सोमवार, 31 जनवरी 2022
कैसा सिलसिला है ओ जानां
शनिवार, 29 जनवरी 2022
वाजिद वाणी
वाजिद के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. शायद वह राजपुताना के
रहने वाले एक गरीब पठान थे. ऐसी मान्यता है कि वाजिद एक बार शिकार करने गये. एक
हिरणी का पीछा कर रहे थे. हिरणी अचानक उछली. पल भर के लिए जब वह हवा में थी उसका
सौन्दर्य देख कर वाजिद चकित हो गये. भीतर कुछ हुआ. फिर घर न लौट पाए. ईश्वर की खोज
में घूमते रहे. संत दादू दयाल (१५४४-१६०३) के शिष्य भी बने.
वाजिद के वचन अनमोल है. वह किसी पढ़े-लिखे पंडित या ज्ञानी के शब्द
नहीं हैं, पर हर शब्द एक बहुमूल्य मोती है. उनके कुछ वचन सांझा कर रहा हूँ.
अरध नाम पाषाण तिरे नर लोई रे,
तेरा नाम कह्यो कलि माहिं न बुड़े कोई रे.
कर्म सुक्रति इकवार विले हो जाहिंगे,
हरि हाँ वाजिद, हस्ती के असवार न कूकर खाहिंगे.
राम नाम की लूट फवी है जीव कूँ,
निसवासर वाजिद सुमरता पीव कूँ.
यही बात परसिध कहत सब गाँव रे,
हरि हाँ वाजिद, अधम अजामेल तिरयो नारायण नांव
रे.
कहिये जाय सलाम हमारी राम कूँ,
नेण रहे झड़ लाये तुम्हारे नाम कूँ.
कमल गया कुमलाय कल्यां भी जायसी,
हरि हाँ वाजिद, इस बाड़ी में बहुरि भँवरा ना
आयसी.
चटक चाँदनी रात बिछाया ढोलिया
भर भादव की रैण पपीहा बोलिया.
कोयल सबद सुनाय रामरस लेत है,
हरि हाँ वाजिद, दाज्यो ऊपर लूण पपीहा देत है.
रैण सवाई वार पपीहा रटत है,
ज्यूँ ज्यूँ सुणिऐ कान करेजा फटत है.
खान पान वाजिद सुहात न जीव रे,
हरि हाँ, फूल भये सम सूल बिनावा पीव रे.
पंछी एक संदेसा कहो उस पीव सूँ,
विरहनि है बेहाल जायगी जीव सूँ.
सींचनहार सुदूर सूक भई लाकरी,
हरि हाँ वाजिद, घर में ही बन कियो बियोगिन
बापरी.
बालम बस्यो बिदेस भयावह भौन है,
सौवे पाँव पसार जू ऐसी कौन है.
अति है कठिन यह रैण बीतती जीव कूँ,
हरि हाँ वाजिद, कोई चतुर सुजान कहै जाय पीव
कूँ.
वाजिद के यह अमूल्य शब्द उस भक्त की पीड़ा को व्यक्त कर रहे हैं जो
अपने प्रभु को पाने किये तड़प रहा है. पपीहे के बोल भी उसके मन में चुभते हैं. राम
नाम की लूट मची है, पर वह अभी भी उनके दर्शन से वंचित है. अब किसी बात में उसका मन
नहीं लगता. वह सूख कर लकड़ी हुआ जा रहा है. वन में रह रहे वियोगी समान वह घर में
वियोगी की तरह जी रहा है. हर पल अपने प्रियतम को पुकार रहा. हरि दर्शन के बिना
जीना कठिन होता जा रहा है. उसकी यही आस है कि कोई सुजान (अर्थात वह सद्गुरु जिसने हरि
के दर्शन कर लिये हैं) उसकी पुकार को उसके प्रियतम तक पहुँचा दे.
********
शनिवार, 22 जनवरी 2022
सहजो वाणी
हमारे देश में मीरा बाई से लगभग सभी लोग परिचित हैं. उनके कुछ भजनों को तो शिक्षा संस्थानों ने पाठ्य क्रम में भी स्थान दिया है. परन्तु राजपुताना की और संत थीं जिनके विषय बहुत कम लोग जानते हैं. अधिकाँश ने उनका नाम भी नहीं सुना होगा. वह हैं सहजो बाई. वह संत चरण दास जी की शिष्या थीं. उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे लगभग कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, परन्तु सहजो बाई का एक-एक वचन अनमोल मोतियों के समान है.
