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रविवार, 12 अक्टूबर 2014

हों प्रणत कवि वाल्मीकि :डॉ.नन्द लाल मेहता वागीश



कवि वाल्मीकि सृष्टि के आदि कवि के रूप में मान्य हैं। उनसे पूर्व वैदिक छंद और मंत्र का युग था लौकिक

संस्कृत में कवि वाल्मीकि प्रथम प्राथमिक कवि हैं। उनके मुख से श्लोक कैसे प्रकट हुआ इस विषय में जो

मान्यता प्रचलित है वह ये कि तमसा नदी के तट पर जा रहे कवि वाल्मीकि के समक्ष अपने उल्लास में निमग्न

क्रौंच -

मिथुन में से नर- क्रौंच शिकारी के  बाण  से  विद्ध होकर अपने जीवन को खो बैठा। उस क्रौंच की सहचरी क्रौंची

का जो हृदय विलाप कवि वाल्मीकि के कानों में पड़ा तो कवि का शोक श्लोकत्व  में परिणत हो गया। उनके मुख

से निकला मूल श्लोक इस प्रकार है :

मा निषाद प्रतिष्ठाम त्वमगम : शाश्वती : समा :

यत क्रौंचमिथुनादेकमवधी : काममोहितम्। 

कवि वाल्मीकि द्वारा व्याध को दिया गया शाप अनुष्टप छंद में परिणत 

होकर वाल्मीकि रामायण का प्रेरक भाव बन गया। गत आठ अक्टूबर 

२०१४ को भारत भर में वाल्मीकि जयंती मनाई गई। बस इसी सन्दर्भ में 

डॉ.नन्द लाल मेहता वागीश की इस रचना का रसास्वादन कीजिये : 


         हों प्रणत कवि वाल्मीकि 

काव्य सर्जन  कल्पना का ,

मन मेरा अधिवास है ,

भाव का अनंत  सागर ,

ले रहा उच्छ्वास है ,

शब्द सहचर सारथी हैं ,

अरु लेखनी भी हाथ है। 


पर हंत क्रौंच का मिथुन ,रक्त कीलित शोक क्रंदन ,

चित हुआ मुनि का विकल ,चू पड़े थे अश्रुकण ,

करुण रस की एक धार ,जो बनी युग की पुकार ,

संवेदना वो सृष्टि सार ,तप की शक्ति ली संभाल। 


आदि कवि का शापविद्ध ,निर्गत हुआ जो शब्द भाष ,

श्लोकसिद्ध रामायण रूप ,काव्य कानन की सुवास ,

घोर कलियुग स्वार्थ संकुल ,अपने दुःख संत्रास हैं ,

किस तरह हो काव्य सर्जन ,और कई संताप हैं। 


जब तक न हो प्रज्ञा प्रतिष्ठित ,करुणा भावित हो न अंतस ,


परहिताय अस्त दिनकर ,खिलता नहीं प्रकाश है। 


हों प्रणत कवि वाल्मीकि ,मेरी करुणा का प्रसाद ,

प्राप्त हो तो नित्य नूतन ,छंद लय दुःख शब्द साथ। 

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