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रविवार, 5 जनवरी 2020

एक ग़ज़ल ; नहीं जानता हूँ कौन हूँ

एक ग़ज़ल : नहीं जानता हूँ कौन हूँ--


नहीं जानता कौन हूँ ,मैं कहाँ हूँ
उन्हें ढूँढता मैं यहाँ से वहाँ हूँ

तुम्हारी ही तख़्लीक़ का आइना बन
अदम से हूँ निकला वो नाम-ओ-निशाँ हूँ

बहुत कुछ था कहना ,नहीं कह सका था
उसी बेज़ुबानी का तर्ज़-ए-बयाँ हूँ

तुम्हीं ने बनाया , तुम्हीं ने मिटाया
जो कुछ भी हूँ बस मैं इसी दरमियाँ हूँ

मेरा दर्द-ओ-ग़म क्यों सुनेगा ज़माना
अधूरी मुहब्बत की मैं दास्ताँ हूँ

न देखा ,न जाना ,सुना ही सुना है
उधर वो निहां है ,इधर मैं अयाँ हूँ

ये मेरा तुम्हारा वो रिश्ता है ’आनन’
अगर तुम ज़मीं हो तो मैं आसमाँ हूँ

आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
तुम्हारी ही तख़्लीक़ = तुम्हारी ही सॄष्टि / रचना
अदम से = स्वर्ग से
निहाँ है = अदॄश्य है /छुपा है
अयाँ हूँ = ज़ाहिर हूँ /प्रगट हूँ/सामने हूँ

6 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (06-01-2020) को 'मौत महज समाचार नहीं हो सकती' (चर्चा अंक 3572) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित हैं…
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

    जवाब देंहटाएं
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