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शनिवार, 31 अगस्त 2013

श्रीमदभागवत गीता चौदहवाँ अध्याय (श्लोक १ - ५ )

श्रीमदभागवत गीता चौदहवाँ अध्याय (श्लोक १ - ५ )

(१ )भगवान् बोले -समस्त ज्ञानों में उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर से कहूंगा ,जिसे जानकार सब साधकों ने इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि प्राप्त की है। 

The Lord said :

I shall impart you another knowledge which is the best of all kinds of Higher knowledge ,acquainted with which the sages have attained the highest perfection transcending this world .

(2 )इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप को प्राप्त मनुष्य सृष्टि के आदि में पुनर्जन्म नहीं लेते तथा प्रलय काल में भी व्यथित नहीं होते। 

Those who recourse to this knowledge ,attain similitude with Me and are not born even at the time of creation nor destructed at the time of dissolution .

( ३ )हे अर्जुन। मेरी महद्ब्रह्म  रूप प्रकृति सभी प्राणियों की योनि  है ,जिसमें मैं चेतन रूप बीज डालकर (जड़ और चेतन के संयोग से )समस्त भूतों (शरीरधारियों )की उत्पत्ति करता हूँ। 

माया द्वारा उत्पन्न प्रकृति महद्ब्रह्म  का स्रोत है ,मूल है ,बुनियाद है। अत :प्रकृति को महद्ब्रह्म भी कहा गया है। महद्ब्रह्म के कई नाम हैं ,यथा महत ,महतत्त्व ,परमबुद्धि और वैश्विक मनस। जब प्रकृति में पुरुष का बीज अंकुरित होने के लिए बोया जाता है ,तब प्रकृति सृष्टि की रचना करती है। 
अध्यात्म में पुरुष का एक अर्थ आत्मा भी बतलाया गया है प्रकृति एक अर्थ शरीर भी कहा गया है. 

O!Arjuna !The Prakriti (The MahatBrahman ) from which the universe is born is in my possession .In it I cast the seed of 'living -multitude '.The origin of all the embodied beings emanate from the association of these two .  

(४ )हे कुंती पुत्र ,सभी योनियों में जितने शरीर पैदा होते हैं ,प्रकृति उन सबकी माता है और मैं चेतना देने वाला पिता हूँ। 

O Arjuna !Among all the species of beings whatever living forms originate ,the Prakriti is the cause and I am the seed -bestowing progenitor .

(५ )हे अर्जुन प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणरुपी  रस्सी -सत्व ,रजस और तमस -अविनाशी जीव को देह के साथ बाँध देते हैं। 

O Arjuna !The Sattva ,Rajas ,and Tamas are the gunas inherent of Prakriti .They fasten the immutable self in the body .

भगवतगीता दूसरा अध्याय श्लोक (७० -७२ )

भगवतगीता दूसरा अध्याय श्लोक (७० -७२ )

(७ ० )जैसे हर ओर  से भरे हुए समन्दर में नदियों का जल उसे बिना विचलित किये समा जाता है। समुन्दर में कभी बाढ़ नहीं आती है  वैसे ही स्थिर बुद्धि व्यक्ति क्षुद्र दुखों के  आने से कभी विचलित नहीं होता है। और न ही सुख में इतराता है। जबकि क्षुद्र लोग बरसाती नदियों की तरह ज़रा सा सुख भी जीवन में आ जाए तो इतराने लगते हैं फूल के कुप्पा हो जाते हैं। जब तक हम संसार की हर छोटी छोटी वस्तु को अपनी मानते रहेंगे यह क्षुद्रता हमारे अन्दर बनी रहेगी। हम छोटे छोटे दुखों से विचलित होते रहेंगे। 

जो व्यक्ति भगवान् से जुड़ा है उसमें समुन्द्र जैसी  ही विराटता पैदा हो जायेगी। छोटे बड़े दुःख उसे विचलित नहीं करेंगे। जिस पुरुष में सारे भोग उसे विचलित किये बिना गुजर जाते हैं वही स्थिर प्रज्ञ है। 

(७ १ )वही व्यक्ति शान्ति को प्राप्त होता है जो अपनी सभी मन की कामनाओं को छोड़ देता है। जो पकड़े  रहता है उसके मन में शान्ति नहीं रह सकती। जो व्यक्ति कामनाओं को पड़े रहता है बस अपने मन को अशांत कर देता है। लेकिन जब व्यक्ति सारी उम्मीदों अपेक्षाओं से अलग हो जाता है उसका मन शांत हो जाता है। जिस घर को बच्चों को वह अपना समझ रहा है वही अशांति का कारण बनते हैं। जब इन्हें भगवान् का मानेगा तब शान्ति आयेगी। 

कामनाएं ,उम्मीदें ,मेरापन  और अहंकार ये चार चीज़ें ही हमें  अशांत करतीं हैं। आसक्ति और मोह का खतम होना ही निर्मम होना है। जब व्यक्ति किसी से कोई उम्मीद ही नहीं रखेगा तब  उसका मन शांत हो जाएगा।  

(७२ )जो व्यक्ति ऐसी (उपर्युक्त उल्लेखित )स्थिति में जीयेगा वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाएगा  ,स्वयं के निज आत्म स्वरूप को पहचान लेगा।भगवान् कहते हैं - हे पार्थ जब इन आचरणों को कोई व्यक्ति अपने जीवन में उतार लेता है फिर वह मोहित  नहीं होता है। किसी के भी द्वारा बांधा नहीं जा सकता। व्यक्ति यदि अंत समय में भी जीवन की शाम जब होने को है यदि इस स्थिति को प्राप्त होता है तो भी वह फिर ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाता है। 

इस प्रकार यह दूसरा अध्याय हमने भगवान् को अर्पित किया। इस प्रकार सांख्य  योग नामक दूसरा अध्याय पूर्ण होता है। 

विहंगावलोकन -

श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय( श्लोक ६६ -७० ) 

(६ ६  )(ईशवर से) अ -युक्त मनुष्य के अंत :करण में न ईश्वर का ज्ञान होता है ,न ईश्वर की भावना ही। भावना हीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ ?

(६७  )जैसे जल में तैरती नाव को तूफ़ान उसके लक्ष्य से दूर धकेल देता है वैसे ही इन्द्रिय -सुख मनुष्य की बुद्धि को गलत रास्ते की ओर  ले जाता  है। 

(६८ )इसलिए ,हे अर्जुन ,जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा विषयों के वश में नहीं होती हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। 

(६९ )सब प्राणियों के लिए जो यात्री है ,उसमें संयमी मनुष्य जागा रहता है ;और जब साधारण मनुष्य जागते हैं ,तत्वदर्शी मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है। 



(७० )जैसे सभी नदियों के जल समुद्र को विचलित किए बिना परिपूर्ण समुद्र में समा जाते हैं ,वैसे ही सब भोग जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह मनुष्य शान्ति प्राप्त करता है ,न कि भोगों की कामना करने वाला। 

भाव विस्तार : जो व्यक्ति अन्दर से अशांत है उसके पास सुख कहाँ। फिर शान्ति भी कहाँ से आयेगी उसके पास। ४२० लोगों के पास तामसिक बुद्धि है। वह बुद्धि सात्विक होती है जो हमें ईश्वर की तरफ ले जाती है अध्यात्म  की ओर तत्व ज्ञान की ओर ले जाती है ,पवित्रता की तरफ ले जाती है। जो व्यक्ति सद मार्ग  से जुड़ा हुआ नहीं है परमात्मा से जुड़ा न होकर संसार से जुड़ा हुआ है उसके पास सत्य से प्रेरित बुद्धि नहीं होती। जो व्यक्ति अच्छे गुणों से भरा हुआ है वही योग्य है। जब हमारे पास ये सब गुण नहीं होंगें तब हमें त्रिकाल  में भी सुख -शांति नहीं मिलेगी। जिसके जीवन में विवेक और सदबुद्धि का अभाव है वह व्यक्ति अन्दर से अशांत होगा। 

