ग़ज़ल :


क्या कहूँ मैने किस पे कही  है ग़ज़ल।

सोच जिसकी थी जैसी, सुनी है ग़ज़ल ।


दौर-ए-हाज़िर की हो रोशनी या धुँआ,

सामने आइना  रख गई है  ग़ज़ल   ।


लोग ख़ामोश हैं खिड़कियाँ बन्द कर,

राह-ए-हक़ मे खड़ी थी ,खड़ी है ग़ज़ल


वो तक़ारीर नफ़रत पे करते रहे,

प्यार की लौ जगाती रही है ग़ज़ल।


मीर-ओ-ग़ालिब से चल कर है पहुँची यहाँ,

कब रुकी या  झुकी कब थकी है  ग़ज़ल ।


लौट आओगे तुम भी इसी राह पर,

मेरी तहज़ीब-ए-उलफ़त बनी है ग़ज़ल।


आज ’आनन’ तुम्हारा ये तर्ज़-ए-बयां,

बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ बन गई है ग़ज़ल।


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 16 दिसंबर 2020

चन्द् माहिए ---

 चन्द माहिए --


:1:

जब तुम ने नहीं माना,

टूटे रिश्तों को

फिर क्या ढोते जाना!


 :2:

इस दिल ने पुकारा है,

ख़ामोशी तेरी

मुझ को न गवारा है।


 :3:

तुम तोड़ गए सपने,

ऐसा भी होगा

सोचा ही नहीं हमने!


  :4:

जब तुम को छकाना था,

आँख मिचौली में

तुम से छुप जाना था।


5

हर रंग जो सच्चा है,

प्रीत मिला दें तो

सब रंग से अच्छा है।


-आनन्द.पाठक--

सोमवार, 14 दिसंबर 2020

स्रग्धरा छंद "शिव स्तुति"

शम्भो कैलाशवासी, सकल दुखित की, पूर्ण आशा करें वे।
भूतों के नाथ न्यारे, भव-भय-दुख को, शीघ्र सारा हरें वे।।
बाघों की चर्म धारें, कर महँ डमरू, कंठ में नाग साजें।
शाक्षात् हैं रुद्र रूपी, मदन-मद मथे, ध्यान में वे बिराजें।।

गौरा वामे बिठाये, वृषभ चढ़ चलें, आप ऐसे दुलारे।
माथे पे चंद्र सोहे, रजत किरण से, जो धरा को सँवारे।।
भोले के भाल साजे, शुचि सुर-सरिता, पाप की सर्व हारी।
ऐसे न्यारे त्रिनेत्री, विकल हृदय की, पीड़ हारें हमारी।।

काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी।
दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।।
देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे।
देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।।

भक्तों के प्राण प्यारे, घट घट बसते, दिव्य आशीष देते।
भोलेबाबा हमारे, सब अनुचर की, क्षेम की नाव खेते।।
कापाली शूलपाणी, असुर लख डरें, भक्त का भीत टारे।
हे शम्भो 'बासु' माथे, वरद कर धरें, आप ही हो सहारे।।

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स्त्रग्धरा छंद (लक्षण)

"माराभाना ययाया", त्रय-सत यति दें, वर्ण इक्कीस या में।
बैठा ये सूत्र न्यारा, मधुर रसवती, 'स्त्रग्धरा' छंद राचें।।

"माराभाना ययाया"= मगण, रगण, भगण, नगण, तथा लगातार तीन यगण। (कुल 21 अक्षरी)
222  212  2,11  111  12,2  122  122
त्रय-सत यति दें= सात सात वर्ण पर यति।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

सार छंद "भारत गौरव"

जय भारत जय पावनि गंगे, जय गिरिराज हिमालय;
सकल विश्व के नभ में गूँजे, तेरी पावन जय जय।
तूने अपनी ज्ञान रश्मि से, जग का तिमिर हटाया;
अपनी धर्म भेरी के स्वर से, जन मानस गूँजाया।।

उत्तर में नगराज हिमालय, तेरा मुकुट सजाए;
दक्षिण में पावन रत्नाकर , तेरे चरण धुलाए।
खेतों की हरियाली तुझको, हरित वस्त्र पहनाए;
तेरे उपवन बागों की छवि, जन जन को हर्षाए।।

