जिन्दगी
विवसता में हाथ कैसे मल रही है जिन्दगी
मनुज से ही मनुजता को छल रही है जिन्दगी
एक छोटे से वतन के सत्य में आभाव में
रास्ते की पटरियों पर पल रही है जिन्दगी//0//
फूल है जिन्दगी शूल है जिन्दगी
भटकने पर कठिन भूल है जिन्दगी
जो समझते है अपने को उनके लिए
मनुजता का सही मूल है जिन्दगी//१//
छाँव है जिन्दगी धूप है जिन्दगी
मधुरता से भरा कूप है जिन्दगी
सत्य में सत्य के साधकों ने कहा
ईश का ही तो प्रतिरूप है जिन्दगी//२//
शान है जिन्दगी मान है जिन्दगी
अपनेपन से भरी खान है जिन्दगी
कितना ऊँचा महल हो भले खण्डहर
जब तलक साथ में जान है जिन्दगी//३//
प्रेम का बीज बोती कहीं जिन्दगी
अपना अस्तित्व खोती कहीं जिन्दगी
सत्य में अपने लौकिक सुखों के लिए
बैलगाड़ी में जोती कहीं जिन्दगी//४//
आग की नित तपिस भी सहे जिन्दगी
सर्द में बन पसीना बहे जिन्दगी
रात हो या दिवस कितनी मेहनत पड़े
फिर भी आराम को न कहे जिन्दगी//५//
झंझटों में उलझ - सी गयी जिन्दगी
कैसे दोजख सदृश हो गयी जिन्दगी
आग से खेलते जो उदर के लिए
रोज मिलती उन्हें भी नयी जिन्दगी//६//
नित्य बूटे कसीदे गढ़े जिन्दगी
मन में उल्लास लेकर बढ़े जिन्दगी
ज्ञान सम्पूर्ण हो यह जरूरत नहीं
नौकरी के लिए ही पढ़े जिन्दगी//७//
कहीं कर्तव्य में फँस गयी जिन्दगी
कैसे वक्तव्य में फँस गयी जिन्दगी
आजकल की चकाचौंध में दीखने
सत्य में भव्य में फँस गयी जिन्दगी//८//
पिस रही जिन्दगी घिस रही जिन्दगी
पीव बनकर कहीं रिस रही जिन्दगी
अपने कर्तव्य में कैसी उलझी हुई
दीख जाती वही जिस रही जिन्दगी//९//
पल रही जिन्दगी चल रही जिन्दगी
अर्थ के अर्थ में छल रही जिन्दगी
बस नमक और रोटी के आभाव में
भूख की आग में जल रही जिन्दगी//१०//
आज है क्या पता कल नहीं जिन्दगी
जिन्दगी जिन्दगी मल नहीं जिन्दगी
सीख ले जो भी जीना किये कर्म से
मौत हो जाये यह हल नहीं जिन्दगी//११//
जिन्दगी का मधुर गीति है जिन्दगी
आदि से सृष्टि की रीति है जिन्दगी
प्रेम से जो जिए प्रेम के ही लिए
उसको अनुभूति है प्रीति है जिन्दगी//१२//
सुख - दुखों को भी चखती कहीं जिन्दगी
अपनी किस्मत को लखती कहीं जिन्दगी
अन्तरिक्ष हो या माउण्टएवरेस्ट हो
हौंसला उच्च रखती कहीं जिन्दगी//१३//
कहीं सौरभ विखेरे यही जिन्दगी
काम आ जाये जो बस वही जिन्दगी
न हो पीड़ा किसी को स्वयं से कभी
स्वयं ही कष्ट सारे सही जिन्दगी//१४//
धूप हो छाँव हो काटती जिन्दगी
कर्ज का बोझ भी पाटती जिन्दगी
भूख से जब भी लाचार हो जाती है
जूंठे दोने उठा चाटती जिन्दगी//१५//
द्वेष-विद्वेष भी कर रही जिन्दगी
कैसे अपनों ले ही डर रही जिन्दगी
दीखती ही नहीं अब सहनशीलता
