Laxmirangam: स्वर्णिम सुबह: स्वर्णिम सुबह ऐ मेरे नाजुक मन मैं कैसे तुमको समझाऊँ।। अंजुरी की खुशियाँ छोड़ सदा, अंतस में भरकर, बीते जीवन का क्रंदन, क्यों...
स्वर्णिम सुबह
स्वर्णिम सुबह
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
अंजुरी की खुशियाँ छोड़ सदा,
अंतस में भरकर,
बीते जीवन का क्रंदन,
क्यों भूल गए हो तुम स्पंदन.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
जब कोशिश होती है,
गुलाबों की,
हाथ बढ़ाए गुलाबों में,
कुछ आँचल
फंसते काँटों में,
कुछ तो धीरे से
तर जाते हैं,
बच जाते हैं फटने से, पर
दो तार कहीं छिड़ जाते हैं ।।
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
कुछ ज्यादा ही उलझे जाते हैं.
जितना बच जाए, बच जाए,
जो फटे छोड़ना पड़ता है.
मजबूरी में ही हो
पर तब, नया आँचल
तो ओढ़ना पड़ता है।
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
मुश्किल कंटकमय राहों में भी
जीवन तो जीना पड़ता है,
सीने में समाए जख्मों पर,
पत्थर तो रखना पड़ता है.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
हों लाख मुसीबत जीवन में,
हाँ, एक मुखौटा जरूरी है,
दुख भरी जिंदगी के आगे,
हँसना तो सदा जरूरी है,
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
आँचल में सारी, दुनियाँ को,
तो छोड़ नहीं हम सकते हैं,
आगे बढ़िए... बढ़ते रहिए,
स्वागत करने को रस्ते हैं।।
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
हर काली अँधियारी रात संग,
एक स्वर्णिम सुबह भी आती है,
अँधियारे का डर भूल छोड़,
सारे जग को महकाती है.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
अंजुरी की खुशियाँ छोड़ सदा,
अंतस में भरकर,
बीते जीवन का क्रंदन,
क्यों भूल गए हो तुम स्पंदन.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
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मित्रों! आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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बुधवार, 30 नवंबर 2016
Laxmirangam: स्वर्णिम सुबह
Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
Can manage with Kannada, Tamil, assamese, Marathi .
Published Eight books in Hindi containing Poetry, Short stories, Currect topics, Essays, analysis etc. All are available on www.Amazon.in/books with names Rangraj Iyengar & रंगराज अयंगर
रविवार, 27 नवंबर 2016
Meena sharma: कवि की कविता
Meena sharma: कवि की कविता: मन के एकांत प्रदेश में, मैं छुपकर प्रवेश कर जाती हूँ. जीवन की बगिया से चुनकर गीतों की कलियाँ लाती हूँ।। तुम साज सजाकर भी चुप हो मैं ब...
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Meena sharma: कवि की कविता
Meena sharma: कवि की कविता: मन के एकांत प्रदेश में, मैं छुपकर प्रवेश कर जाती हूँ. जीवन की बगिया से चुनकर गीतों की कलियाँ लाती हूँ।। तुम साज सजाकर भी चुप हो मैं ब...
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शनिवार, 26 नवंबर 2016
Meena sharma: मेघ-राग
Meena sharma:
मेघ-राग
पुरवैय्या मंद-मंद,
फूल रहा निशिगंध,
चहूँ दिशा उड़े सुगंध,
कण-कण महकाए...
शीतल बहती बयार,
वसुधा की सुन पुकार,
मिलन चले हो तैयार,
श्यामल घन छाए....
गरजत पुनि मेह-मेह
बरसत ज्यों नेह-नेह
अवनी की गोद भरी
अंकुर उग आए....
अंग-अंग सिहर-सिहर,
सहम-सहम ठहर-ठहर
प्रियतम के दरस-परस,
जियरा अकुलाए....
स्नेह-सुधा से सिंचित,
कुछ हर्षित, कुछ विस्मित,
कहने कुछ गूढ़ गुपित
अधर थरथराए....
------------------------------
मेघ-राग
पुरवैय्या मंद-मंद,
फूल रहा निशिगंध,
चहूँ दिशा उड़े सुगंध,
कण-कण महकाए...
