लड़कियाँ
अनाज के आटे
सी होती है ..
गाँव की लड़की
बाजरा मक्का या जवार
होती है
शहरी लड़कियाँ
मैदे या गेहूँ सा
ग़ुबार होती है ...
बेली ही जाती है सब
रोटी पराँठा
लिट्टी क़ुल्चे सी
और
खाई जाती है
बस भूख (!)
मिटाने के लिए ..
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-08-2019) को "नागपञ्चमी आज भी, श्रद्धा का आधार" (चर्चा अंक- 3418) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मैं आपकी आभारी हूँ कि आपने इस कविता को अपने इस अंक में जगह दी ... आपका प्रोत्साहन यूँ ही बना रहे
हटाएंसाभार
संध्या राठौर
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जी सादर धन्यवाद आपका
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बहुत सुंदर और सटीक रचना! बधाई संध्या जी!
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