जैसे जल में चलने वाली नाव को झंझा अपनी ओर खींच लेती है अपनी ओर बहाके ले जाती है वैसे ही विषयों में विचरण करती इन्द्रियों में से मन जिसके साथ रहता है ,बुद्धि भी फिर भ्रष्ट होकर उसी तरफ चल देती है। वही इन्द्रिय सक्रीय हो जाती है जिसे मन की शह मिलती है। इसलिए बहुत सावधानी के साथ मनुष्य को पदार्थ में इन्द्रियों के विषयों में विचरण करना चाहिए  . मन अयोग्य व्यक्ति की बुद्धि को वश में कर लेता है। वैसे ही जैसे तेज़ हवा तूफ़ान नाव को अपनी ओर  खींच ले जाती है। जैसे भोजन स्वादिष्ट होने पर जीभ कहती है वाह क्या बात है ,मन कहता है चलो और आने दो ,बुद्धि भी उसी पाले में फिर खिसक के चली आती है। 

भगवान् कहते हैं ,हे महाबाहु जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ हर प्रकार के विषयों से सदबुद्धि ,सत संग ,द्वारा कंट्रोल कर ली गईं हैं उसी की बुद्धि स्थिर होगी। व्यक्ति के जीवन की नाव फिर भगवान् की ओर  लगेगी।  संसार के विषयों के जो पदार्थ हैं वह उस पर हावी न होंगे। क्योंकि महापुरुषों और शाश्त्रों का ज्ञान उसके संग हैं। 

भगवान् कह रहे हैं जो काल सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि के समान है उसमें स्थित प्रज्ञा जागता है। प्रभु स्मरण करता है क्योंकि रात के समय प्रकृति भी शांत होती है टेलीफोन काल भी जल्दी लग जाती है। भक्ति का उपयुक्त समय रात्रि ही है। रात में रास्ता भी जल्दी कटता है दिन में तरह तरह की चीज़ें रोकती हैं। रात में ध्यान जल्दी लगता है। 

जबकि  सांसारिक व्यक्ति उस समय विषयों का चिंतन करता है सुख भोग की योजनायें बनाता है। यहाँ बात अज्ञान की रात्रि की हो रही है ज्ञान के प्रकाश के दिन की  हो रही है। परमात्मा के प्रकाश को जान लेने वाले साधक के लिए दिन रात के समान  है।जिनके पीछे ,जिन चीज़ों के पीछे सांसारिक प्राणि   दिन भर भागते रहते हैं साधक उनके प्रति अनासक्त रहता है। यहाँ मोह रूपा रात और ज्ञान रूपी दिन की बात हो रही है। जब तमोगुणी लोग (रात में )सो जाते हैं साधक परमात्मा की प्राप्ति के लिए तप करता है। उसका प्रयत्न सार्थक होता है। 

जिस प्रकार नदी अपने मार्ग में आये लकड़ी आदि पदार्थों को बहा के ले जाती है ,उसी प्रकार कामनाओं की नदी की प्रचंड (वेगवती )धारा भी ,उद्दाम आवेग भी भौतिक वादी (पदार्थ का चिंतन करने वाले )व्यक्ति के मन को बहाकर ले जाती  है। योगी का मन उस प्रशांत महा सागर की तरह हैं ,जिसमें कामनाओं की सरिताएं बिना उसे मथे ,बिना आंदोलित किए समाहित हो  जाती हैं। मानव कामनाएं अन्नत हैं कामनाओं की पूर्ती का प्रयास पेट्रोल द्वारा आग बुझाने जैसा है। शर्बत और पेप्सी से प्यास बुझती नहीं है और बढ़ जाती है। 

काम वासनाओं की पूर्ती करना वैसा ही है जैसा  और लकड़ी डालकर आग को बुझाना। लकड़ी न डालने से आग स्वत : ही बुझ जाती है। यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं की पूर्ती किए बिना शरीर छोड़ देता है मर जाता है  फिर उसे इनकी पूर्ती के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता  है।जब तक के वह अपने मन को जीत न ले।  जो मन को जीत लेता है वह जनम  मरण से मुक्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। आंदोलित व्यक्ति झील के जल में चाँद ढूँढने के लिए उसे पकड़ने के लिए उसमें छलांग लगा देता है वहां चाँद नहीं है। व्यक्ति वासनाओं के जल में डूब जाता है। ईश्वर की प्राप्ति आंदोलित मन को पराजित मन को नहीं होती है। 

ॐ शान्ति 

  1. Madhuban Murli LIVE - 31/8/2013 (7.05am to 8.05am IST) - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=FrwjpFk5vzU

    14 hours ago - Uploaded by Madhuban Murli Brahma Kumaris
    Murli is the real Nectar for Enlightenment, Empowerment of Self (Soul). Murli is the source of income which ...

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Posted: 29 Aug 2013 10:38 PM PDT
Posted: 29 Aug 2013 10:27 PM PDT








ॐ शान्ति 

विशेष :आगे हम गीता का १४ वां अध्याय का व्याख्या के लिए पहले लेंगे जिसमें कुल २७ श्लोक हैं और गीता का यह एक एहम अध्याय है इसके बाद फिर तीसरे अध्याय पर लौट आयेंगे। ऐसा करने से आपकी दिलचस्पी गीता को समझ लेने में पढ़ते रहने में  और भी पैदा होगी ऐसा हमारा मानना है। दूसरा  और चौदहवाँ गीता का पूरा मर्म खोलके रख देता है। इति । 

(अकथ कहानी प्रेम की ,कहत कहि न जाय , गूंगे केरी सरकरा, खाय और मुसकाय।

व्याख्या :

(१ )चली जो पुतली लोन की ,थाह सिन्धु का लैन ,

      आपुहि गलि पानी भई ,उलटी कहै को बैन। 


       यहाँ समुन्दर परमात्मा की विराटता तथा नोन  (नमक )की कठपुतली आत्मा का प्रतीक है। नमक की डली की नमकीनियत भी परमात्मा से ही है। नमक प्राप्त ही समुन्दर से होता है। उस समुन्दर की थाह नोन की डली ,नोन  की गुडिया कैसे ले सकती है जो उसी का अंश  है।जो परमात्मा की याद में गोते लगाता है वह यादों के समन्दर की तलहटी तक कभी नहीं पहुंच पाता है  बीच में ही उसका मैं उसका होना उसका बींग उसकी इज नेस उसका अहंकार समाप्त हो जाता है।वह खुद उस सिमरनी  का एक मनका बन जाता है।जो उसके प्रेम में डूबने के लिए लोग जपते हैं।  यहाँ अद्वैत के दर्शन हैं। दो का अभाव है एक ही की परम सत्ता की भासना है। जल में कुम्भ कुम्भ में जल है ऊपर नीचे पानी।  

A doll of salt entered the ocean to (fathom )find its depth .It dissolved and turned into salty water . 

God is like an ocean .When a seeker wants  to find His  depth and enters into the region of God ,he himself merges into God .This duality which is necessary to give a report ,does not exist .He can thus say nothing about His depth because that is indescribable. 