गंगा यमुना कावेरी की, शोभा बड़ी निराली;
अपनी जलधारा से डाले, खेतों में हरियाली।
तेरी प्यारी दिव्य भूमि है, अनुपम वैभवशाली;
कहीं महीधर कहीं नदी है, कहीं रेत सोनाली।।

महापुरुष अगणित जन्मे थे, इस पावन वसुधा पर;
धीर वीर शरणागतवत्सल, सब थे पर दुख कातर।
दानशीलता न्यायकुशलता, उन सब की थी थाती;
उनकी कृतियों की गुण गाथा, थकै न ये भू गाती।।

तेरी पुण्य धरा पर जन्मे, राम कृष्ण अवतारी;
पा कर के उन रत्नों को थी, धन्य हुई भू सारी।।
आतताइयों का वध करके, मुक्त मही की जिनने;
ऋषि मुनियों के सब कष्टों को, दूर किया था उनने।।

तेरे ऋषि मुनियों ने जग को, अनुपम योग दिया था;
सतत साधना से उन सब ने, जग-कल्याण किया था।
बुद्ध अशोक समान धर्मपति, जन्म लिये इस भू पर;
धर्म-ध्वजा के थे वे वाहक, मानवता के सहचर।।

वीर शिवा राणा प्रताप से, तलवारों के चालक;
मिटे जन्म भू पर हँस कर वे, मातृ धरा के पालक।
भगत सिंह गांधी सुभाष सम, स्वतन्त्रता के रक्षक;
देश स्वतंत्र किये बन कर वे, अंग्रेजों के भक्षक।।

सदियों का संघर्ष फलित जो, इसे सँभालें मिल हम;
ऊँच-नीच के जात-पाँत के, दूर करें सारे तम।
तेरे यश की गाथा गाए, गंगा से कावेरी;
बारंबार नमन हे जगगुरु, पुण्य धरा को तेरी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

गीतिका (अभी तो सूरज उगा है)

प्रधान मंत्री मोदी जी की कविता की पंक्ति से प्रेरणा पा लिखी गीतिका।

(मापनी:- 12222  122)


अभी तो सूरज उगा है,

सवेरा यह कुछ नया है।


प्रखरतर यह भानु होता ,

गगन में बढ़ अब चला है।


अभी तक जो नींद में थे,

जगा उन सब को दिया है।


सभी का विश्वास ले के,

प्रगति पथ पर चल पड़ा है।


तमस की रजनी गयी छँट,

उजाला अब छा गया है।


उड़ानें यह देश लेगा,

सभी दिग में नभ खुला है।


भवन उन्नति-नींव पर अब,

शुरू द्रुत गति से हुआ है।


गया बढ़ उत्साह सब का,

कलेजा रिपु का हिला है।


'नमन' भारत का भरोसा,

सभी क्षेत्रों में बढ़ा है।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

रविवार, 13 दिसंबर 2020

मैं कोरोना... कुछ कहूं .. सुनो ना

 मैं कोरोनो 

कुछ कहूं...

 सुनो ना !!


ठुमक ठुमक 

और लचक मटक 

मैं आऊं !!

छींक खांस कर 

सांस सांस भर 

थूक पीक से 

इधर उधर 

लहराऊं!


दो गज दूरी 

अगर रहे न 

जो तुम सब  में  तो ...

तुम्हारी ओर खिंची

चली  मैं आऊं !!

तुम सब के 

हर अंग अंग  में 

रोम रोम में 

रच बस  जाऊं !

 

तुम बड़े सयाने 

पर  बात न माने 

और फिर 

मास्क न पहनो !

हाथ न धोना  जानो

सैनिटाइजर को  

धता बताओ !!

फिर मैं कहूं - अरे!!

 रुको रुको... मैं आऊं !!


और 

मैं कोरोनो 

एक रोग सलोना

तुम्हारी रग रग में 

समाऊं !!

स्वस्थ जीवन से  

अस्पताल की राह 

की राह तुम्हे मैं 

दिखलाऊं ...