उनके कुछ वचन (जो मैंने कुछ वर्ष पहले आचार्य रजनीश की पुस्तक में पढ़े थे) यहाँ
सांझा कर रहा हूँ.
सहजो सुपने एक पल, बीते बरस पच्चास
आँख खुले सब झूठ है, ऐसे ही घटबास.
(एक पल के सपने में हम कितना समय बिता देते हैं, पर आँख खुलते ही
अहसास होता है कि सब काल्पनिक था. संसार भी एक सपना जो हम खुली आँख से देख रहे
हैं)
जगत तरैया भोर की, सहजो ठहरत नाहिं
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहीं.
(संसार में सब कुछ क्षणिक है, जैसे भोर का तारा जो अभी दिखता और अभी
लुप्त हो जाता या अंजुली में पानी या फूल पर चमकती ओस की बूंद,)
धुआं को सो गढ़ बन्यो, मन में राज संजोये
झाई माई सहजिया कबहू सांच न होये
(धूआँ के बादल उठते है तो उसमें कई प्रकार की आकृतियाँ हम देख लेते
हैं जो वास्तव में हमारे मन ने बनाई होती है. संसार भी इसी तरह मन का खेल है)
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार
सद्गुरु ने आँखे दयीं, निसचै कियो निहार.
(प्रभु सर्व गुण भी हैं और सर्व गुणों से परे भी हैं, सद्गुरु ने मार्ग
दर्शन किया तो ही समझ विचार कर निश्चयपूर्वक यह सत्य जाना)
सहजो हरी बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप
जल पाल में भेद नहीं, ज्यों सूरज अरु धूप
(ईश्वर के अनेक रूप हैं, इन भेदों में उलझने के बजाय इस सत्य को समझो)
चरण दास गुरु की दया, गयो सकल संदेह
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह.
(सद्गुरु की अनुकंपा से संदेह मिटेंगे. जब तक संदेह हैं तब तक
वाद-विवाद है और जीवन में असहजता है)
सहजो बाई इस बात की ओर संकेत कर रही हैं कि हम उन्हीं आँखों से सत्य
या ईश्वर को जानने का प्रयास करते हैं जिन आँखों से हम संसार को देखते और परखते
हैं. इसलिए वाद-विवाद हैं और भेद हैं.
जब सद्गुरु ने मार्गदर्शन किया तो समझ आया कि सब भेद और विवाद हमारे
ही बनाये हैं. जिस सत्य को उन्होंने गुरु की कृपा से निश्चय पूर्वक समझा वह कोई अंध
विश्वास नहीं था.
गुरुवार, 20 जनवरी 2022
चन्द माहिए
चन्द माहिए :
:1:
ये इश्क़ है जान-ए-जां,
तुम ने क्या समझा
यह राह बड़ी आसां ?
:2:
ख़ामोश निगाहें भी,
कहती रहती हैं
कुछ मन की व्यथायें भी।
:3:
कुछ ग़म की सौगातें,
जब से गई हो तुम
आँखों में कटी रातें।
:4:
जाने वो किधर रहता?
एक वही तो है,
जो सब की खबर रखता।
5
क्या जानू किस कारन ?
सावन भी बीता
आए न मेरे साजन ।
-आनन्द पाठक-
गुरुवार, 13 जनवरी 2022
लोहड़ी का पर्व और अतीत की कुछ यादें
लोहड़ी का पर्व देश के कई भागों में
धूमधाम से मनाया जाता है. पर जिस रूप में यह त्यौहार कभी मेरे जन्म-स्थान जम्मू
में मनाया जाता था वह रूप सबसे अलग और निराला था.