(२ )अकथ कहानी प्रेम की ,कहत कहि न जाय ,

      गूंगे केरी सरकरा, खाय और मुसकाय। 


परमात्मा के प्रेम की कथा वर्रण से परे है। हरि अनंत हरि कथा अनंता। सारे समुन्दरों की स्याही और वनों की कलम बनाके भी इस वेलेंटाइन की प्रेम गाथा लिखी जाए तो कोई महाकवि लिख न सके।

परमात्म प्रेम अनुभूति और भाव गंगा का विषय है। अनुभव की बात है। मीठे से भी मीठा है उसका स्वाद गूंगे के गुड़ सा ,गूंगे की शक्कर सा खाय और खुद मीठा हो मुसकाय स्वाद कहा  न जाए। जो परमात्म भक्ति ईश्वर प्रेम का स्वाद चख लेता है उसे फिर कोई और सांसारिक पदार्थ आकर्षित नहीं करता है।उसके अन्दर अन्दर प्रेम मोदक फूटते रहतें हैं वह मुस्काता रहता है गूंगे की तरह बयाँ नहीं कर सकता उस अ -वरणीय परम अनुभूत सुख को। व्यक्ति गूंगा हो जाता है। मौन पराकाष्ठा होती है प्रेम की। प्रेम उत्कर्ष की।जहां सिर्फ परमानंद ही शेष रह जाता है।  

  

(३ )तू तू करता तू भया ,मुझमें रहा न हू ,

     बारि फेरी बलि गई ,जित देखू तित तू। 

यहाँ नाम की महिमा का बखान है। उलटा नाम जपा जप जाना बाल्मीक भये सिद्ध समाना। राम राम जपते कब मैं राम हो गया पता ही न चला। नाम का जाप व्यक्ति को भाव समाधि में ले जाता है बस मन पवित्र हो और उससे प्रेम हो। फिर व्यक्ति निरभिमान हो जाता है। हूँ हुंकारा बंद हो जाता है उसका। अब हर तरफ तू ही तू है। 

जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ,

इधर भी तू है उधर भी तो तू है। 

रफ्ता रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामाँ हो गए। . 

पहले जाँ फिर जानेजाँ  फिर जानेजाँ ना हो गए। 

प्रभु का नाम ही भक्त को प्रभु की तरफ ले जाता है। यह मार्ग फिर कभी नष्ट नहीं होता है। भक्त और भगवान् आखिर में एक ही हो जाते हैं। नाम की महिमा अपरम्पार है। राम से बड़ा राम का नाम अंत में पाया यही परनाम। जनम मरण से मुक्ति जीवन मुक्ति राम नाम से ही मिलती है सांसारिक वस्तुओं से नहीं। बूँद सागर में मिलके सागर ही बन जाती है। उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ऐसा है परमात्मा  का नाम। 

विरह प्रेम का उद्दीपन पक्ष है और भड़ कता है प्रेम परमात्म बिछोड़े में

 (विछोह में ).प्रेम विरह में ही प्रदीप्त होता है : 

लकड़ी जल कोयला भई, कोयला जल भई राख ,

मैं बिरहन ऐसी जली ,कोयला भई न राख। 

परमात्म  प्रेम  विद्युत शव दाह  में दहन होना है जहां शेष कुछ नहीं बचता 

है। पूर्ण विलय है आत्मा का परमात्मा  में । विद्युत् प्रेम का प्रतीक है। 

(४ )प्रेमी ढूँढत मैं फिरूँ ,प्रेमी ना मिलिया कोय ,

      प्रेमी को प्रेमी मिले ,तब सब बिस अमृत होय। 

आशिक और माशूक का प्रेम ही सच्चा प्रेम है जहां कोई गिला शिकवा नहीं

 होता। 

हज़ारों साल नरगिश  अपनी बे -नूरी पे रोती  है ,

तब पैदा होता है ,चमन में एक  सच्चा दीदावर। 

सच्चा प्रेम जीवन में दुर्लभ है उसे ही प्राप्त होगा जिसका मन पवित्र है बुद्धि 

का पात्र निर्मल है। जहां देने की ,समर्पित होने की व्यग्रता है।

परमात्मा को कोटो में कोई एक प्रेम करता है। जब आत्मा -परमात्मा 

आशिक और माशूक मिलते हैं तब परम आनंद की प्राप्ति होती है। उस 

सच्चे प्रेम की खुश्बू दिग दिगांतर तक मकरंद बनके फ़ैल जाती है।दुनिया 

का सबसे नशीला पदार्थ है ,प्रेम रसायन है, सच्चा प्रेम।  सच्चा प्रेमी और 

सच्चा प्रेम ,परमात्मा का ही स्वरूप होता है। परमात्मा दिव्य प्रेम का 

सागर है ,जो आत्मा रुपी नदी का सारा विष पी लेता है। 

विष का प्याला राणा जी ने भेजा ,

पीवत मीरा हांसी रे। 

पानी में मीन प्यासी रे ,मोहे सुन सुन आवत हांसी रे। 

(५ )राम रसायन प्रेम रस ,पीवत अधिक रसाल ,

     कबीर पीवन दुर्लभ है ,मांगे सीस कलाल।

जिसने परमात्म प्रेम का रस चख लिया उसे फिर दुनिया के सारे रस 

निर्स्वाद लगते हैं। दास्य भाव की भक्ति चाहिए तब प्राप्त होता है यह 

अमृत रस  . बात सिर्फ एहम के विसर्जन तक सीमित नहीं है यहाँ सम्पूर्ण 

समर्पण की बात है।जो मन और प्राण दोनों को समिधा बनावे  को राजी है 

उसे ही यह नारायणी नशा देने वाला पदार्थ मिलेगा।भगवान् खुद अपने 

ऐसे भक्तों के लिए प्रेम रस से भरा कटोरा लेके हाज़िर होते हैं।  


(६  )कबीर प्रेम  न चाखिया ,चाखि ना लिया साव ,

      सूने घर का पाहुना ,ज्यों आवे त्यों जाव। 

कबीर कहते हैं जिसने ईश्वर प्रेम का अनुभव ही जीवन में  नहीं किया जिसे 

परमात्मा प्रेम का स्वाद ही नहीं पता समझो फिर उसने ये जीवन व्यर्थ कर 

दिया। 

उसके लिए फिर यह सारा संसार एक खाली घर की तरह हैं जहां रहने आने 

का फिर कोई मतलब नहीं है। जीवन बड़ा अनमोल है इसमें ईश्वर भक्ति 

नहीं की परमात्मा से प्रेम नहीं किया तो समझो फिर कुछ नहीं किया। फिर 

ऐसा व्यक्ति, आत्मा रुपी मुसाफिर  इस संसार रुपी मुसाफ़िर खाने से 

जाते 

समय मलाल ही साथ ले जाएगा। समझो वह उस खाली मकान में रहके 

चला गया जहां  कोई मेज़बान नहीं था। सन्देश यही है संसार के सुख भोगों 

में जीवन व्यर्थ न करो बाद में पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। 


(७ )सुरति ढेकुली लेज लौ ,मन नील ढोलन हार ,

      कमल कुवा में प्रेम रस ,पीवै बारम्बार। 

प्रभु का प्रेम ,प्रभु का ध्यान जहां  उत्तोलक की तरह है ऐसे उत्तोलक 

(लीवर) 

की तरह जिसकी डोरी प्रेम से 

बंधी हैं वहां मन बाल्टी है जो जल भरके लायेगी। इस सहस्र कमल दल 

वाले 

कूएं में दिव्य  प्रेम का रस जल है  जिसे भक्त बारहा पीता है। 

परमात्म चिंतन में हज़ारों  हज़ार कमल दल वाला स्थान परमात्मा प्रेम से 

प्लावित हो जाता है। 

पाकीज़ा हो जातीं  है उस कमल की पंखुड़ियां  परमात्मा की भक्ति से। 

मस्जिद कहते ही उस जगह को हैं जहां नमाज़ी नमाज़ पढ़ता किसी खाली 

इमारत का नाम नहीं है मस्जिद। 

ॐ शान्ति 





   



 

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय( श्लोक ६६ -७० )

श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय( श्लोक ६६ -७० ) 

(६ ६  )(ईशवर से) अ -युक्त मनुष्य के अंत :करण में न ईश्वर का ज्ञान होता है ,न ईश्वर की भावना ही। भावना हीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ ?