सुध बुध सब 

जीवन की बिसरे ..

साथी परिजन 

सब कौउ छूटे 

इस जीवन से 

तुम्हरा रिश्ता नाता टूटे ...

न्योता दे दो 

कुछ ही दिनों में 

परम ब्रह्म से  तुम्हे 

 मैं ही मिलवाऊं ... 

इस लोक से 

उस लोक की 

सैर  जल्द करवाऊं ...


सुनो ... रुको ...

खैर जो चाहो 

इस जीवन की ...

दो गज दूरी 

हमेशा ही बनाओ

और तुम चेहरे पे अपने 

 सदा मास्क लगाओ 

 और रहो सदा तुम

स्वस्थ सुखी 

ऐसी मैं आस

लगाऊं !!







शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

एक व्यंग्य : मुजरिम हाज़िर हो

  एक व्यंग्य : मुज़रिम हाज़िर हो....


’आनन्द.पाठक पुत्र [स्व0] श्री रमेश चन्द्र पाठक साकिन अमुक परगना अलाना जिला फ़लाना वर्तमान निवासी गुड़गाँव.....हाज़िर हो"- अर्दली ने अदालत के बाहर जोर से आवाज़ लगाई ।
-’अबे ! शार्ट में नहीं बोल सकता  क्या..? पूरे खानदान को लपेटना ज़रूरी था ?-मैने विरोध जताया
’-आप ने 10-रुपया दिया था क्या ? भला मनाइए कि मैने 4-पुरखों तक नहीं लपेटा-
मैने 10-का एक नोट थमाया और बोला-" बेटा आगे से ध्यान रखना’
’ठीक है स्साब ! ’सलाम स्साब !

और मैं अदालत कक्ष में बने कठघरे में जा कर खड़ा हो गया
-आप का कोई वकील ?--जज ने पूछा
-नहीं, मैं ही काफी हूँ। सच को झूठ की क्या ज़रूरत, जज साहब!?
’ठीक है।ठीक है। सरकारी वकील ज़िरह शुरु कर सकते है ।
सरकारी वकील -’हाँ ! तो आप का नाम ?
-आनन्द पाठक-
-पिता का नाम?
-उस अर्दली से पूछ लो जो अभी अभी आवाज़ लगा रहा था’
मै निश्चिन्त था। मेरा 10-रुपए का नोट अर्दली का मुँह नहीं खुलने देगा।
 सरकारी वकील ने कहा-’मैं आप से पूछ रहा हूँ । यह आप की कोई साहित्यिक मंच मंडली नहीं है कि जो चाहे बोल दें। अल्लम गल्लम लिख दे.और सब वाह वाह कर दें ।.यह अदालत है अदालत ।यहाँ कुछ भी बोलने की स्वतन्त्रता नहीं ।
- आप का पेशा ?
-व्यंग्य लिखना-
-मैं आप का पेशा पूछ रहा हूं रोग नहीं’- सरकारी वकील ने कुटिल मुस्कान लाते हुए पूछा
-तो आप डाक्टर हैं क्या ?-
-अच्छा ! तो आप व्यंग्य लिखते हैं?- तो आप व्यंग्य क्यों लिखते है ?
-कि समाज को आईना दिखाना है ।
- समाज को आईना क्यों दिखाना है?समाज से बिना पूछे “आईना दिखाना”- अनधिकॄति ’ट्रेसपासिंग’ अतिक्रमण का केस बनता है। जज साहब नोट किया जाए ।
- इसलिए दिखाता हूँ कि उसको अपना चेहरा नज़र आए-
-तुम्हें मालूम है? समाज अपना विभत्स और कुरूप चेहरा देख कर डर भी सकता है,?.अत: तुम समाज में डर फैला रहे हो ? -इस प्रकार अनावश्यक आतंक फैलाने से तुम्हारे ऊपर ’आतंक’ फ़ैलाने का भी केस बन सकता है-जज साहब नोट किया जाए ।
-नहीं । समाज डरता नहीं है, हँसता है।वो समझता है कि इस आईने में उसका चेहरा नही ,किसी और का चेहरा देख रहा है।
-अच्छा , इस तरह आईना चमकाने से कुछ लोगों की आँखे चौधियाँ भी सकती है । लोग अन्धे भी हो सकते है । .जमीर धुँधला भी सकता है ।जब जमीर अंधा हो जाएगा तब उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई देगा,।,न भ्रष्टाचार..न बेईमानी..न भाई ,,न भतीजावाद, न सदाचार,न कदाचार ,न ’सदाचार की तावीज” ’,न अपना कुरूप चेहरा...इस तरह से तुम समाज को नुकसान पहुँचा रहे हो? अन्धों को भी आईना दिखाते हो क्या ?? --सरकारी वकील ने अपना जिरह जारी रखते हुए पूछा ।
-नहीं । अन्धी क़ौम को आईना दिखाने का कोई लाभ नहीं ।
-तो इस का मतलब, तुम ’हानि-लाभ’ देख कर लिखने का व्यापार करते हो ?-जज साहब नोट किया जाए ।यह आदमी  बिना ’लाईसेन्स’ का व्यापार करता है -इस पर "अवैध व्यापार’ का केस बनता है।
-नहीं मैं लिखता हूं~