ऐसे परिप्रेक्ष्य में मर रही जिन्दगी//१६//
शब्द से ही मशीहा बनी जिन्दगी
दम्भ में पूर्णतः है सनी जिन्दगी
एक छोटा - सा उपकार होता नहीं
बन गयी आज कैसी धनी जिन्दगी//१७//
मात्र आहार ही कथ्य है जिन्दगी
प्राणवायु जहाँ तथ्य है जिन्दगी
आज के दौर में कोई होता नहीं
जीना तो है तभी स्वश्थ्य है जिन्दगी//१८//
आँख में चुभ रही है कहीं जिन्दगी
जाने कितनी अकारण जही जिन्दगी
वैमनश्यता में आयु चली जाती है
प्रेम का पुष्प खिलता नहीं जिन्दगी//१९//
राज अन्तःकरण में लिये जिन्दगी
कितने उपकार हम पर किये जिन्दगी
ज्ञान की ज्योति उर में प्रकाशित करे
बाकी कुछ भी नहीं जो दिये जिन्दगी//२०//
मोक्ष पद मिल सके त्याग है जिन्दगी
आवरण से ढकी राग है जिन्दगी
अपना अस्तित्व खोती समर्पण में जो
वही जीवन का अनुराग है जिन्दगी//२१//
भोगियों के लिए भोग है जिन्दगी
कर्म से जो विमुख रोग है जिन्दगी
जीव का ईश से सम्मिलन दे करा
सत्य का सार्थक योग है जिन्दगी//२२//
धर्म है ही नहीं पाप है जिन्दगी
लोभियों, लोभ का जाप है जिन्दगी
न क्षमा है दया है न करुणा ही है
उनका जीवन ही अभिशाप है जिन्दगी//२३//
साधना के लिए पूर्ति है जिन्दगी
उर में आनन्द दे मूर्ति है जिन्दगी
अपने पथ से नहीं जो विमुख हो रहा
कितने संकट हो स्फूर्ति है जिन्दगी//२४//
तड़पती है कहीं बन विरह जिन्दगी
कर रही है कहीं पर जिरह जिन्दगी
झंझटों से ग्रसित बनके अयहाय - सी
चल रही है कहीं दर गिरह जिन्दगी//२५//
रम में विक्षिप्त - जैसी रमी जिन्दगी
भीड़ है हर जगह पर जमी जिन्दगी
दीख जाती कहीं खिलखिलाते हुए
ड़बड़बाई हैं पलकें नमी जिन्दगी//२६//
सुर्ख जोड़े में जाती कहीं जिन्दगी
काल स्वर्णिम बनाती कहीं जिन्दगी
प्रेम में अपना सर्वस्व देकर स्वयं
डूबकर गम भुलाती कहीं जिन्दगी//२७//
ले हथौड़ी शिला तोड़ती जिन्दगी
धार नदियों की भी मोड़ती जिन्दगी
चन्द लौकिक सुखों के लिए ही सही
पाई - पाई जुटा जोड़ती जिन्दगी//२८//
पग बिना किस तरह घीसती जिन्दगी
अस्पतालों में भी टीसती जिन्दगी
अपने वश का कोई कार्य होता नहीं
क्या करे दाँत ही पीसती जिन्दगी//२९//
छूत है जिन्दगी पूत है जिन्दगी
है भविष्य कहीं भूत है जिन्दगी
रंक, राजा बनी फिरती इतरती है
आदि से अन्त तक सूत है जिन्दगी//३०//
बन रही जिन्दगी ठन रही जिन्दगी
जिन्दगी के लिए धन रही जिन्दगी
शोक संतप्त हो शव लिए साथ में
गाड़ने हेतु में खन रही जिन्दगी//३१//
कट रही जिन्दगी पट रही जिन्दगी
वेहया अनवरत खट रही जिन्दगी
लोभ लालच तथा मोह से आवरित
नित्य प्रतिपल सुघर घट रही जिन्दगी//३२//
लथ रही जिन्दगी पथ रही जिन्दगी
कैसे सम्बन्ध में नथ रही जिन्दगी
अपना बन जाये दूजा गिरे भड़ में