(६७  )जैसे जल में तैरती नाव को तूफ़ान उसके लक्ष्य से दूर धकेल देता है वैसे ही इन्द्रिय -सुख मनुष्य की बुद्धि को गलत रास्ते की ओर  ले जाता  है। 

(६८ )इसलिए ,हे अर्जुन ,जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा विषयों के वश में नहीं होती हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। 

(६९ )सब प्राणियों के लिए जो यात्री है ,उसमें संयमी मनुष्य जागा रहता है ;और जब साधारण मनुष्य जागते हैं ,तत्वदर्शी मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है। 



(७० )जैसे सभी नदियों के जल समुद्र को विचलित किए बिना परिपूर्ण समुद्र में समा जाते हैं ,वैसे ही सब भोग जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह मनुष्य शान्ति प्राप्त करता है ,न कि भोगों की कामना करने वाला। 

भाव विस्तार : जो व्यक्ति अन्दर से अशांत है उसके पास सुख कहाँ। फिर शान्ति भी कहाँ से आयेगी उसके पास। ४२० लोगों के पास तामसिक बुद्धि है। वह बुद्धि सात्विक होती है जो हमें ईश्वर की तरफ ले जाती है अध्यात्म  की ओर तत्व ज्ञान की ओर ले जाती है ,पवित्रता की तरफ ले जाती है। जो व्यक्ति सद मार्ग  से जुड़ा हुआ नहीं है परमात्मा से जुड़ा न होकर संसार से जुड़ा हुआ है उसके पास सत्य से प्रेरित बुद्धि नहीं होती। जो व्यक्ति अच्छे गुणों से भरा हुआ है वही योग्य है। जब हमारे पास ये सब गुण नहीं होंगें तब हमें त्रिकाल  में भी सुख -शांति नहीं मिलेगी। जिसके जीवन में विवेक और सदबुद्धि का अभाव है वह व्यक्ति अन्दर से अशांत होगा। 

जैसे जल में चलने वाली नाव को झंझा अपनी ओर खींच लेती है अपनी ओर बहाके ले जाती है वैसे ही विषयों में विचरण करती इन्द्रियों में से मन जिसके साथ रहता है ,बुद्धि भी फिर भ्रष्ट होकर उसी तरफ चल देती है। वही इन्द्रिय सक्रीय हो जाती है जिसे मन की शह मिलती है। इसलिए बहुत सावधानी के साथ मनुष्य को पदार्थ में इन्द्रियों के विषयों में विचरण करना चाहिए  . मन अयोग्य व्यक्ति की बुद्धि को वश में कर लेता है। वैसे ही जैसे तेज़ हवा तूफ़ान नाव को अपनी ओर  खींच ले जाती है। जैसे भोजन स्वादिष्ट होने पर जीभ कहती है वाह क्या बात है ,मन कहता है चलो और आने दो ,बुद्धि भी उसी पाले में फिर खिसक के चली आती है। 

भगवान् कहते हैं ,हे महाबाहु जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ हर प्रकार के विषयों से सदबुद्धि ,सत संग ,द्वारा कंट्रोल कर ली गईं हैं उसी की बुद्धि स्थिर होगी। व्यक्ति के जीवन की नाव फिर भगवान् की ओर  लगेगी।  संसार के विषयों के जो पदार्थ हैं वह उस पर हावी न होंगे। क्योंकि महापुरुषों और शाश्त्रों का ज्ञान उसके संग हैं। 

भगवान् कह रहे हैं जो काल सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि के समान है उसमें स्थित प्रज्ञा जागता है। प्रभु स्मरण करता है क्योंकि रात के समय प्रकृति भी शांत होती है टेलीफोन काल भी जल्दी लग जाती है। भक्ति का उपयुक्त समय रात्रि ही है। रात में रास्ता भी जल्दी कटता है दिन में तरह तरह की चीज़ें रोकती हैं। रात में ध्यान जल्दी लगता है। 

जबकि  सांसारिक व्यक्ति उस समय विषयों का चिंतन करता है सुख भोग की योजनायें बनाता है। यहाँ बात अज्ञान की रात्रि की हो रही है ज्ञान के प्रकाश के दिन की  हो रही है। परमात्मा के प्रकाश को जान लेने वाले साधक के लिए दिन रात के समान  है।जिनके पीछे ,जिन चीज़ों के पीछे सांसारिक प्राणि   दिन भर भागते रहते हैं साधक उनके प्रति अनासक्त रहता है। यहाँ मोह रूपा रात और ज्ञान रूपी दिन की बात हो रही है। जब तमोगुणी लोग (रात में )सो जाते हैं साधक परमात्मा की प्राप्ति के लिए तप करता है। उसका प्रयत्न सार्थक होता है। 

जिस प्रकार नदी अपने मार्ग में आये लकड़ी आदि पदार्थों को बहा के ले जाती है ,उसी प्रकार कामनाओं की नदी की प्रचंड (वेगवती )धारा भी ,उद्दाम आवेग भी भौतिक वादी (पदार्थ का चिंतन करने वाले )व्यक्ति के मन को बहाकर ले जाती  है। योगी का मन उस प्रशांत महा सागर की तरह हैं ,जिसमें कामनाओं की सरिताएं बिना उसे मथे ,बिना आंदोलित किए समाहित हो  जाती हैं। मानव कामनाएं अन्नत हैं कामनाओं की पूर्ती का प्रयास पेट्रोल द्वारा आग बुझाने जैसा है। शर्बत और पेप्सी से प्यास बुझती नहीं है और बढ़ जाती है। 

काम वासनाओं की पूर्ती करना वैसा ही है जैसा  और लकड़ी डालकर आग को बुझाना। लकड़ी न डालने से आग स्वत : ही बुझ जाती है। यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं की पूर्ती किए बिना शरीर छोड़ देता है मर जाता है  फिर उसे इनकी पूर्ती के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता  है।जब तक के वह अपने मन को जीत न ले।  जो मन को जीत लेता है वह जनम  मरण से मुक्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। आंदोलित व्यक्ति झील के जल में चाँद ढूँढने के लिए उसे पकड़ने के लिए उसमें छलांग लगा देता है वहां चाँद नहीं है। व्यक्ति वासनाओं के जल में डूब जाता है। ईश्वर की प्राप्ति आंदोलित मन को पराजित मन को नहीं होती है। 

ॐ शान्ति 






योगी आनंद जी एवं पुण्डरीक गोस्वामी महाराजजी का कैंटन हिन्दू टेम्पिल में दिया गया प्रवचन।

कृष्ण कहतें हैं -मैं कोई कारो हूँ। सखियन पुतरी डारि डारि ,मोहे कारो कर डारो !ब्रह्म स्वरूप कोई कारो थोड़ी होवे। ज़ो हमारे मन को मथ  दे उसे काम कहते हैं जो काम को मथ दे उसे कृष्ण कहते हैं। जो रास की विहंगम कथा भी सुन लेता है उसके मन से काम नष्ट हो जाता है। 

जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है वही गोविन्द है।

जन्माष्टमी भगवान् के प्रागट्य का दिन है। किसी प्रवचन देने या सुनने का नहीं उनकी यादों में बसने का दिन है। इस दिन परब्रह्म पूर्ण ब्रह्म के रूप में परमात्मा को धरती पर उतरना पड़ा तो इसके कई कारण हैं :

भगवान् कृष्ण का अवतरण मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह कोई नीति परक अवतरण नहीं है। भगवान् राम ऐसा कह सकते हैं -

प्राण जाए पर वचन न जाई ,लेकिन कृष्ण इस धरा पर प्रेम को बचाने के लिए हैं , सबके वेलेंटाइन हैं। हमारे जीवन में यदि प्रेम नहीं है तो जीवन बड़ा नीरस हो जाता है। कृष्ण की  पूजा एक विद्वान भी करेगा एक योगी भी क्योंकि कृष्ण एक साथ दोनों हैं विज्ञ भी योगेश्वर भी। एक चोर भी करेगा क्योंकि वह चोर भी थे उन्होंने दबाके माखन चुराया। सारे वृन्दावन का माखन खा गए। एक झूठा भी कृष्ण का पूजन करेगा क्योंकि उन्होंने धर्म को बचाने के लिए झूठ भी बोला। व्यभिचारी भी कृष्ण की पूजा करेगा उन्होंने पर -स्त्रियों के साथ रास रचाया। नृत्य भी किया इस त्रिभंगी नटवर लाल ने नन्द के लाला ने। 

He is the most famous God .The greatest dancer of all .

नन्द में आनंद भयो ,जय कन्हैया लाल की ,

हाथी घोड़ा पालकी ,जय कन्हैया लाल की। 

बड़ी विकट विचित्रताओं से भरा रहा है कृष्ण का जीवन।कारावास में जन्म लेते ही जल प्लावित रात में जब घनघोर बारिश हो रही थी इन्हें अपने माँ -बाप का घर छोड़ना  पड़ा। इनके जीवन को समाप्त करने के लिए पहले पूतना आई। बाहर से ही तो इसके स्तन में विष लगा था। अन्दर तो दूध था। इन्होनें महेश का आवाहन किया जिसका काम ही है धतूरा खाना ,विष पीना ,शंकर सारा विष पी गए बाल कृष्ण दूध पी गयो। पीते पीते पूतना के प्राणन ने भी पी गयो। भागी पूतना तो वाकी पोल खुली। गोप गोपियाँ ने ही वाकी अंत्येष्टि की। 

शुक देव  महाराज  ने कृष्ण को देखा नहीं था सिर्फ उनके बारे में सुना  था उनकी बातें भर सुनी थीं।गीता का  सिर्फ एक श्लोक सुना था उनका सारा जीवन ही  बदल गया गीता का एक श्लोक सुनकर। भगवान् कृष्ण ने स्वयं गीता में अपनी कमजोरियों को बताया है। अपने ब्रह्म तत्व को खोला है इसी बिध।भगवत गीता तो स्वयं हमारा हम सबका जीवन है। जीवन से अलग नहीं है। भगवान् कहते हैं इस गीता को सर्व के प्रेम के रूप में जानो  .इस संसार को प्रेम के स्वरूप में समझो। सर्व में उसके प्रेम की लीला के रूप में ही जानो। आज कलिकाल में कृष्ण के विभिन्न रूपों के उपासक न सिर्फ बंटे हुए हैं एक दूसरे  से द्वेष भी रखें हैं। वैष्णव कथा से  शाक्त उठके चल देगा।कोई उनकी सिर्फ बाल लीला से जुड़ा है तो कोई रास लीलाओं से ,किसी को कुरुक्षेत्र वाला कृष्ण  पसंद है किसी को माखन चोर ,वस्त्र चोर ,किसी को द्रोपदी चीर वस्त्र प्रदायक (इसीलिए तो कृष्ण ने कपड़े  चुराए थे गोपियन  के।  वह कोई कपड़ों के व्यापारी थोड़ी थे । हदै  है  गई महाराज आज लोग कृष्ण के बारे में कैसी कैसी बातें कर देते हैं ). 


कहतें हैं सोलह हजार स्त्रियाँ थीं उसकी -तुम दो रखके दिखाओ  तो पता चल आ जायेगा कैसी रखी जावें दो स्त्रियाँ। हदै  है  गई महाराज। 

भगवान् कहते हैं मुझे और कुछ नहीं वस्तु वैभव कुछ भी नहीं चाहिए अपने भक्तों से जो अंतर की गहराइयों से मेरे पास बैठते हैं मुझे याद करते हैं वह मुझे अच्छे लगते हैं। 

एक बार का प्रसंग है नारद जी जिन्हें अपने पर बड़ा गुमान था नारायण नारायण करते भगवान् राम के कक्ष में पहुंचे भगवान उस वक्त एक डायरी के पन्ने पलट रहे थे। नारद औतुस्क्य में भरे बोले -जे का है। भगवान् बोले इस डायरी में मेरे भक्तों के नाम लिखें हैं। नारद जी बोले मैं देख लूं नेक जाकू। भगवन बोले देखो। नारद का नाम सबसे ऊपर था। बस जी नारद कुप्पा होक हनुमान के पास पहुंचें बोले बड़ी डींग हांकता है तू राम का सबसे बड़ा भगत कहाता है तेरा नाम तो डायरी में है नहीं। हनुमान मंद मंद मुस्काये -बोले अच्छा नहीं होगा भाई। 

दूसरी बार नारद फिर पहुंचे भगवान् के एक हाथ में आज एक छोटी सी डायरी थी। नारद ने वह भी जिद करके ले ली पूछते हुए भगवान से ये क्या है भगवान् बोले ये मेरी पर्सनल डायरी है इसमें कुछ ख़ास लोगों के नाम लिखें हैं। नारद ने पन्ने पलटे देखा  हनुमान का नाम सबसे ऊपर था। नारद का नाम कहीं नहीं था। नारद बोले भगवन ये क्या है ?भगवान् बोले इस डायरी में उन लोगन के नाम हैं जिन्हें मैं याद करता हूँ। 

तो ऐसे ही कृष्ण केवल प्रेम के भूखे हैं वस्तु के नहीं । वृक्ष से जो फल टूट के गिरेगा वह वृक्ष से बहुत दूर नहीं गिरेगा उसके पास ही कहीं गिरेगा। भगवान् को अपने प्रेमी अच्छे लगते हैं। जब तक भगवान् के प्रति हमारे दिल में सच्चा प्रेम नहीं है हम उसे प्राप्त नहीं होंगें। संसार के सारे ऐश्वर्य सुख और वैभव का मूल भी भगवान् ही हैं। भगवान् कहते हैं तुम्हारे पास मुझे चढाने के लिए कुछ भी नहीं है तो कोई बात नहीं तुम फूल पत्ते ही चढ़ा दो। 

भगवान् धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं। हम अपने जीवन में धर्म की रक्षा करेंगे तो फिर धर्म भी हमारी रक्षा करेगा। हम जब अपने धर्म गर्न्थों की रक्षा के लिए आगे बढ़ेंगे भगवान् पीछे नहीं हटेगा। आज मंदिरों में देवताओं की मूर्तियाँ तो ३३ करोड़ हैं धर्म ग्रन्थ एक भी नहीं है। बाइबिल अमरीका के हर होटल में आपको मिलेगी। 