शीतल बहती बयार,
वसुधा की सुन पुकार,
मिलन चले हो तैयार,
श्यामल घन छाए....
गरजत पुनि मेह-मेह
बरसत ज्यों नेह-नेह
अवनी की गोद भरी
अंकुर उग आए....
अंग-अंग सिहर-सिहर,
सहम-सहम ठहर-ठहर
प्रियतम के दरस-परस,
जियरा अकुलाए....
स्नेह-सुधा से सिंचित,
कुछ हर्षित, कुछ विस्मित,
कहने कुछ गूढ़ गुपित
अधर थरथराए....
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Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
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युद्ध व मानव तथा दाशराज्ञ-युद्ध --डा श्याम गुप्त
युद्ध व मानव तथा
दाशराज्ञ-युद्ध
आज सिन्धु सतलुज व्यास व रावी नदी के जल में
से पाकिस्तान को जल की एक बूँद भी नहीं देंगे के समाचार पर भारत-आर्यावर्त के इतिहास
के एक अति महत्वपूर्ण पुरा कालखंड की, वेदों में प्रमुखता से वर्णित रावी नदी तट
पर हुए दाशराज्ञ युद्ध की स्मृतियाँ पुनः मस्तिष्क में जीवंत
होने लगती हैं जो आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था जिसने विश्व इतिहास की दिशा बदल
दी जिसका एक प्रमुख कारण जल-बंटवारा ही था |
आज हम चाहे जितना कहते रहें कि आपसी विवादों, झगड़ों, मसलों, मामलों,
विरोधों का समाधान वार्ताओं से होना चाहिए
परन्तु एसा होता नहीं है, न कभी हुआ, न इतिहास में न वर्त्तमान में, न भविष्य में
भी एसा होने की संभावना है, क्योंकि आपसी विरोध मूलतः विचारधाराओं का होता है जो
वर्चस्व-स्थापना, आर्थिक, धर्म, कभी ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ या अन्य विविध कारणों
का कारण बनता है | एक विचारधारा कभी दूसरी विचारधारा को मान्यता नहीं देती चाहे वह
उससे श्रेष्ठ ही क्यों न हो, इसका कारण है उस विचार वर्ग का अहं | अतः युद्ध
अनिवार्य होजाता है | महाभारत युद्ध के अंत में गांधारी के कहने पर कि कृष्ण यदि
तू चाहता तो युद्ध रुक सकता था, कृष्ण का यही उत्तर था कि माँ मैं कौन होता हूँ
अवश्यंभावी के सम्मुख, युद्ध होते रहेंगे |
अतः भूमंडल या किसी क्षेत्र व देश की
राजनैतिक व सामाजिक दिशा व दशा सदैव युद्धों से ही निर्णीत होती रही है | युद्ध
करना अर्थात आपसी संघर्ष मानव का मूल कृतित्व रहा है| यदि संघर्ष के लिए विरोधी
समुदाय उपस्थित नहीं है तो भाई-भाई ही युद्धरत होते रहे हैं| युद्धों का मूल
अभिप्राय वर्चस्व की स्थापना होता है जिसका कारण आर्थिक एवं विचारधाराओं की
स्थापना व प्रसार होता है | मानव इतिहास के बड़े– बड़े युद्ध जिन्होंने भूमंडल की
दिशा व दशा को परिवर्तित किया है, प्रायः भाई-भाइयों के मध्य ही हुए हैं | विश्व
के सर्वप्रथम युद्ध देवासुर संग्रामों में देव व असुर भी भाई भाई ही थे | यद्यपि ऋग्वेद में
युद्ध से मानव के अहित का स्पष्ट उल्लेख है --
यत्रा
नरः समयन्ते कृतध्वजों यस्मिन्नाजा भवति किंचन प्रियं |
यत्रा
भयन्ते भुवना स्वर्द्द्शस्तत्रा न इन्द्रावरुणाधि बोचतम |----ऋग्वेद मंडल-७
सू.८३ ...
---जहां
मनुष्य अपनी अपनी ध्वजाएं उठाये हुए युद्ध मैदान में एकत्र होते हैं, ऐसे
युद्धों से मानवों का अहित ही होता है | हे इंद्र व वरुण !