लोहड़ी से कई दिन पहले ही लड़कों की
टोलियाँ बन जाती थी हर टोली मैं पाँच-सात लड़के होते थे . हर टोली एक सुंदर “छज्जा”
(यह डोगरी भाषा का शब्द है और हो सकता है इसको लिखने में थोड़ी चूक हो गई हो) बनाती
थी. पतले बांसों को बाँध कर एक लगभग गोलाकार फ्रेम बनाया जाता था जिसका व्यास साथ-आठ
फुट होता था. फ्रेम पर गत्ते के टुकड़े बाँध दिए जाते थे, जिनपर रंग-बिरंगे कागज़ों
से बने फूल या पत्ते या अन्य आकृतियों को चिपका दिया जाता था. सारे फ्रेम को रंगों
से और कागज़ की बनी चीज़ों से इस तरह भर दिया जाता था कि एक आकर्षक, मनमोहक पैटर्न
बन जाता था. फ्रेम के निचले हिस्से में एक मोर बनाया जाता.
पूरा होने पर ऐसा आभास होता था कि जैसे एक मोर अपने पंख फैला कर नृत्य कर रहा हो.
इसे बनाने में लड़कों में होड़ सी लग
जाती थी. हर कोई अपनी कला और शिल्प का प्रदर्शन करने को उत्सुक होता था. आमतोर पर हर
टोली अपने कलाकृति के लिए कोई थीम चुनती थी और अपने ‘छज्जे’ को अधिक से अधिक सुंदर और आकर्षक
बनाने की चेष्टा करती थी.
लोहड़ी के दिन एक या दो ढोल बजाने वाले
साथ लेकर हर टोली हर उस घर में जाती थी जहाँ बीते वर्ष में किसी लड़के का विवाह हुआ
होता था या जिस घर में लड़के का जन्म हुआ होता था. टोली उस घर में अपनी कलाकृति का
प्रदर्शन करती थी, ढोल की थाप पर नाचती थी. परिवार को लोग टोली को ईनाम स्वरूप कुछ
रूपये देते थे.
ऐसा घरों में सारा दिन खूब रौनक रहती
थी. दिन समाप्त होते-होते अधिकाँश टोलियाँ अपनी कला-कृतियाँ लेकर राज महल (जिसे
आजकल शायद हरी पैलेस कहते हैं) जाया करती थीं और वहाँ इनका प्रदर्शन करती थीं. कुछ
टोलियाँ तो दिन में ही वहाँ चली जाती थीं. अगर डॉक्टर कर्ण सिंह (जो लंबे समय तक
वहाँ के सदरे रियासत/ गवर्नर और बाद में केंद्रीय मंत्री रहे) महल में होते थे, वह
बाहर आकर लड़कों का प्रोत्साहन करते उन्हें कुछ भेंट वगेरह देते.
पर अस्सी के दशक में धीरे-धीरे त्यौहार
को इस रूप में मनाने का चलन कम होने लगा और नब्बे का दशक आते-आते पूरी तरह समाप्त हो गया. आज के लड़कों को तो पता भी न होगा
कि कभी लोहड़ी ऐसा त्यौहार था जिसकी प्रतीक्षा लड़के महीनों से करते थे और अपनी कला
और कारीगरी दिखाने के लिए बहुत ही उत्सुक होते थे.
मुझे नहीं लगता कि जम्मू के बाहर कहीं
भी लोहड़ी उस रूप में मनाई जाती थी जिस रूप में मैंने उसे अपने बचपन में देखा था.
जम्मू की लोहड़ी की छटा ही अनूठी थी. अब तो बस यादें बची हैं.
सभी पाठकों को लोहड़ी की हार्थिक बधाई
और शुभ कामनाएं .
बुधवार, 5 जनवरी 2022
नए साहब का आदेश
नए साहब नौ बजे ही कार्यालय पहुँच गये.
उनका पहला दिन था और वह किसी को सूचना दिए बिना ही आ गये थे. लेकिन नौ बजे तक तो
सफाई कर्मचारी भी न आते थे. निर्मल सिंह ही अगर नौ बजे पहुँच जाता तो वही बड़ी बात
थी. उसी के पास मेनगेट के ताले की चाबी होती थी. वही कार्यालय का ताला खोलता था.
उसके बाद ही सफाई कर्मचारी आते थे. लगभग दस बजे अन्य कर्मचारियों का आगमन होता था.