साधुता की रक्षा हम कर सकें। ज्ञान के द्वारा हम अपनी सज्जनता कार्मिकता को बचाए रहें।  दुष्टता का विनाश करने लगें इस संसार से तो समझ लो हमने भगवान् के  कार्य में ही सहयोग किया। जैसे हम बाहर से अपने आपको  प्रस्तुत करते हैं अपने को, अन्दर से भी बस वैसे ही बन जाएँ। बहु -मुखी होना छोड़ें। हिपोक्रेसी छोड़ें प्रजातंत्रीय। जो हमारे ही दो 
चेहरों  के बीच में गैप है वही दंभ है। 

जिस व्यक्ति का मन शुद्ध नहीं है स्वभाव शुद्ध नहीं है उसके लिए फिर व्रत उपवास रखने का भी कोई मतलब नहीं है। उसे ईश्वर तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। सुख चैन भी नहीं मिलेगा। परमात्मा ने गीता में हमें जो जीवन जीने की शैली बताई है उस पर चलें तो हमारा जीवन अद्भुत हो जाएगा। ये हमारे बंधू बांधव ही सब कौरव हैं ये  हमारे सब विकार ही कौरव हैं।हर घर एक कुरुक्षेत्र बना हुआ है। ये महा भारत यहीं हो रहा है। इसी समय। 

राधा कृष्ण का शरीर है गोपियाँ वृत्तियाँ हैं जिसने इन्हें जीत लिया वह कृष्ण बन जाएगा। प्रेम का सम्बन्ध हृदय के साथ है। प्रेम के पास विवेक बुद्धि की आँख भी होनी चाहिए। अंधा प्रेम (धृत राष्ट्र प्रेम )हमें हमारी मंजिल तक नहीं पहुँचा  सकता है।भगवान् कहतें हैं तुमको मैं बुद्धि योग देता हूँ ऐसी बुद्धि देता हूँ जो हमें भोगों की तरफ न ले जाकर परमात्मा से जोड़ती  है।  हमें जीवन में सात्विक बुद्धि की शरण लेनी चाहिए जो भगवान् की तरफ ले जाती है। तामसिक बुद्धि भोगों की तरफ ले जाती है संसार के वैभवों की तरफ राजसी बुद्धि ले जाती है। ये सब अल्पकालिक हैं हद के सुख हैं। जहां बे हद का सुख है ,बे हद का आनंद हैं वहां मैं हूँ। भगवान् धीरे धीरे मौन रूप में ही आते हैं हमें खबर भी नहीं होती। 

हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की ,

नन्द में आनंद भयो ,जय कन्हैया लाल की। 

सन्दर्भ -सामिग्री :

योगी आनंद जी एवं पुण्डरीक गोस्वामी महाराजजी  का कैंटन हिन्दू टेम्पिल में दिया गया प्रवचन।  

चित्र भी देखिये निहारिये दोनों महानुभावों को 

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ॐ शान्ति 

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।



संस्कृत न पढ़ पाने की पीड़ा से ऐसे ही दो चार होना होता है किसी बहुश्रुत श्लोक का अर्थ जानने के लिए भी दर दर 

भटकना पड़ता है -कालिदास के इस श्लोक का पूरा अर्थ जानने में कृपया संस्कृत के विद्वान् यदि कोई मेरी मित्र 
सूची में हो तो कृपया मेरी मदद करें !

तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी

मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।

श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां

या तत्रा स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।

तमाम कोशिशों के बाद तीन लाईनों का यह अर्थ बोध हो पाया है और इसमें भी कितनी शंकाएं हैं . संस्कृत की 
विदुषियाँ पला झाड रही हैं कह रही हैं किसी संस्कृत के पुरुष विद्वान् से मदद ली जाय-ऐसा किस तरह उचित है 
भला आखिर प्रोफेसनल दायित्व भी होता है कोई ? काश मैं खुद संस्कृत पढ़ा होता ! —  Meghadūta

इस श्लोक में शुद्ध श्रृंगारिक वर्रण है। कहीं कोई बिम्ब नहीं है। बिम्बात्मक वरर्ण नहीं है यहाँ । बादल यक्ष से कहता है ,वह सृष्टि की पहली आद्या सुंदरी ऐसी होगी _

जिसका अधरोष्ठ बिम्बफल सरीखा लाल होगा जिसका कटि प्रदेश क्षीण होगा ,तथा जो बड़ी बड़ी आँखों वाली हरिणी सी  चकित  होकर इधर उधर देखती होगी जिसका कद भी आकार ,कदकाठी के अनुरूप  लंबा होगा। नाभि अन्दर की तरफ बहुत गहरी  होगी। जिसके स्तन भार की वजह से थोड़ा सा नीचे की और झुके होंगें।जो आँखें झुकाकर अलस भाव से आहिस्ता आहिस्ता चलती होगी।  वह नितंभ भारणी  (भारी नितम्बों वाली )चलते समय ऐसे लगेगी जैसे उसके नितम्ब भी उसके साथ साथ चल रहे हैं मचल मचल ,ठुमक ठुमक । जो वहां पर युवतियों के केलि कलापों में प्रवीण संभवतया ऐसी पहली युवती होगी जो तुम्हें सृष्टि की आदि(आद्य ) सुंदरी के रूप में दर्शित होगी।  

सन्दर्भ -सामिग्री :मेहता वागीश से दूरभाष पर संवाद 

प्रस्तुति :वीरुभाई  

शुद्ध श्रृंगारिक भाव लिए है यह श्लोक कालिदास का 

जगत मातु पितु सम्भु भवानी , तेहिं श्रृंगार न कहहु बखानी।



संस्कृत न पढ़ पाने की पीड़ा से ऐसे ही दो चार होना होता है किसी बहुश्रुत श्लोक का अर्थ जानने के लिए भी दर दर भटकना पड़ता है -कालिदास के इस श्लोक का पूरा अर्थ जानने में कृपया संस्कृत के विद्वान् यदि कोई मेरी मित्र सूची में हो तो कृपया मेरी मदद करें !
तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां
या तत्रा स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।
तमाम कोशिशों के बाद तीन लाईनों का यह अर्थ बोध हो पाया है और इसमें भी कितनी शंकाएं हैं . संस्कृत की विदुषियाँ पला झाड रही हैं कह रही हैं किसी संस्कृत के पुरुष विद्वान् से मदद ली जाय-ऐसा किस तरह उचित है भला आखिर प्रोफेसनल दायित्व भी होता है कोई ? काश मैं खुद संस्कृत पढ़ा होता ! —  Meghadūta

यक्ष मेघ से पूछ रहा है मैं यक्षणी को पहचानूंगा कैसे यह तो 

बताओ -

बादल क्या बतलाता है इसकी चर्चा बाद में पहले योगी 

आनंदजी क्या कहतें हैं इस श्लोक पर यह जानिये :

श्रृंगार के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति बहुत कठिन है। श्रृंगार के 