आप सुख शान्ति जैसे स्वर्गीय स्थिति के पक्षधर हम सबके संग्राम में रक्षण प्रदान
करें |
आज भी विश्व में अधिकाँश देशों में
लोकतांत्रिक व्यवस्था है परन्तु चुनावों में मत (वोट- अर्थात् अपनी विचार धारा की
स्वीकृति ) प्राप्ति हेतु एक ही देश के नागरिक आपस में छल, बल व धन आधारित युद्धरत
होते हैं | प्रायः राजनैतिक पार्टिया किसी एक व्यक्ति के बलबूते पर ही आगे चलती
हैं |
गणतंत्र व राज्यतंत्र ---गणतंत्र या लोकतंत्र कोई नवीन व्यवस्था नहीं है अपितु
इसकी अवधारणा वैदिक काल से ही चली आरही है | वैदिक व्यवस्था में राजा होते हुए
भी लोकतांत्रिक व्यवस्था थी ताकि राजा निरंकुश न रहे| परन्तु पूर्णतः राजा विहीन
गणतांत्रिक व्यवस्था कभी फल-फूल नहीं पाई, सफल नहीं रही | मूलतः यह देखा गया है कि
लोकतांत्रिक व्यवस्था सदैव ही राजतन्त्रिक
व्यवस्था से परास्त होती रही है, सारा इतिहास साक्षी है | वेदों में प्रमुखता से वर्णित
दाशराज्ञ युद्ध जो शायद आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था, भी
लोकतंत्र की पराजय की कहानी है |
वैदिक काल में भारतीय सभ्यता का
विस्तार दुनिया के सभी देशों में था जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता है । लोग विभिन्न जातियों,
जनजातियों व कबीलों में बंटे थे। उनके
प्रमुख राजा कहलाते थे, बीतते समय के साथ-साथ उनमें अपनी सभ्यता व राज्य विस्तार की
भावना बढ़ी और उन्होंने युद्ध और मित्रता के माध्यम से खुद का चतुर्दिक विस्तार का
प्रयास किया। और इस क्रम में कई जातियां, जनजातियां और कबीलों
का लोप सा हो गया। एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय हुआ।
इस क्रम में भारतीय उपमहाद्वीप का पहला
दूरगामी असर डालने वाला युद्ध बना दशराज युद्ध। इस युद्ध ने न सिर्फ आर्यावर्त
को बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया बल्कि राजतंत्र के पोषक महर्षि वशिष्ट
की लोकतंत्र के पोषक महर्षि विश्वामित्र पर श्रेष्ठता भी साबित कर दी।
उस काल में राजनीतिक व्यवस्था
गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित होती जारही थी। दाशराज्ञ
युद्ध में भरत कबीला राजा प्रथा आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग
सभी लोकतांत्रिक थे|
अधिकाँश हम राम–रावण एवं महाभारत के युद्धों
की विभीषिका से ही परिचित हैं, परन्तु इस बात से अनभिज्ञ हैं कि राम-रावण युद्ध से
भी पूर्व संभवतः 7200
ईसा पूर्व त्रेतायुग के अंत में एक महायुद्ध हुआ था जिसे दशराज युद्ध (दाशराज्ञ
युद्ध ) के नाम से जाना
जाता है। यह आर्यावर्त का सर्वप्रथम भीषण युद्ध था जो आर्यावर्त
क्षेत्र में आर्यों के बीच ही हुआ था। प्रकारांतर से इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां
की संस्कृति में आज भी विद्यमान हैं। इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ही मानव के विभिन्न
कबीले भारत एवं भारतेतर दूरस्थ क्षेत्रों में फैले व फैलते गए |
ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का
वर्णन मिलता है। इससे यह भी पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और
उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक
पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था। यह एक ऐसा युद्ध
था जिसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म और इतिहास ने करवट बदली। जिसका
प्रभाव राम-रावण व महाभारत युद्ध जैसा ही था जिसने भारतीय समाज व संस्कृति की दशा
व दिशा निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
उन दिनों पूरा आर्यावर्त कई
टुकड़ों में बंटा था और उस पर विभिन्न जातियों व कबीलों का शासन था। भरत
जाति के कबीले के राजा सुदास थे। उन्होंने अपने ही कुल के अन्य कबीलों से सहित