बस इसी भाव से मथ रही जिन्दगी//३३//
जैसा ऐनक हो वैसा दिखे जिन्दगी
नित्य वातावरण से सिखे जिन्दगी
जो भी कर लेते है सत्य की साधना
दूध का दूध पानी लिखे जिन्दगी//३४//
ज्ञान है और विज्ञान है जिन्दगी
लक्ष्य भेदे कठिन बान है जिन्दगी
अपने सम्मोह से मोहती जो जगत
बाँसुरी की मधुर गान है जिन्दगी//३५//
स्मरण हो रही विस्मरण जिन्दगी
हो रही नित्यप्रति संक्षरण जिन्दगी
दृश्य को देखते दिन निकल जाता है
ओढ़ती मृत्यु का आवरण जिन्दगी//३६//
द्वन्द है तो कहीं फन्द है जिन्दगी
कैदखानों में भी बन्द है जिन्दगी
जिसको आये कला जीवन जी लेने की
बस उसी के लिए छन्द है जिन्दगी//३७//
बीत जाये व्यथा में कथा जिन्दगी
कट न पाये कभी अन्यथा जिन्दगी
मिल गयी है सुधा पान कर लेने को
तत्व का ज्ञान, जिसने मथा जिन्दगी//३८//
झेलती जिन्दगी ठेलती जिन्दगी
मन मधुप माधुरी मेलती जिन्दगी
भाव, आभाव का जब सरोकार हो
किस तरह रोटियाँ बेलती जिन्दगी//३९//
सृष्टि कारण सृजक अंश है जिन्दगी
तप से शोधित हुआ वंश है जिन्दगी
चेतना रूप में संचरित हो रहा
दृश्य होता नहीं हंस है जिन्दगी//४०//
स्वाद का स्वाद है दन्त है जिन्दगी
प्रीति सम्बन्ध में कन्त है जिन्दगी
जो स्वयं सिद्ध आनन्द के रूप में
आदि से सम्मिलन अन्त है जिन्दगी//४१//
स्वप्न कितने संजोकर रखे जिन्दगी
अनगिनत घाव उर पर चखे जिन्दगी
वैसे संयोग में जी सभी लेते हैं
गम नहीं तो क्या जीना सखे! जिन्दगी//४२//
मानता कोई समझौता है जिन्दगी
मृत्यु उपलक्ष्य में न्यौता है जिन्दगी
भेद देती मधुर जग के सम्बन्ध को
शब्दभेदी सरौता है जिन्दगी//४३//
अन्ततल में वशा देती भय जिन्दगी
उड़ रही यान में बैठ गय जिन्दगी
भोग अतिशय चरम पर पहुँच जाये तो
संवरण कर रही रोग क्षय जिन्दगी//४४//
उम्रभर रेंकती सेंकती जिन्दगी
फिर जले पर नमक फेंकती जिन्दगी
पात्र भिक्षा का कर में लिए दौड़कर
आश में रास्ता रोंकती जिन्दगी//४५//
काटती है निशा टाट पर जिन्दगी
दीखती मौत के घाट पर जिन्दगी
धन के भण्डार पर कुण्डली मारकर
बैठती ठाट से खाट पर जिन्दगी//४६//
चल रही फिर रही घात में जिन्दगी
अंधेरी घनी रात में जिन्दगी
दीख पड़ती बनाते हुए आज भी
बस हवाई महल बात में जिन्दगी//४७//
नेह में रच रही अल्पना जिन्दगी
खो रही किस तरह कल्पना जिन्दगी
सुख की अनुभूति पलभर हुई ही नहीं
जीना क्या है भला, जल्पना जिन्दगी//४८//
फेरा लेकर बँधी सात पर जिन्दगी
काट देती नमक भात पर जिन्दगी
माझी मझधार नाव से हो विमुख
लगता रखी हुई पात पर जिन्दगी//४९//
सुगमता की मधुर आश है जिन्दगी
जीव का ही तो उपवास है जिन्दगी
आओ प्रतिबद्ध हों बस खुँशी के लिए
द्वेष का नाश अभिलाष हैै जिन्दगी//५०//