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना  मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
न हो तो , दुष्यन्त कुमार जी से पूछ लीजिए।
-इस हंगामा फ़ित्ना से सूरत बदली क्या ? -वकील साहब ने पूछा --तुम्हारे लेखन से समाज का भला हुआ क्या ? .लोग पढ़ते है और कहते हैं ’मज़ा आ गया ’....क्या बखिया उधेड़ी है....क्या जम कर धुलाई की है...क्या ’लतियाया है ? पानी पिला दिया .मज़ा आ गया .. बस यही न ? तुम्हारे लिखने से समाज से  भ्रष्टाचार मिट गया क्या...?? समाज सुधर गया.क्या .?? नहीं न ,तो फिर क्यों लिखते हो....?.
मैने कहा -वकील साहब !

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली खून से तर और ज़्यादा  बेक़रार

वकील साहब ने लगभग चीखते हुए कहा -’ जज साहब ! यह आदमी ’खून-ख़राबे’ की बात कर रहा है ।नोट किया जाय।
हाँ तो -और कौन कौन से लोग हैं तुम्हारे ’गिरोह’ में जिस से तुम्हें इस प्रकार के ’आतंकी ’कामों में मदद मिलती है ?
-गिरोह नहीं है ,’वर्ग’ कहिए वकील साहब ’वर्ग’। ..प्रेरणा  मिलती है। ,. बहुतेरे हैं । हम अकेले नहीं है ---हरिशंकर परसाई जी है...शरद जोशी जी है ..गोपाल चतुर्वेदी ..लतीफ़ घोंघी.. ...ज्ञान  चतुर्वेदी ...... शौक़त थानवी-- कृशन चन्दर.. फ़्रिंक तौंसवी --किन किन का नाम गिनाउँ..कहाँ तक गिनाऊँ ?...और गिनाऊँ क्या....
-अरे भूतिए ! इन विभूतियों के नाम अपने नाम के साथ क्यों घसीट रहा है ? ये महान विभूतियां है ..सम्मानित विभूतियाँ है ...पुरस्कॄति विभूतियां है ..ये समाज सुधारते है ..ये तुम्हारी जैसी गंदगी नहीं फैलाते.।
-तो क्या हुआ ? दर्द तो एक जैसा है ....प्यास तो एक जैसी है...
- हा हा हा ! ’ प्यास’ एक जैसी है ? अच्छा तो पैसे के मामले में तुम्हारी ’प्यास’ और अदानी -अंबानी माल्या...बियानी की ’ प्यास’ एक जैसी है क्या ???
--आर्डर आर्डर आर्डर...जज साहब ने 3-4 बार अपना हथौड़ा ठक ठकाया ।आप सिर्फ़ काम की ही बातें पूछें । फ़ालतू बातों से अदालत का वक़्त ज़ाया न करे॥--जज साहब ने हिदायत की ।
-अरे वकील स्साब ! यह मुजरिम टटपूंजिया ही सही ।पर है व्यंग्य लेखक वकील स्साब ...व्यंग्य लेखक। -आप बहस में इस से नहीं जीत पायेंगे"--- वादी पक्ष के लोगो ने अलग से नसीहत की ।
आर्डर आर्डर आर्डर...जज साहब ने 3-4 बार अपना हथौड़ा फिर ठक ठकाया --जज साहब ने कहा -हो गया ,हो गया । बहस पूरी हो गई।