विषय इसके विपरीत पतन के  ही  कारण बनते हैं। दिक्कत 

यह है कई साहित्यिक लोग कुच और कच से बाहर  नहीं 

निकल पाते हैं।कालिदास भी इसके अपवाद नहीं हैं। जीवन 


में ध्येय की प्राप्ति तो तब होती है जब हमारा हृदय 

सांसारिक 


कामनाओं की लालसाओं से ,इन्द्रियों के विषयों से 

मुक्त हो पाता  है।  इस सन्दर्भ में भर्तरि -हरि का वैराग्य 

शतक उल्लेख्य है।  कालिदास ने तो अपने साहित्यिक

 पांडित्य का गैर ज़रूरी प्रदर्शन करते हुए जगत माता पार्वती 

जी के सम्भोग श्रृंगार का भी वर्रण कर डाला है। पार्वती जी 

के 

शाप से ही उन्हें गलित  कुष्ठ रोग हो गया था।फलस्वरूप 



उनका काव्य कुमार संभव अधूरा ही रह गया था।उनकी शाप 

मुक्ति तभी हो पाई जब उन्होंने रघुवंश महाकाव्य की रचना 

की। क्योंकि कुमार-संभव तो सारा सांसारिक रहा है। मेघ दूत 

में भी यही मैथुनी और कुच कच वर्रण और  (नख शिख 

वर्रण के आवरण में मैथुनी देह मुद्राएँ  निस्संकोच चली आईं 

हैं।  


यहाँ वहां कालिदास ने अपने साहित्य श्रृंगार में अपनी 

कवित्व 

शक्ति का नग्न नृत्य तांडव किया है।

इस सबकी एक तीक्ष्ण आलोचना करते हुए तुलसीदास ने 

एक 

ही चौपाई में कालिदास को नाप के रख दिया है। मम्मट ने 

अपने काव्य प्रकाश में तीन प्रकार के उपदेश बताये हैं। 

(१) प्रभु सम्मित (सम्मत )

(२ )सुरित सम्मित 

(३)कांता  सम्मित 

वेदों ने जो आदेश दिया है वेदों की जो आज्ञा है वह प्रभु 

सम्मित  है।

पुराण सुरति सम्मित उपदेश देते  हैं  मित्रों की तरह।मित्रों 

के 

लिए हैं। 

काव्य कांता  सममित है प्रेमिका के लिए हैं। अनुराग पैदा 

करता है। 


तीनों का  सार रूप  तुलसीदास ने एक चौपाई में कह 

दिया  है :

करहिं विविध बिधि भोग बिलासा ,

गगंह समेत वसहिं कैलासा। 

तुसली दास यहां सावधना करते हुए कहते हैं :


जगत मातु पितु सम्भु  भवानी ,

तेहिं श्रृंगार न कहहु बखानी। 

जो जगत के मातु पिता हैं उनका श्रंगारिक वर्रण निषिद्ध है। 

इसी कारण कालिदास कुमार संभव पूरा ही नहीं कर पाए। 

अपनी करनी का तुरता फल पा गए। 

ॐ शान्ति 

बुधवार, 28 अगस्त 2013

नैना अंतर आव तू ,नैना झपि तोहि लेउ , ना मैं देखूँ और को ,ना तोहि देखन देउ।

कबीर साखियाँ (ज़ारी )

( १) पावक रुपी साइयां ,सब घट रहा समाय ,

       चित चकमक लागे नहीं ,ताते बुझि  बुझि  जाए। 

जैसे लकड़ी आग से अलग नहीं है, वैसे ही परमात्मा का हमारे सबके हृदय में वास  है वह हमसे अलग नहीं है। उसकी लौ उसका ज्योति स्वरूप ही हमारा भी आत्मिक स्वरूप है हमारी आत्मा का स्वभाव भी पवित्रता  है ज्योति शिखा की तरह। परमात्मा की ज्योति घट घट में व्याप्त है। जैसे चकमक पत्थर आग को समाये हुए है लेकिन जबतक उसमें स्फुलिंग पैदा नहीं होगा ऐसे ही जब तक आत्मा में परमात्मा की याद नहीं होगी वह मिलेगा कैसे ?व्यक्ति परमात्मा को तभी प्राप्त होगा जब सद्गुरु उसे परमात्मा से मिलने की विधि बतलायेगा। तब ही चक मक में स्फुलिंग पैदा होगा। 

(२ )जिन ढूंढा तिन पाइयां ,गहरे पानी पैठ ,

      मैं बौरी (बावरी )डूबन डरहि ,रहै किनारे बैठ। 

परमात्मा का स्वरूप समुन्दर की तरह विराट है। यहाँ गहरा पानी ज्ञान का अथाह प्रेम का प्रतीक है। 

जो परमात्मा  की याद में डूब गया जिसके अस्तित्व का हर कोष यादमय हो गया समझो उसे परमात्मा मिल गया। परमात्म प्राप्ति उसके प्रति प्रेम का विषय है जहां प्रेम है वहां डूबने का भय भी नहीं है। डर अज्ञान का प्रतीक है। जहाँ प्रेम है वहां यह डूबने का अज्ञान भी नहीं है। साधना से ही प्रभु प्राप्ति होती है। हृदय की गहराइयों से उसे प्रेम करना होता है। किनारे पे बैठ  तमाशा देखने वालों को भगवान् नहीं मिलते हैं। समुंद में छिपे खनिज कोष को भी गहरे उतर ढूंढना पड़ता है। 

(३ )हेरत हेरत हे सखी ,रह्या कबीर हेराय,  

      बूँद  समानी समुंद में  ,सो कत  हेरी जाय। 

कबीर कहते हैं हे सखी उसे ढूंढते ढूंढते मैं बूँद रुपी आत्मा उसी में  विलुप्त हो गई। मुझे तभी पता चला मैं तो उसी में थी और वह मुझ में  ही था। एक ग्लास पानी समुन्द्र में फेंक  दो फिर पानी का अस्तित्व  समाप्त हो जाएगा। वह समुन्द्र ही कहलायेगा। वैसे ही जब मैंने उसे याद किया तो  पता चला वह तो मुझसे अलग था ही नहीं मैं उसमे थी  वह मुझ में था। यहाँ अद्वेत दर्शन है। बूँद समुन्द्र से अलग नहीं है। बूँद भी वही है उसी का वंश है।उससे अलग नहीं है। 

(४ )बूँद समानी समुंद में ,जानत है  सब कोय ,

       समुंद समाना बूँद में जाने बिरला कोय। 

यहाँ भी अद्वैत भाव है। भगवान् भक्तों के हृदय में ही वास करते हैं। जो उसे अपने से अलग समझते हैं वह अज्ञानी हैं। आशिक और माशूक जब मिलते हैं तो मिलन ही शेष रह जाता है दोनों का अस्तित्व विलीन हो जाता है। असल बात है आत्मा परमात्मा का मिलन। आत्मा सो परमात्मा। 

उधौ मोहे संत सदा अति प्यारे ,

मैं संतन के पाछे जाऊं ,संत न मोते  न्यारे। 

बूँद और समुंद आत्मा  और परमात्मा अलग अलग नहीं है। एक सीमित आकाश  है -जीव आत्मा और एक महाकाश है परमात्मा। बीच की दीवार हटा दो ,एक ही आकाश रह जाएगा।बूँद है आत्मा समुंद है परमात्मा। आत्मा ,परमात्मा ,ब्रह्म तत्व ,परब्रह्म तीनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त  हुए हैं गीता में। जिसके हृदय में परमात्मा की याद  है वह परमात्मा मय हो जाता है।द्वेत भाव मिट जाता है।  

(५ )नैना अंतर आव तू ,नैना झपि तोहि लेउ ,

      ना मैं देखूँ  और को ,ना तोहि देखन देउ। 

ये जो चरम चक्षु हैं ये ज्ञान का प्रतीक हैं  ज्ञान के द्वार हैं। ज्ञान प्राप्त होने पर मनुष्य ईश्वर को पा जाता है फिर इन आँखों को किसी और का रूप नहीं सुहाता इस लौकिक संसार से लंगर उठ जाता है। जैसे आशिक माशूक को किसी और के साथ बाँटना  नहीं चाहता वैसे आत्मा परमात्मा से लौ लगने के बाद और कुछ नहीं देखना चाहती है। 