मनुज से ही मनुजता को छल रही है जिन्दगी
एक छोटे से वतन के सत्य में आभाव में
रास्ते की पटरियों पर पल रही है जिन्दगी//0//
फूल है जिन्दगी शूल है जिन्दगी
भटकने पर कठिन भूल है जिन्दगी
जो समझते है अपने को उनके लिए
मनुजता का सही मूल है जिन्दगी//१//
छाँव है जिन्दगी धूप है जिन्दगी
मधुरता से भरा कूप है जिन्दगी
सत्य में सत्य के साधकों ने कहा
ईश का ही तो प्रतिरूप है जिन्दगी//२//
शान है जिन्दगी मान है जिन्दगी
अपनेपन से भरी खान है जिन्दगी
कितना ऊँचा महल हो भले खण्डहर
जब तलक साथ में जान है जिन्दगी//३//
प्रेम का बीज बोती कहीं जिन्दगी
अपना अस्तित्व खोती कहीं जिन्दगी
सत्य में अपने लौकिक सुखों के लिए
बैलगाड़ी में जोती कहीं जिन्दगी//४//
आग की नित तपिस भी सहे जिन्दगी
सर्द में बन पसीना बहे जिन्दगी
रात हो या दिवस कितनी मेहनत पड़े
फिर भी आराम को न कहे जिन्दगी//५//
झंझटों में उलझ - सी गयी जिन्दगी
कैसे दोजख सदृश हो गयी जिन्दगी
आग से खेलते जो उदर के लिए
रोज मिलती उन्हें भी नयी जिन्दगी//६//
नित्य बूटे कसीदे गढ़े जिन्दगी
मन में उल्लास लेकर बढ़े जिन्दगी
ज्ञान सम्पूर्ण हो यह जरूरत नहीं
नौकरी के लिए ही पढ़े जिन्दगी//७//
कहीं कर्तव्य में फँस गयी जिन्दगी
कैसे वक्तव्य में फँस गयी जिन्दगी
आजकल की चकाचौंध में दीखने
सत्य में भव्य में फँस गयी जिन्दगी//८//
पिस रही जिन्दगी घिस रही जिन्दगी
पीव बनकर कहीं रिस रही जिन्दगी
अपने कर्तव्य में कैसी उलझी हुई
दीख जाती वही जिस रही जिन्दगी//९//
पल रही जिन्दगी चल रही जिन्दगी
अर्थ के अर्थ में छल रही जिन्दगी
बस नमक और रोटी के आभाव में
भूख की आग में जल रही जिन्दगी//१०//
आज है क्या पता कल नहीं जिन्दगी
जिन्दगी जिन्दगी मल नहीं जिन्दगी
सीख ले जो भी जीना किये कर्म से
मौत हो जाये यह हल नहीं जिन्दगी//११//
जिन्दगी का मधुर गीति है जिन्दगी
आदि से सृष्टि की रीति है जिन्दगी
प्रेम से जो जिए प्रेम के ही लिए
उसको अनुभूति है प्रीति है जिन्दगी//१२//
सुख - दुखों को भी चखती कहीं जिन्दगी
अपनी किस्मत को लखती कहीं जिन्दगी
अन्तरिक्ष हो या माउण्टएवरेस्ट हो
हौंसला उच्च रखती कहीं जिन्दगी//१३//
कहीं सौरभ विखेरे यही जिन्दगी
काम आ जाये जो बस वही जिन्दगी
न हो पीड़ा किसी को स्वयं से कभी
स्वयं ही कष्ट सारे सही जिन्दगी//१४//
धूप हो छाँव हो काटती जिन्दगी
कर्ज का बोझ भी पाटती जिन्दगी
भूख से जब भी लाचार हो जाती है
जूंठे दोने उठा चाटती जिन्दगी//१५//
द्वेष-विद्वेष भी कर रही जिन्दगी
कैसे अपनों ले ही डर रही जिन्दगी
दीखती ही नहीं अब सहनशीलता
ऐसे परिप्रेक्ष्य में मर रही जिन्दगी//१६//
शब्द से ही मशीहा बनी जिन्दगी