विभिन्न कबीलों से युद्ध लड़ा था। उनकी लड़ाई सबसे ज्यादा पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु, अलिन, पक्थ, भलान, शिव
एवं विषाणिन कबीले के
लोगों से हुई थी। सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के
नेतृत्व में हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के
योद्धा थे, तो दूसरी ओर 'तृत्सु' नामक समुदाय के लोग थे। दोनों ही हिंद-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे।
'तृत्सु समुदाय
का नेतृत्व पंचाल के शासक राजा सुदास ने किया। सुदास दिवोदास के पुत्र
थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था।
सुदास के सलाहकार महर्षि वशिष्ट
थे जो राजा शासन तंत्र के समर्थक थे |
सुदास
के विरुद्ध दस राजा (कबीले-जिनमें कुछ अनार्य कबीले भी शामिल थे ) युद्ध लड़ रहे
थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण
कर रहे थे, जिनके
सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे जो लोकतांत्रिक शासन तंत्र के समर्थक
थे। हस्तिनापुर के राजा संवरण भरत के कुल के राजा अजमीढ़ के वंशज थे | पुरु समुदाय ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जो
सरस्वती नदी के किनारे बसा था | आर्यकाल में यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे।
वस्तुतः यह सत्ता और विचारधारा की लड़ाई थी। सबसे
बड़ा कारण पुरोहिताई और जल बंटवारे का झगड़ा था। प्रारंभ में सुदास के
राजपुरोहित विश्वामित्र थे। बाद में मतभेद के बाद सुदास ने विश्वाममित्र को हटाकर
वशिष्ठ् को अपना राजपुरोहित नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से
विश्वामित्र ने पुरु, यदु, तुर्वश,
अनु और द्रुह्मु तथा पांच अन्य छोटे
कबीले अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन आदि
दस राजाओं के एक कबीलाई संघ का गठन तैयार किया जो ईरान, से लेकर अफगानिस्तान,
बोलन दर्रे, गांधार व
रावी नदी तक के क्षेत्र में निवास करते थे |
वास्तव में तो इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्षों पूर्व तैयार हो गई थी। तृत्सु राजा दिवोदास एक बहुत ही शक्तिशाली राजा था जिसने संबर नामक राजा को हराने के बाद उसकी
हत्या कर दी थी और उसने इंद्र की सहायता से उसके बसाए 99 शहरों को नष्ट कर दिया। इंद्र ने धरती पर 52 राज्यों का गठन किया था। इंद्र के विरूद्ध भी कई राजा थे जो बाद में धीरे-धीरे वहां छोटे बड़े 10 राज्य बन गए। वे दस राजा एकजुट होकर रहते थे | यही दस कुल या कबीले संवरण के नेतृत्व व विश्वामित्र के
परामर्श पर एक जुट होगये |
एक ओर वेद पर
आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को कायम करने
वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के प्रमुख राजा सुदास थे।
दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्वामित्र का अंत करना चाहते थे। विश्वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। दोनों ऋषियों का देवों और ऋषियों में सम्मान था, दोनों में धर्म और वर्चस्व की लड़ाई थी। इस लड़ाई में वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ। फिर डर से विश्वामित्र के 50 पुत्र तालजंघों (हैहयों) की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ हो गए। तब हार मानकर विश्वामित्र वशिष्ठ के शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमादान दिया। वशिष्ठ ने श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत) 6379 वि.पू. को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बंटवाकर दिलाया।
दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्वामित्र का अंत करना चाहते थे। विश्वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। दोनों ऋषियों का देवों और ऋषियों में सम्मान था, दोनों में धर्म और वर्चस्व की लड़ाई थी। इस लड़ाई में वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ। फिर डर से विश्वामित्र के 50 पुत्र तालजंघों (हैहयों) की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ हो गए। तब हार मानकर विश्वामित्र वशिष्ठ के शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमादान दिया। वशिष्ठ ने श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत) 6379 वि.पू. को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बंटवाकर दिलाया।
अर्थात यह युद्ध राम-रावण युद्ध से लगभग १००० वर्ष पहले हुआ था क्योंकि राम के काल (लगभग ५११४ वर्ष ईपू ) में दोनों ऋषियों में वैमनस्य के भाव नहीं दिखाई देते तथा भरतवंश के, रघुवंश की पीढी क्रम के अनुसार ५६वीं पीढी में सुदास हुए हैं और ६८ वीं पीढी में राम |
यद्यपि एक मत के अनुसार माना जाता है कि यह युद्ध त्रेता के अंत में राम-रावण
युद्ध के 150 वर्ष बाद हुआ था। क्योंकि
हिन्दू काल वर्णन में चौथा काल : राम-वशिष्ठ काल वर्णन के अनुसार रामवंशी लव, कुश, बृहद्वल, निमिवंशी शुनक और ययाति वंशी यदु, अनु, पुरु, दुह्यु, तुर्वसु का राज्य महाभारतकाल तक चला और फिर हुई महाभारत। इन्हीं पांचों से मलेच्छ, यादव, यवन, भरत और पौरवों का जन्म हुआ। इनके काल को ही आर्यों का काल कहा जाता है। आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे
ज्यादा विकास हुआ, वे हैं- यदु, तुर्वसु, द्रुहु, पुरु
और अनु। उक्त पांचों से राजवंशों का निर्माण हुआ। यदु से यादव, तुर्वसु
से यवन,
द्रुहु
से भोज,
अनु
से मलेच्छ और पुरु से पौरव l
इस
युद्ध में सुदास के भरतों की विजय हुई और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप
के आर्यावर्त और आर्यों पर उनका अधिकार स्थापित हो गया। इस देश का नाम भरतखंड एवं
इस क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था परन्तु इस युद्ध के कारण आगे चलकर पूरे
देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह 'भारत' पड़ गया।
यद्यपि कुछ समय बाद ही राजा सुदास के बाद राजा संवरण ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया परन्तु कुछ समय बाद
ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया। रामचंद्र के युग के बाद पुन: एक बार फिर
यादवों और पौरवों ने अपने पुराने गौरव के अनुरूप आगे बढ़ना शुरू कर दिया। मथुरा से
द्वारिका तक यदुकुल फैल गए और अंधक, वृष्णि, कुकुर
और भोज उनमें मुख्य हुए। कृष्ण उनके सर्वप्रमुख प्रतिनिधि थे।
संवरण के कुल के कुरु ने पांचाल पर अधिकार
कर लिया | कुरु के नाम से कुरु वंश प्रसिद्ध हुआ, राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी
के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। उस के वंशज कौरव कहलाए
और आगे चलकर दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर उनके दो प्रसिद्ध नगर हुए। भाई भाइयों, कौरवों और पांडवों का विख्यात महाभारत
युद्ध पुनः एक बार भारतीय इतिहास की विनाशकारी घटना सिद्ध हुआ।
लेबल:
आर्यावर्त,
दाशराज्ञ-युद्ध,
भारत
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं...
काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ..
my blogs--
1.the world of my thoughts श्याम स्मृति...
2.drsbg.wordpres.com,
3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
शुक्रवार, 25 नवंबर 2016
Laxmirangam: नन्हीं चिड़िया.
Laxmirangam: नन्हीं चिड़िया.: नन्हीं चिड़िया. बहुत अरसे बाद देखा , पिछले कुछ समय से बाग में एक नई चिड़िया , चीं - चीं, चूँ - चूँ करती फुदक रही है , फ...
नन्हीं चिड़िया.
नन्हीं चिड़िया.
बहुत अरसे बाद देखा,
पिछले कुछ समय से बाग में
एक नई चिड़िया ,
चीं - चीं, चूँ - चूँ करती
फुदक रही है,
फुनगी से फुनगी.