एक बार तो ऐसा हुआ कि निर्मल सिंह
बीमार हो गया और आया ही नहीं. साहब कहीं दौरे पर गये हुए थे, सभी कर्मचारी
निश्चिन्त भाव से दस बजे के बाद ही आने शुरू हुए. मेनगेट पर ताला देख कर सब
एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे. धीरे-धीरे अच्छी-खासी बहस छिड़ गई कि किसे निर्मल सिंह
के घर जाकर चाबी लानी चाहिए. निर्मल सिंह का घर सौ मीटर दूर भी न था पर प्रश्न
दूरी का न था, नियमों का था. बहस लंबी चली और किसी निष्कर्ष पर न पहुँची. लगभग
बारह बजे निर्मल सिंह की पत्नी आकर चाबी दे गई और तभी कार्यालय खुला.
उस दिन (जिस दिन नए साहब पहली बार आये)
निर्मल सिंह ने साहब को गेट के पास खड़े पाया तो बड़े अदब से बोला, “अरे भाई, इतनी
जल्दी आ गये. अभी तो बाबुओं के आने का समय नहीं हुआ. मुझ बदनसीब के सिवाय कोई दस
बजे से पहले नहीं आता. घंटे-डेढ़ घंटे बाद आना. वैसे काम क्या है? किस बाबू से
मिलना है?”
निर्मल सिंह ने उन्हें कोई फरियादी समझ
लिया था. साहब ने उसे ऐसे घूर कर देखा कि जैसे वह किसी अन्य लोक का प्राणी था. फिर
गरज कर कहा, “ दरवाज़ा खोलो, अभी!”
निर्मल सिंह सहम गया. उसे लगा कि कोई
गलती कर बैठा था. उसके हाथ कांपने लगे और चाबी हाथ से फिसल कर नीचे जा गिरी.
जैसे-तैसे कर उसने दरवाजा खोला.
साहब ने कार्यभार संभालते ही पहला आदेश
जारी किया कि हर कर्मचारी नौ बज कर दस मिनट से पहले ही कार्यालय पहुँच जाए और हर दिन
नौ बज कर दस मिनट पर उपस्थिति रजिस्टर उनके पास भेज दिया जाए.
औरों की भांति तरसीम लाल ने भी आदेश का
अवलोकन कर आदेश पुस्तिका पर हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन औरों की तरह वह चुप न रहा.
सीधा बड़े बाबू के पास आया.
“यह क्या हो रहा है, बड़े बाबू?”
“क्या हो रहा है? आप ही बताएं?” बड़े बाबू
ने टालने के अंदाज़ में कहा.
“इस आदेश का अर्थ क्या है? तीस वर्ष हो
गये मुझे यहाँ काम करते हुए पर आजतक किसी साहब ने ऐसा आदेश नहीं दिया,” तरसीम लाल टलने
वाले प्राणी न था.
“नियमानुसार तो हर सरकारी कर्मचारी को
नौ बजे दफ्तर आ जाना चाहिए. इसमें इतना हैरान होने वाली क्या बात है,” बड़े बाबु ने
कहा.
“नियमानुसार तो बहुत कुछ होना चाहिए,
पर क्या सब वैसा ही होता है इस देश में,” तरसीम लाल ने बड़े नाटकीय ढंग से कहा.
“साहब का आदेश है कि नौ-दस पर उपस्थिति
पुस्तिका उनके पास भेज दी जाए. कल से वैसा ही होगा. अब आप जाने और आपके नये साहब
जाने,” बड़े बाबू ने पल्ला झाड़ते हुए कहा.
इस बहस को कई लोग ध्यान से सुन रहे थे,
खासकर महिलायें. सब लोग परेशान थे.
“यह अन्याय है. मेरा तो अभी से बीपी
बढ़ने लगा है.”
“मैं तो दस से पहले निकल ही नहीं सकती,
सासु माँ का हुकुम है, नौकरी करनी है तो सारा काम निपटा कर ही घर से निकलूं.”
“मुझे तो यह अपने स्कूटर पर छोड़ जाते
हैं पर श्रीमान जी दस बजे तो सजना-संवारना शुरू करते हैं.”
“यह यूनियन वाले क्या कर रहे हैं?”
“नकारे हैं वह लोग, साहबों के तलवे
चाटते हैं.”
यूनियन को इस आदेश की सूचना मिल गई थी.
निर्मल सिंह ने ही जनरल सेक्रेटरी को फोन करके बताया था. वहाँ भी बहस हो रही थी.
“डीओ का घेराव करना चाहिए.”
