जब जब समय
मेरे साथ चौसर पे
खेल खेलता है
मुझे मोहरा बना
मुझे ही पीट देता है
तब तब
मैं आवेश में
चौसर और मोहरा
दोनो ही लेकर
खुद के भीतर
अपने बुने अंधेरों में
छुप जाती हूं
औे सोचती हूं
आंखे मूंद लेने से
सूरज ढल जाता है
और आंख खोलने पे
दिन निकल आयेगा
समय दूर खड़ा खड़ा
हंसता है मुझपे
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