दम्भ में पूर्णतः है सनी जिन्दगी
एक छोटा - सा उपकार होता नहीं
बन गयी आज कैसी धनी जिन्दगी//१७//
मात्र आहार ही कथ्य है जिन्दगी
प्राणवायु जहाँ तथ्य है जिन्दगी
आज के दौर में कोई होता नहीं
जीना तो है तभी स्वश्थ्य है जिन्दगी//१८//
आँख में चुभ रही है कहीं जिन्दगी
जाने कितनी अकारण जही जिन्दगी
वैमनश्यता में आयु चली जाती है
प्रेम का पुष्प खिलता नहीं जिन्दगी//१९//
राज अन्तःकरण में लिये जिन्दगी
कितने उपकार हम पर किये जिन्दगी
ज्ञान की ज्योति उर में प्रकाशित करे
बाकी कुछ भी नहीं जो दिये जिन्दगी//२०//
मोक्ष पद मिल सके त्याग है जिन्दगी
आवरण से ढकी राग है जिन्दगी
अपना अस्तित्व खोती समर्पण में जो
वही जीवन का अनुराग है जिन्दगी//२१//
भोगियों के लिए भोग है जिन्दगी
कर्म से जो विमुख रोग है जिन्दगी
जीव का ईश से सम्मिलन दे करा
सत्य का सार्थक योग है जिन्दगी//२२//
धर्म है ही नहीं पाप है जिन्दगी
लोभियों, लोभ का जाप है जिन्दगी
न क्षमा है दया है न करुणा ही है
उनका जीवन ही अभिशाप है जिन्दगी//२३//
साधना के लिए पूर्ति है जिन्दगी
उर में आनन्द दे मूर्ति है जिन्दगी
अपने पथ से नहीं जो विमुख हो रहा
कितने संकट हो स्फूर्ति है जिन्दगी//२४//
तड़पती है कहीं बन विरह जिन्दगी
कर रही है कहीं पर जिरह जिन्दगी
झंझटों से ग्रसित बनके अयहाय - सी
चल रही है कहीं दर गिरह जिन्दगी//२५//
रम में विक्षिप्त - जैसी रमी जिन्दगी
भीड़ है हर जगह पर जमी जिन्दगी
दीख जाती कहीं खिलखिलाते हुए
ड़बड़बाई हैं पलकें नमी जिन्दगी//२६//
सुर्ख जोड़े में जाती कहीं जिन्दगी
काल स्वर्णिम बनाती कहीं जिन्दगी
प्रेम में अपना सर्वस्व देकर स्वयं
डूबकर गम भुलाती कहीं जिन्दगी//२७//
ले हथौड़ी शिला तोड़ती जिन्दगी
धार नदियों की भी मोड़ती जिन्दगी
चन्द लौकिक सुखों के लिए ही सही
पाई - पाई जुटा जोड़ती जिन्दगी//२८//
पग बिना किस तरह घीसती जिन्दगी
अस्पतालों में भी टीसती जिन्दगी
अपने वश का कोई कार्य होता नहीं
क्या करे दाँत ही पीसती जिन्दगी//२९//
छूत है जिन्दगी पूत है जिन्दगी
है भविष्य कहीं भूत है जिन्दगी
रंक, राजा बनी फिरती इतरती है
आदि से अन्त तक सूत है जिन्दगी//३०//
बन रही जिन्दगी ठन रही जिन्दगी
जिन्दगी के लिए धन रही जिन्दगी
शोक संतप्त हो शव लिए साथ में
गाड़ने हेतु में खन रही जिन्दगी//३१//
कट रही जिन्दगी पट रही जिन्दगी
वेहया अनवरत खट रही जिन्दगी
लोभ लालच तथा मोह से आवरित
नित्य प्रतिपल सुघर घट रही जिन्दगी//३२//
लथ रही जिन्दगी पथ रही जिन्दगी
कैसे सम्बन्ध में नथ रही जिन्दगी
अपना बन जाये दूजा गिरे भड़ में
बस इसी भाव से मथ रही जिन्दगी//३३//
जैसा ऐनक हो वैसा दिखे जिन्दगी