“नहीं, इस मामले में हम कुछ नहीं कर
सकते. साहब का आदेश गलत नहीं है.”
“तो क्या हुआ? हम ऐसी तानाशाही नहीं
चलने दे सकते. ऐसे साहबों को ठीक करने के और भी तरीके हैं. भूल गये उस जैन को कैसे
रास्ते पर लाये थे? बस एक फाइल इधर से उधर हुई थी और कैसी फजीहत हुई थी उसकी.”
“वो सब बातें रहने दो. मेरा तो सुझाव
है कि अभी हमें कुछ नहीं करना चाहिए. वैसे भी डीओ मैं बैठे लोग अपने को तुर्रमखां
समझते हैं. उसी तरसीम को देखो, पन्द्रह सालों से वहीं है, जबकि पाँच सालों में
उसकी बदली हो जानी चाहिए थी.”
“आप ठीक कह रहे हैं, यह लोग न तो समय
पर यूनियन का चंदा देते हैं और न ही कभी यूनियन की किसी मीटिंग में आते हैं. इनकी
चर्बी थोड़ी पिघलने देते हैं.”
इधर यूनियन वाले अपना सिक्का चलाने की
फिराक में थे और उधर तरसीम लाल एक बाबू को समझा रहा था. वह लड़का दो साल पहले ही
भर्ती हुआ था और थोड़ा घबराया हुआ था.
“अरे, तुम अभी कल के आये छोकरे हो.
मुझे देखो, तीस साल की सर्विस हो गई है. डरने की कोई बात नहीं है. दो-चार दिन की
बात है. फिर सब कुछ अपनी चिर-परिचित गति पर आ जाएगा,” तरसीम लाल ने भविष्यवाणी की.
“ऐसी बात है तो आप बड़े बाबू से उलझ
क्यों रहे थे?”
“यह राजनीति अभी तुम समझ नहीं पाओगे,”
तरसीम लाल ने कहा और ऐसे मुस्कराया जैसी उसने कोई बड़ी गूढ़ बात कही थी.
साहब के आदेश का पालन हुआ. जिस दिन
आदेश जारी हुआ था उसके अगले दिन चालीस में से पन्द्रह लोग ही नौ बजे आये, बाकी सब
देर से आये. साहब ने बड़े बाबू से कहा कि देर से आने वालों से स्पष्टीकरण माँगा
जाए. सबने स्पष्टीकरण देने के लिए समय माँगा. यह स्पष्टीकरण अभी आये ही न थे कि कई
और स्पष्टीकरण मांगने की आवश्यकता आ खड़ी हुई. किसी भी दिन आठ-दस से अधिक लोग समय
पर दफ्तर नहीं आये थे.
इतने लोगों से स्पष्टीकरण माँगना, उन
पर टिप्पणी करना, आकस्मिक अवकाश काटना, अवकाशों का हिसाब रखना, सब कुछ बड़े बाबू को
करना पड़ता था. इतना सब करने के बाद रोज़मर्रा का अपना काम भी समय पर करना पड़ता था.
इस कारण कई महत्वपूर्ण मामले लंबित होने लगे. हार कर उन्होंने साहब के सामने अपनी
व्यथा व्यक्त की और सुझाव दिया कि उपस्थिति का हिसाब रखने का काम किसी वरिष्ठ बाबू
को सौंप दिया जाए.
देरी से निपटाए गए मामलों को लेकर साहब
अपने साहब से डांट खा चुके थे, इसलिए वह भी इस झंझट से झुटकारा पाना चाहते थे, अत:
बड़े बाबू से बोले कि जो उचित लगे वह करें.
बड़े बाबू इसी निर्देश की प्रतीक्षा में
थे. उन्होंने तुरंत यह काम तरसीम लाल को सौंप दिया.
तरसीम लाल झल्लाया और उसने साफ़ कह दिया
कि वह अपने काम के बोझ के तले पिसा जा रहा था. “पहले ही आपने मुझे दो बाबुओं का
काम दे रखा है. लेकिन बड़े बाबू में आपका बहुत सम्मान करता हूँ. इसलिए यह
ज़िम्मेवारी स्वीकार कर रहा हूँ.”
उसी दिन से तरसीम लाल बुरी तरह व्यस्त
रहने लगा है, इतना व्यस्त कि उपस्थिति पुस्तिका बड़े साहब के पास भेजने का भी उसके
पास समय नहीं है. देर से आने वालों से स्पष्टीकरण मांगने का तो प्रश्न ही नहीं
उठता.
