गीत : कुंकुम से नित माँग सजाए---
कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?
प्राची की घूँघट अधखोले
अधरों के दो-पट ज्यों डोले
अधरों के दो-पट ज्यों डोले
मलय गन्ध में डूबी डूबी ,तुम सकुचाती कौन?
फूलों के नव गन्ध बिखेरे
अभिमन्त्रित रश्मियां सबेरे
अभिमन्त्रित रश्मियां सबेरे
करता कलरव गान विहग जब, तुम शरमाती कौन ?
प्रात समीरण गाता आता
आशाओं की किरण जगाता
आशाओं की किरण जगाता
छम छम करती उतर रही हो, पलक झुकाती कौन ?
लहरों के दर्पण भी हारे
जब जब तुम ने रूप निहारे
जब जब तुम ने रूप निहारे
पूछ रहे हैं विकल किनारे ,तुम इठलाती कौन?
कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?
कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?
-आनन्द.पाठक-
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-09-2017) को "वक़्त के साथ दौड़ता..वक़्त" (चर्चा अंक 2716) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’हिन्दी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार से निखरी ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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