आँखों से दाखिल होकर वह हृदय में समा चुका है अब कुछ और देखने को बाकी ही न रहा। हे प्रभु तुम मेरे हृदय में आ जाओ तो मैं  चार कमरों वाले  हृदय के भी सब द्वार  बंद कर लूं।  

परमात्मा को देखने अनुभव करने के लिए ज्ञान चक्षु चाहिए चरम चक्षु तो एक बाहरी आवरण हैं।  ज्ञान प्राप्त होने पर ही उसका अनुभव प्राप्त होता है। इसके लिए आत्मा का विकार मुक्त निर्मल होना ज़रूरी होता है। तभी ज्ञान का तीसरा नेत्र खुलता है। 

तनिक कंकरी परत नैन होत  बे -चैन  ,
उन नैनन की क्या दशा ,जिन नैनन में नैन। 

ॐ शान्ति। 

श्रीमदभगवतगीता दूसरा अध्याय (श्लोक ५७ -६ ० )

श्रीमदभगवतगीता दूसरा अध्याय (श्लोक ५७ -६ ० )

(५ ७ )जिसे किसी भी वस्तु में आसक्ति न हो ,जो शुभ को प्राप्त कर प्रसन्न न हो और अशुभ से द्वेष न करे ,उसकी बुद्धि स्थिर है। 

(५८ )जब साधक सब ओर  से अपनी इन्द्रियों को विषयों से इस तरह से हटा ले जैसे कछुआ (कछुआ विपत्ति के समय अपनी रक्षा के लिए )अपने अंगों को समेट लेता है ,तब उसकी बुद्धि स्थिर समझनी चाहिए। 

( ५९ )इन्द्रियों को विषयों से हटाने वाले मनुष्य से विषयों की इच्छा तो हट भी जाती है ,परन्तु विषयों की आसक्ति दूर नहीं होती। परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँती समझकर स्थितप्रज्ञ मनुष्य (विषयों की ) आसक्ति से भी दूर हो जाता है। 

(६० )हे कुंती पुत्र ,कुंती नंदन ,संयम का प्रयत्न करते हुए ग्यानी मनुष्य के मन को भी चंचल इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं। 

 व्याख्या विस्तार :

भगवान् कहते हैं उस व्यक्ति की बुद्धि परमात्मा में प्रतिष्ठित हो चुकी है जो किसी भी समय शुभ -अशुभ ,अच्छाई -बुराई से प्रभावित नहीं होता है यह स्थिति कैसे आयेगी भगवान् ने आगे जाके बताया है गीता में। 

हमारे जीवन को भी ख़तरा होता जब हम कुछ खराब परिस्थिति को जीने लगते हैं। मुसीबत आने पर आदमी बाहर से मदद ले  लेता है मुसीबत तो चार दिन की होती है चली जाती है वैसे ही जैसे आती है लेकिन मदद देने वाले का एहसान देर तक बना रह जाता  है इसलिए जीवन में अनुकूलता प्रति कूलता क्षणिक हैं दोनों ही अपना प्रभाव न छोड़ें हमारी हिम्मत को न तोड़े। जैसे मेला होता है चार दिन का लगता है उजड़ जाता है वैसे ही प्रतिकूलताएं भी चली जाती हैं। हमारे जीवन में अनुकूलता के प्रति अनुराग न हो प्रति- कूलता के प्रति विद्वेष न हो। जब तक हम इनसे असरग्रस्त होते हैं समझो हम संसार में हैं इनसे ऊपर उठने पर अध्यात्म शुरू होता है। 

जीवन का विज्ञान बता दिया है यहाँ परमात्मा ने :जैसे कछुआ अपने जीवन को खतरा देखकर अपने अंगों को हर तरफ से बटोर लेता है नियंत्रित कर लेता है इसी तरह वही व्यक्ति साधक है जो अपनी इन्द्रियों के विषयों को जब चाहे समेट  ले। संसार में इन्द्रियों के विषयों से वास्ता तो पड़ेगा लेकिन व्यक्ति को संयमित रहना पड़ता है जैसे स्वादिष्ट भोजन आने पर यह ध्यान ज़रूर रहे कितना भोजन करना है। व्यक्ति खाता ही न चला जाए पेटू बन। और बाद में पीड़ा से पछताए। कछुआ संयम का प्रतीक है अध्यात्म  के मार्ग में आ रहे हो तो स्व -अनुशाशन होना चाहिए। हमारी इन्द्रियाँ हमारे नियंत्रण में होनी चाहिए। जब कोई व्यक्ति ऐसा कर लेता तब समझो उसकी प्रज्ञा भगवान् में लीन हो गई है। 

मौन में ,उपवास में लोग बाहर से तो इन्द्रियों के विषयों को छोड़ देते हैं लेकिन अन्दर से पकड़े  रहते हैं। अन्दर से भोग के विषयों से रूचि नहीं जाती है। विषयों को बाहर से छोड़ने लेकिन अन्दर से उनका चिंतन करने का कोई मतलब नहीं है। व्रत के दिन कोई खाद्य पदार्थ आपको न लुभाए ललचाये क्या ऐसा होता है ?आहार केवल जीभ का नहीं होता हर इन्द्रिय का अपना आहार है। जैसे कानों का आहर संगीत है। जिभ्या को स्वाद और स्वादिष्ट पदार्थ। 

लेकिन जो व्यक्ति में भगवान् में लग जाता है उसका विषयों के प्रति भी राग  हट जाता है।  उसने यदि परमात्मा का अध्यात्म का रस चख लिया है तो उसे फिर  संसार के सब विषय फीके लगने लगते हैं। जिसे सांसारिक वस्तुओं में स्वाद आ रहा है इसका मतलब है उसने अभी इससे बड़ा स्वाद चखा ही नहीं है। 

जब तक संसार के विषय भोगों से आसक्ति नहीं मिटती  है इन्द्रियाँ उन्हें फिर भी खींच लेती हैं। हमारे मन में उनका जो महत्व बैठा हुआ है उसे छोड़ने से पहले कुछ नहीं होगा। मन से रूचि हटे ,अन्दर से हटे फिर बाहर से भी हट जायेगी। पुरुषार्थ करने के बाद भी बलवान इन्द्रियाँ व्यक्ति के मन का अपहरण कर लेती हैं।

विश्वामित्र  की आसक्ति  अन्दर से नहीं मिटी  थी इसलिए एक मेनका ने उन्हें पकड़ लिया था अर्जुन की मिट गई थी इसलिए स्वर्ग की भी सबसे सुन्दर अप्सरा उनपे मोहित होकर जब उनके कक्ष में चली आई थी अर्जुन ने उसे माँ के संबोधन से पुकारा था। अगर हम मन से ज्ञान द्वारा पके नहीं है मन से कच्चे हैं तो सब बेकार है। अर्जुन के संग संसार नहीं था अध्यात्म था। भगवान् थे। 

पकड़ने का काम आसक्ति करती है। आदमी पिस्टल या बन्दूक से नहीं मरता है। मारने का काम गोली करती है वह भी तब जब गोली में बारूद भी होगा। आसक्ति को मन बुद्धि और इन्द्रियाँ तीनों पकड़ती हैं। तीनों को इससे आज़ादी मिले। तो जानो व्यक्ति अध्यात्म की ओर अग्रसर है।  

ॐ शान्ति।