नित्य वातावरण से सिखे जिन्दगी
जो भी कर लेते है सत्य की साधना
दूध का दूध पानी लिखे जिन्दगी//३४//
ज्ञान है और विज्ञान है जिन्दगी
लक्ष्य भेदे कठिन बान है जिन्दगी
अपने सम्मोह से मोहती जो जगत
बाँसुरी की मधुर गान है जिन्दगी//३५//
स्मरण हो रही विस्मरण जिन्दगी
हो रही नित्यप्रति संक्षरण जिन्दगी
दृश्य को देखते दिन निकल जाता है
ओढ़ती मृत्यु का आवरण जिन्दगी//३६//
द्वन्द है तो कहीं फन्द है जिन्दगी
कैदखानों में भी बन्द है जिन्दगी
जिसको आये कला जीवन जी लेने की
बस उसी के लिए छन्द है जिन्दगी//३७//
बीत जाये व्यथा में कथा जिन्दगी
कट न पाये कभी अन्यथा जिन्दगी
मिल गयी है सुधा पान कर लेने को
तत्व का ज्ञान, जिसने मथा जिन्दगी//३८//
झेलती जिन्दगी ठेलती जिन्दगी
मन मधुप माधुरी मेलती जिन्दगी
भाव, आभाव का जब सरोकार हो
किस तरह रोटियाँ बेलती जिन्दगी//३९//
सृष्टि कारण सृजक अंश है जिन्दगी
तप से शोधित हुआ वंश है जिन्दगी
चेतना रूप में संचरित हो रहा
दृश्य होता नहीं हंस है जिन्दगी//४०//
स्वाद का स्वाद है दन्त है जिन्दगी
प्रीति सम्बन्ध में कन्त है जिन्दगी
जो स्वयं सिद्ध आनन्द के रूप में
आदि से सम्मिलन अन्त है जिन्दगी//४१//
स्वप्न कितने संजोकर रखे जिन्दगी
अनगिनत घाव उर पर चखे जिन्दगी
वैसे संयोग में जी सभी लेते हैं
गम नहीं तो क्या जीना सखे! जिन्दगी//४२//
मानता कोई समझौता है जिन्दगी
मृत्यु उपलक्ष्य में न्यौता है जिन्दगी
भेद देती मधुर जग के सम्बन्ध को
शब्दभेदी सरौता है जिन्दगी//४३//
अन्ततल में वशा देती भय जिन्दगी
उड़ रही यान में बैठ गय जिन्दगी
भोग अतिशय चरम पर पहुँच जाये तो
संवरण कर रही रोग क्षय जिन्दगी//४४//
उम्रभर रेंकती सेंकती जिन्दगी
फिर जले पर नमक फेंकती जिन्दगी
पात्र भिक्षा का कर में लिए दौड़कर
आश में रास्ता रोंकती जिन्दगी//४५//
काटती है निशा टाट पर जिन्दगी
दीखती मौत के घाट पर जिन्दगी
धन के भण्डार पर कुण्डली मारकर
बैठती ठाट से खाट पर जिन्दगी//४६//
चल रही फिर रही घात में जिन्दगी
अंधेरी घनी रात में जिन्दगी
दीख पड़ती बनाते हुए आज भी
बस हवाई महल बात में जिन्दगी//४७//
नेह में रच रही अल्पना जिन्दगी
खो रही किस तरह कल्पना जिन्दगी
सुख की अनुभूति पलभर हुई ही नहीं
जीना क्या है भला, जल्पना जिन्दगी//४८//
फेरा लेकर बँधी सात पर जिन्दगी
काट देती नमक भात पर जिन्दगी
माझी मझधार नाव से हो विमुख
लगता रखी हुई पात पर जिन्दगी//४९//
सुगमता की मधुर आश है जिन्दगी
जीव का ही तो उपवास है जिन्दगी
आओ प्रतिबद्ध हों बस खुँशी के लिए
द्वेष का नाश अभिलाष हैै जिन्दगी//५०//
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