पता नहीं कब आई,
कहाँ से आई,
कब से फिरती है बाग में,
उड़ते - उड़ते राह में यहाँ रुक गई,
या बहक कर भटक कर
पहुँच गई यहाँ,
इतने दिनों से देखते - देखते
महसूस कर रहा हूँ कि
उसे यहाँ रहना अच्छा लग रहा है
उसे बाग रास आ रहा है,
भा रहा है,
पसंद आ रहा है,
शायद अब यहीं रहेगी ताउम्र या
जब तक चमन आबाद रहे ।
कुछ समय से दूर से देख ही रहा हूँ
आज देखा करीब से,
जब मेरे बिखेरे दाना चुगने आई,
छोटी सी चोंच लिए,
चीं- चीं, चूँ - चूँ करती,
और पक्षियों के संग,
फुदकती, यहाँ से वहाँ
दाना चुगती हुई,
बिखरे हुए भी और
मेरे हाथ पर के भी।
वह निर्भीक है,
वह डरती नहीं है,
मुझसे भी,
बैठ जाती है.
कभी कंधे पर तो
कभी हथेली पर।
जब हथेली पर दाना चुगती है,
तो कभी - कभी उसकी
छोटी नुकीली चोंच चुभती है,
इस चुभन में दर्द कम
पर मिठास ज्यादा है,
एक अजब सा एहसास है,
पता नहीं क्यों?
ऐसा आभास होता है कि
कुछ बकाया है,
विधि के लिखे
मेरे खाते के कुछ क्षण
पता नहीं पिछले या
किसी और जनम के,
जो उनके हिसाब से
बच गए थे शायद,
उन्हें ही देने आई है
ये नन्हीं फुदकती चिड़िया,
चूँ - चूँ, चीं - चीं करती हुई
ये नन्हीं फुदकती चिड़िया,
एक नई चिड़िया ,
मेरे बाग में।
नन्हीं चिड़िया.
नन्हीं चिड़िया.
बहुत अरसे बाद देखा,
पिछले कुछ समय से बाग में
एक नई चिड़िया ,
चीं - चीं, चूँ - चूँ करती
फुदक रही है,
फुनगी से फुनगी.
पता नहीं कब आई,
कहाँ से आई,
कब से फिरती है बाग में,
उड़ते - उड़ते राह में यहाँ रुक गई,
या बहक कर भटक कर
पहुँच गई यहाँ,
इतने दिनों से देखते - देखते
महसूस कर रहा हूँ कि
उसे यहाँ रहना अच्छा लग रहा है
उसे बाग रास आ रहा है,
भा रहा है,
पसंद आ रहा है,
शायद अब यहीं रहेगी ताउम्र या
जब तक चमन आबाद रहे ।
कुछ समय से दूर से देख ही रहा हूँ
आज देखा करीब से,
जब मेरे बिखेरे दाना चुगने आई,
छोटी सी चोंच लिए,
चीं- चीं, चूँ - चूँ करती,
और पक्षियों के संग,
फुदकती, यहाँ से वहाँ
दाना चुगती हुई,
बिखरे हुए भी और
मेरे हाथ पर के भी।
वह निर्भीक है,
वह डरती नहीं है,
मुझसे भी,
बैठ जाती है.
कभी कंधे पर तो
कभी हथेली पर।
जब हथेली पर दाना चुगती है,
तो कभी - कभी उसकी
छोटी नुकीली चोंच चुभती है,
इस चुभन में दर्द कम
पर मिठास ज्यादा है,
एक अजब सा एहसास है,
पता नहीं क्यों?
ऐसा आभास होता है कि
कुछ बकाया है,
विधि के लिखे
मेरे खाते के कुछ क्षण
पता नहीं पिछले या
किसी और जनम के,
जो उनके हिसाब से
बच गए थे शायद,
उन्हें ही देने आई है
ये नन्हीं फुदकती चिड़िया,
चूँ - चूँ, चीं - चीं करती हुई
ये नन्हीं फुदकती चिड़िया,
एक नई चिड़िया ,
मेरे बाग में।
Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
Can manage with Kannada, Tamil, assamese, Marathi .
Published Eight books in Hindi containing Poetry, Short stories, Currect topics, Essays, analysis etc. All are available on www.Amazon.in/books with names Rangraj Iyengar & रंगराज अयंगर
Laxmirangam: चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता.
Laxmirangam: चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता.: चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता. एक थी चिड़िया, जैसे गुड़िया, चूँ-चूँ, चीं-चीं करने वाली, गाने और फुदकने वाली, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ...
चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता.
चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता.
एक थी चिड़िया,
जैसे गुड़िया,
चूँ-चूँ, चीं-चीं करने वाली,
गाने और फुदकने वाली,
यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ,
डाल-डाल, अंगना, बगिया...
एक थी चिड़िया...
कहीं से इक दिन राक्षस आया,
चिड़िया को उसने धमकाया,
बस !!! बस!!!बस!!!
बस, बहुत हुआ ये गाना-वाना
बंद करो अपना चिल्लाना
अब से मेरा मानो कहना,
जैसा बोलूँ वैसा करना !
लाल-लाल आँखें दिखलाई,
चिड़िया सहमी, काँपी, घबराई ...
गुड़िया जैसे जान गँवाई
क्या कर पाऊँ समझ न पाई।।
.
पकड़ के उसको फिर राक्षस ने
बंद कर दिया एक महल में ,
जब मन चाहे उसे निकाले,
जो जी चाहे वह कर डाले,
कभी लाल आँखें दिखलाकर,
और कभी बहला-फुसलाकर,
उसका गाना बंद कराया
चूँ-चूँ करना बंद कराया...
जो मन चाहा वही कराया
खूब डराया और धमकाया।।
गुड़िया से छिन गया बचपना,
चिड़िया से छिन गया चहकना...
भूल गई वह गाना - वाना
कारण ? राक्षस का चिल्लाना.
इक दिन एक फरिश्ता आया,
उसने चिड़िया को छुड़वाया,
आखिर कैद से छूटी चिड़िया,
अपने घर को लौटी चिड़िया...
जीवन तो जीना ही था,
जख्मों को सीना ही था,
हिम्मत करके बड़ी हुई,
अपने पैरों खड़ी हुई....
वे अतीत के काले साए,
चिड़िया के दिल को दहलाएँ,
लाल-लाल आँखें राक्षस की,
याद करे गुड़िया घबराए
अब तो वे दिन बीत गए हैं,
दुख के साए रीत गए हैं,
बीतों से अब क्यों घबराएँ ,
आगे क्यों ना बढ़ते जाएँ.
पिछली बातों से क्यों परेशां हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो,
भले ही जिंदगी में आस न हो,
बीते कल की सड़ी भड़ास लिए,
आता कल तो कभी खराब न हो।
बीती बातों से दिल उदास न हो।
रात काली हो, स्याह हो कितनी,
एक स्वर्णिम सुबह तो आएगी,
रात को कोसती रही तुम जो,
सुबह की स्वर्णिम छटा भी जाएगी।
स्याह रातों से यूँ हताश न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो।
मनको मत बनाओ डिब्बा कचरे का,
उसे भी रोज़ खाली करती हो,
धोती हो रोज नहीं तो दूसरे दिन,
मन को खाली नहीं क्यों करती हो।
इन तुच्छ बातों से निराश न हो
बीती बातों से दिल उदास न हो।
गर नहीं खाली करोगी, महकेगा,
पूरा आहाता बदबू-मय होगा,
एक मन को खाली करने से,
खुद के संग सारा घर भी चहकेगा।
मन को तू मार के संत्रास न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो
सोचती हो हमेशा दूजे का, कुछ
तो अपने लिए भी सोचो तुम,
त्यागकर 'स्व' को तुम स्वजन के लिए,
सोच किसको जताना चाहो तुम।
भूलो जाओ खुद अपनी प्यास न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो।
आज का यह जमाना गैर सा है,
पंछी खाकर के दाना उड़ जाएं,
बूढ़े मां बाप की फिकर है कहां,
हसीं रात की बाहों में वो सुकूं पाएं।
इनको बसाने का कुछ प्रयास न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो।
मेरी मानो तो एक हँसी जीवन,
खुद भी अपने लिए सँजो लो तुम,
दूसरों के लिए तो करती हो,
कुछ तो खुद के लिए भी कर लो तुम।
आते कल यूँ कभी खलास न हों
बीती बातों से दिल उदास न हो।।
बीती बातों से दिल उदास न हो
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संकलक : एम आर अयंगर.
चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता.
चिड़िया, राक्षस और फरिश्ता.
एक थी चिड़िया,
जैसे गुड़िया,
चूँ-चूँ, चीं-चीं करने वाली,
गाने और फुदकने वाली,
यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ,
डाल-डाल, अंगना, बगिया...
एक थी चिड़िया...
कहीं से इक दिन राक्षस आया,
चिड़िया को उसने धमकाया,
बस !!! बस!!!बस!!!
बस, बहुत हुआ ये गाना-वाना
बंद करो अपना चिल्लाना
अब से मेरा मानो कहना,
जैसा बोलूँ वैसा करना !
लाल-लाल आँखें दिखलाई,
चिड़िया सहमी, काँपी, घबराई ...
गुड़िया जैसे जान गँवाई
क्या कर पाऊँ समझ न पाई।।
.
पकड़ के उसको फिर राक्षस ने
बंद कर दिया एक महल में ,
जब मन चाहे उसे निकाले,
जो जी चाहे वह कर डाले,
कभी लाल आँखें दिखलाकर,
और कभी बहला-फुसलाकर,
उसका गाना बंद कराया
चूँ-चूँ करना बंद कराया...
जो मन चाहा वही कराया
खूब डराया और धमकाया।।
गुड़िया से छिन गया बचपना,
चिड़िया से छिन गया चहकना...
भूल गई वह गाना - वाना
कारण ? राक्षस का चिल्लाना.
इक दिन एक फरिश्ता आया,
उसने चिड़िया को छुड़वाया,
आखिर कैद से छूटी चिड़िया,
अपने घर को लौटी चिड़िया...
जीवन तो जीना ही था,
जख्मों को सीना ही था,
हिम्मत करके बड़ी हुई,
अपने पैरों खड़ी हुई....
वे अतीत के काले साए,
चिड़िया के दिल को दहलाएँ,
लाल-लाल आँखें राक्षस की,
याद करे गुड़िया घबराए
अब तो वे दिन बीत गए हैं,
दुख के साए रीत गए हैं,
बीतों से अब क्यों घबराएँ ,
आगे क्यों ना बढ़ते जाएँ.
पिछली बातों से क्यों परेशां हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो,
भले ही जिंदगी में आस न हो,
बीते कल की सड़ी भड़ास लिए,
आता कल तो कभी खराब न हो।
बीती बातों से दिल उदास न हो।
रात काली हो, स्याह हो कितनी,
एक स्वर्णिम सुबह तो आएगी,
रात को कोसती रही तुम जो,
सुबह की स्वर्णिम छटा भी जाएगी।
स्याह रातों से यूँ हताश न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो।
मनको मत बनाओ डिब्बा कचरे का,
उसे भी रोज़ खाली करती हो,
धोती हो रोज नहीं तो दूसरे दिन,
मन को खाली नहीं क्यों करती हो।
इन तुच्छ बातों से निराश न हो
बीती बातों से दिल उदास न हो।
गर नहीं खाली करोगी, महकेगा,
पूरा आहाता बदबू-मय होगा,
एक मन को खाली करने से,
खुद के संग सारा घर भी चहकेगा।
मन को तू मार के संत्रास न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो
सोचती हो हमेशा दूजे का, कुछ
तो अपने लिए भी सोचो तुम,
त्यागकर 'स्व' को तुम स्वजन के लिए,
सोच किसको जताना चाहो तुम।
भूलो जाओ खुद अपनी प्यास न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो।
आज का यह जमाना गैर सा है,
पंछी खाकर के दाना उड़ जाएं,
बूढ़े मां बाप की फिकर है कहां,
हसीं रात की बाहों में वो सुकूं पाएं।
इनको बसाने का कुछ प्रयास न हो,
बीती बातों से दिल उदास न हो।
मेरी मानो तो एक हँसी जीवन,
खुद भी अपने लिए सँजो लो तुम,
दूसरों के लिए तो करती हो,
कुछ तो खुद के लिए भी कर लो तुम।
आते कल यूँ कभी खलास न हों
बीती बातों से दिल उदास न हो।।
बीती बातों से दिल उदास न हो
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संकलक : एम आर अयंगर.
Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
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