साहब भी काम में इतने उलझ से गये हैं
कि अकसर देर तक अपने दफ्तर में बैठे फाइलें देखते रहते हैं. अब चूँकि वह देर से घर
जाते हैं इसलिए सुबह देर से कार्यालय आ पाते हैं.
बस बीच-बीच में बड़े बाबू से पूछ लेते
हैं कि क्या सब समय पर आ जाते हैं, क्या देर से आने वालों के विरुद्ध उचित कारवाही
हो रही है, क्या अनुशासन का पूरा पालन हो रहा है.
बड़े बाबू सिर हिला कर ‘येस सर’ ‘येस
सर’ कहते रहते हैं. यह देखकर की बात बिगड़ नहीं रही यूनियन वालों ने एक नोटिस भेज
दिया है जो साहब की मेज़ पर लम्बित पड़ा है. सब मज़े से हैं क्योंकि सब कुछ अपनी
चिर-परिचित गति पर चल रहा है.
(इस व्यंग्य लेख में लिखी कुछ घटनाएँ
सत्य है.)
मंगलवार, 4 जनवरी 2022
एक ग़ज़ल : आप के आने से पहले--
एक ग़ज़ल
आप के आने से पहले आ गई ख़ुश्बू इधर,
ख़ैरमक़्दम के लिए मैने झुका ली है नज़र ।
यह मेरा सोज़-ए-दुरूँ, यह शौक़-ए-गुलबोसी मेरा,
अहल-ए-दुनिया को नहीं होगी कभी इसकी ख़बर ।
नाम भी ,एहसास भी, ख़ुश्बू-सा है वह पास भी,
दिल उसी की याद में है मुब्तिला शाम-ओ-सहर ।
तुम उठा दोगे मुझे जो आस्तान-ए-इश्क़ से ,
फिर तुम्हारा चाहने वाला कहो जाए किधर ?
बेनियाज़ी , बेरुख़ी तो ठीक है लेकिन कभी ,
देख लो हालात-ए-दुनिया आसमाँ से तुम उतर कर ।
यह मुहब्बत का असर या इश्क़ का जादू कहें,
आदमी में ’आदमीयत’ अब लगी आने नज़र ।-
शेख़ जी ! क्या पूछते हो आप ’आनन’ का पता ?
बुतकदे में वह कहीं होगा पड़ा थामे जिगर।-
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
सोज़-ए-दुरुँ = हृदय की आन्तरिक वेदना
शौक़-ए-गुलबोसी = फूलों को चूमने की तमन्ना
अहल-ए-दुनिया को = दुनिया वालों को
ट्रेन
सारा
दिन वह अपने-आप को किसी न किसी बात में व्यस्त रखता था; पुराने टूटे हुए खिलौनों
में, पेंसिल के छोटे से टुकड़े में, एक मैले से आधे कंचे में या एक फटी हुई फुटबाल
में. लेकिन शाम होते वह अधीर हो जाता था.
लगभग
हर दिन सूर्यास्त के बाद वह छत पार आ जाता था और घर से थोड़ी दूर आती-जाती
रेलगाड़ियों को देखता रहता था.
“क्या
पापा वो गाड़ी चला रहे हैं?”
“शायद,”
माँ की आवाज़ बिलकुल दबी सी होती.
“आज
पापा घर आयेंगे?” हर बार यह प्रश्न माँ को डरा जाता था.
“नहीं.”
“कल?”
“नहीं.”
“अगले
महीने?”
“शायद?”
“वह
कब से घर नहीं आये. सबके पापा हर दिन घर आते हैं.”
“वह
ट्रेन ड्राईवर हैं और ट्रेन तो हर दिन चलती है.”
“फिर
भी.”
माँ
ने अपने लड़के की और देखा, वह मुरझा सा गया था. उसकी आँखें शायद भरी हुई थीं. माँ
भी अपने आंसू न रोक पाई.
‘मैं
कब तक इसे सत्य से बचा कर रखूँगी?’ मन में उठते इस प्रश्न का माँ सामना नहीं कर
सकती थी. इस प्रश्न को माँ ने मन में ही दबा दिया.