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जज साहब ने अपना फ़ैसला सुनाया-- ’तमाम गवाहों के बयानात को मद्दे नज़र रखते हुए और मुज़रिम के बयानात को दरकिनार करते हुए अदालत इस नतीज़े पर पहुँची है कि मुज़रिम अपने लेखन से समाज में चेतना फैलाने की कोशिश कर रहा है। इस चेतना से जनता में क्रान्ति के बीज पड़ सकते है ।..जनता आन्दोलन कर सकती है। ,,बगावत कर सकती है अत: ऐसे लेखकों का ’बाहर ’रहना या ’रखना ’ जनहित में उचित नहीं है।समाज के लिए ठीक नहीं है । साथ ही यह अदालत इस लेखक के व्यंग्य लेखन की ’नौसिखुआपन्ती’ और ’ कच्चापना’  के देखते हुए  और सहानुभूतिपूर्वक  विचार करते हुए ताज़िरात-ए-हिन्द की दफ़ा  अलाना..फलाना...चिलाना--ढिकाना और .धारा अमुक अमुक अमुक ......में इसे ’अन्दर’ करती है और 3-महीने की क़ैद-ए-बा मशक्कत  की सज़ा देती है ।
-तुम्हें इस सज़ा के बारे में कुछ कहना है ?- जज साहब ने पूछा ।
"हुज़ूर ..जेल में मुझे कुछ सादे पन्ने मुहैय्या कराने की इज़ाजत दी जाये-मैने  गुज़ारिश की
-मंज़ूर है
-और एक अदद ’कलम’ भी
-नहींईईईईईई........ जज साहब की अचानक चीख निकल गई ...."नहीं ,’कलम’ की इज़ाजत नहीं दी जा सकती ...’कलम’ लेखक का घातक हथियार होता है और जेल में ’घातक हथियार’ रखने की इज़ाजत नही है।
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वादी पक्ष ने तालियाँ बजाई ।.जज साहब की जय हो. ।.एक और आईनादार ’अन्दर ’ गया ।.साहब ने सज़ा नहीं , सज़ा-ए-मौत सुनाई है ।---अगर सच्चा लेखक होगा तो 3-महीने में बिना "क़लम’ के  यूँ ही मर जायेगा वरना तो ये भी कोई ’टाइम-पासू"-लेखक होगा ।
अस्तु

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

एक ग़ज़ल : तुम्हारे हुस्न से --

 एक ग़ज़ल : तुम्हारे हुस्न से ---



तुम्हारे हुस्न से जलतीं हैं ,कुछ हूरें  भी जन्नत  में ,

ये रश्क़-ए-माह-ए-कामिल है,फ़लक जलता अदावत में ।


तेरी उल्फ़त ज़ियादा तो मेरी उलफ़त है क्या कमतर ?

ज़ियादा कम का मसला तो नहीं होता है उल्फ़त में ।


पहाडों से चली नदियाँ बना कर रास्ता अपना ,

तो डरना क्या  ,फ़ना होना है जब राह-ए-मुहब्बत में ।


वही आदत पुरानी है तुम्हारी आज तक ,जानम !

गँवाया वक़्त मिलने का ,गिला शिकवा शिकायत में ।


चिराग़ों को मिला करती हवाओं से सदा धमकी ,

नहीं डरते, नहीं बुझते, ये शामिल उनकी आदत में ।


उन्हें भी रोशनी देगी जो थक कर हार कर बैठे ,

मेरा जब ज़िक्र आयेगा ज़माने की हिकायत में ।


जहाँ सर झुक गया ’आनन’ वहीं काबा,वहीं काशी ,

वो खुद ही आएँगे चलकर बड़ी ताक़त मुहब्बत में ।


-आनन्द.पाठक-