सरसों की धानी चादर पर पीली छींट बिखरी पड़ी है. फूल झर-झर करते हुए झड़
रहे हैं. घास की तलाश में निकली महिलाओं की टोली अचानक ठिठक जाती है. खेत
के मेड़ पर दूसरी तरफ मुंह किये बिस्सू बनिया सस्वर सप्तम में हैं -
हे....सरसैया क फुलवा झर लागा, फागुन में बाबा देवर लागा. महिलाए जानती हैं कि यह किसे सुनाया जा रहा है. आसरे की मौसी झुकी कमर
पर हाथ रखती है. र्झुीदार चेहरे की आंख में हंसी तैरती है- मुहझौंसे..
फागुन का लगा कि बौरा गये? धनपत्ती (बिस्सू की बहन का नाम है ) के जा के
सुना. सभी महिलाएं हंसने लगती हैं. प्रौढ़ा, मुग्धा, जवानी की तरफ बढ़ी लल्ली
भी खुल कर साथ देती है. मौसी खुरपी से इशारा करती है- अथी काट के खीसे में
डाल देंगे. किलकारी ठहाका बन जाता है. क्योंकि मौसी ने बेलौस उस अंग का नाम
लिया था, जिसे काटने की बात कही गयी थी. शहर होता तो चौंक जाता, गांव सब
जानता है. अगर ठोस और सच्चे समाज देखना हो, तो मेहरबानी करके समय निकालिए और गांव
को देख आइए. आज आप चिंता कर रहे हैं कि पुरुष समाज ने औरतों की इच्छाओं को
ही नहीं मारा है, उनके इंद्रियों को भी प्रतिबंधित कर दिया है. औरत खुल कर
सड़क पर दौड़ नहीं सकती. वह खुल कर सड़क पर हंस नहीं सकती. चलते समय
अगल-बगल देख नहीं सकती. लेकिन गांव खुल कर जीता है. हर रोज नहीं तो कम से
कम कुछ खास मौकों पर तो खुल ही जाता है. बात करते हैं फागुन की! आइए देखिए
गांव में क्या मौसम है.
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सुंदर !
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