एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल :---ये गुलशन तो सभी का है----
ये गुलशन तो सभी का है ,तुम्हारा है, हमारा है
लगा दे आग कोई ये नही हमको गवारा है
तुम्हारा धरम है झूठा ,अधूरा है ये फिर मज़हब
ज़मीं को ख़ून से रँगने का गर मक़सद तुम्हारा है
यक़ीनन आँख का पानी तेरा अब मर चुका होगा
जलाना घर किसी का क्यूँ तेरा शौक़-ए-नज़ारा है?
सभी तैयार बैठे हैं डुबोने को मेरी कश्ती --
भँवर से बच निकलते हैं कि जब आता किनारा है
जो तुम खाते ’यहाँ’ की हो, मगर गाते ’वहाँ’ की हो
समझते हम भी हैं ’साहिब’!कहाँ किस का इशारा है
उठा कर फ़र्श से तुमको ,बिठाते हैं फ़लक पे हम
जो अपनी पे उतर आते ,जमीं पर भी उतारा है
ये मज़लूमों की बस्ती है ,यहाँ पर क़ैद हैं सपने
उठाते हाथ में परचम ,बदल जाता नज़ारा है
मुहब्बत की निशानी छोड़ कर जाना ,अगर जाना
कहाँ फिर लौट कर कोई कभी आता दुबारा है
यही तहज़ीब है मेरी ,यही है तरबियत ’आनन’
कि मेरी जान हाज़िर है किसी ने गर पुकारा है
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
तरबियत =पालन-पोषण
ये गुलशन तो सभी का है ,तुम्हारा है, हमारा है
लगा दे आग कोई ये नही हमको गवारा है
तुम्हारा धरम है झूठा ,अधूरा है ये फिर मज़हब
ज़मीं को ख़ून से रँगने का गर मक़सद तुम्हारा है
यक़ीनन आँख का पानी तेरा अब मर चुका होगा
जलाना घर किसी का क्यूँ तेरा शौक़-ए-नज़ारा है?
सभी तैयार बैठे हैं डुबोने को मेरी कश्ती --
भँवर से बच निकलते हैं कि जब आता किनारा है
जो तुम खाते ’यहाँ’ की हो, मगर गाते ’वहाँ’ की हो
समझते हम भी हैं ’साहिब’!कहाँ किस का इशारा है
उठा कर फ़र्श से तुमको ,बिठाते हैं फ़लक पे हम
जो अपनी पे उतर आते ,जमीं पर भी उतारा है
ये मज़लूमों की बस्ती है ,यहाँ पर क़ैद हैं सपने
उठाते हाथ में परचम ,बदल जाता नज़ारा है
मुहब्बत की निशानी छोड़ कर जाना ,अगर जाना
कहाँ फिर लौट कर कोई कभी आता दुबारा है
यही तहज़ीब है मेरी ,यही है तरबियत ’आनन’
कि मेरी जान हाज़िर है किसी ने गर पुकारा है
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
तरबियत =पालन-पोषण
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें