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गुरुवार, 11 सितंबर 2014

वैदिक शब्दावली


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 आज से हम एक नै श्रृंखला शुरू कर रहें हैं वैदिक शब्दावली पढ़िए इसकी पहली किश्त

तीन प्रकार के क्लेश या दुःख

(१ )अध्यात्मिका:इसे आध्यात्मिक दुःख भी कहा  गया है । अध्यात्म को आत्मा भी  कहा गया है अध्यात्म का विज्ञान भी अध्यात्म(Science of spirituality ) कहलाता है। अध्यात्मिका का मतलब  जीवआत्मा (जीवशक्ति यानी आत्मा भी है इसका अर्थ  )की अपनी काया से पैदा व्याधियां ,रोग ,मानसिक दुःख ,मन की स्थिति से पैदा दुःख का अहसास। मन ही सुख दुःख का अनुभव करवाता है क्योंकि माया का आवरण हमें खुद को Self को  शरीर मान लेने की सोच में फंसाये रहता है।हम माया से बने मन को ही सेल्फ मान लेते हैं।

(२) आधिभौतिका (आधिभौतिक दुःख ):हमारे परिवेश में जो दूसरी चीज़ें हैं उनसे पैदा खलल जैसे  आपके आसपास शोर का होना । दूसरों के द्वारा आपको प्राप्त होने  वाला दुःख। आपके माहौल से चला आने वाला दुःख ,विक्षोभ ,किसी भी प्रकार की खलल ,कहीं बम का फटना ,बिजली पानी की आपूर्ति का बाधित होना आधिभौतिक दुःख के तहत आएंगे।

(३) आधिदैविका (आधिदैविक दुःख ):कुदरत से आने वाले दुःख  ,प्राकृतिक आपदाएं ,बाढ़ ,सुनामी ,ज़लज़ला (भूकम्प ),सूखा आदि से पैदा दुःख।

(४ )माया :इसे भगवान की अपरा शक्ति भी कहा गया है। भगवान की इन्फीरिअर एनर्जी ,मटीरियल एनर्जी भी कहा गया है माया को।यह जीव को त्रिगुणात्मक सृष्टि से  पैदा रागद्वेष ,सुख दुःख आदि में फंसाये रहती है। जिस पर भगवान की कृपा हो जाती है उसे फिर माया तंग नहीं करती है। माया भगवान की दासी है नौकरानी है भगवान के भक्त को तंग नहीं करती है । भगवान उसे बतला देते हैं यह आत्मा मेरी है मुझे ही समर्पित है।यह त्रिगुणात्मक सृष्टि  भी  माया (मटीरियल एनर्जी )से ही बनी है। सतो -रजो -तमोगुणी सृष्टि माया ही है।जो इन तीनो गुणों के पर चला जाता है उसे वैकुण्ठ में स्थाई जगह मिल जाती है उसका परांतकाल होता है (Final death ),जन्म मृत्यु के बंधन से वह बाहर निकल आता है वैकुण्ठ में कृष्ण के चरणों में समर्पित रहता है हमेशा हमेशा के लिए। उसका अस्तित्व आकाश -काल -और हरेक  वस्तु से फिर निरपेक्ष हो जाता है समय के नष्ट होने पर वह दिव्य शरीर जो श्री कृष्ण कृष्णभावनाभावित आत्मा को मुहैया करवाते हैं   फिर कभी भी  नष्ट नहीं होता है।

(५ )योगमाया :इसे भगवान की सुपीरियर एनर्जी भी कहा गया  गया है परा शक्ति भी कहा गया है । ईश्वर के अनंत धाम उसके तमाम संगी ,तमाम देवियाँ (नवदेवियाँ )इसी भगवान की योगमाया का विस्तार हैं । चाहे वह कृष्ण लोक हो या गोलोक या कृष्ण का कोई और लोक राधा हो या सीता सब कृष्ण  की योगमाया का ही विस्तार हैं।

(६)सीमान्त ऊर्जा यानी भगवान की मार्जिनल एनर्जी (दिव्य ऊर्जा ):तमाम प्राणियों की देवताओं की आत्माएं भगवान की इसी दिव्य ऊर्जा का एक कण हैं। टाइनी पार्टिकिल हैं। तमाम मनुष्य सृष्टि के अन्य जीव ,पशु पक्षी ,कीट पतंग मृत्यु लोक में इस नश्वर संसार में रहतें हैं। देवता (भगवान का मंत्रीमंडल )देवलोक में रहता है।इसे ही हम स्वर्ग कह देते हैं। स्वर्ग बस हायर प्लेन आफ लिविंग है। ज्यादा सुविधा संपन्न है देवता भी जीवन मृत्यु चक्र से आबद्ध हैं। केवल मनुष्य को ही भगवान के वैकुण्ठ लोक में जाने के अवसर हैं यदि वह पहले अपने सेल्फ को जाने (अहम ब्रह्मास्मि /सच्चिदानंद स्वरूप /सत्यम -ज्ञानम् -अनन्तं स्वरूप को पहचाने और फिर कृष्ण भावना भावित होकर श्रीकृष्ण के श्री चरण कमलों  में प्रेमासक्त होकर मन लगाये। कृष्णकान्शसनेस में रहे तो। इसीलिए मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ  योनि कहा गया है। यहां पृथ्वी पर जब भी भगवान का कोई भक्त गहन तपस्या में लीन  होकर स्वयं को भगवान के चरणों में अर्पित कर देता है इंद्र (लार्ड आफ दा हेविन )की चिंता बढ़ जाती है। तमाम देवताओं के पद अस्थाई हैं।

हमारे जैसे एक नहीं अनंत लोक हैं अनंत सृष्टियाँ हैं अनंत ब्रह्मा -विष्णु -महेश की तिकड़ियाँ (त्रयी ,trinity )हैं।

एक मर्तबा का प्रसंग आपको बतलाते हैं :ब्रह्मा जी श्रीकृष्ण से मिलने उनकी द्वारिका नगरी में गए। कृष्ण के महल के बाहर खड़े द्वारपाल ने पूछा आप कौन हैं किससे मिलना हैं। "भगवान को कहो ब्रह्मा जी आये हैं आपसे मिलने। "-ज़वाब मिला।

द्वार पाल ने जाकर ऐसे ही कृष्ण के सामने  कह दिया। कृष्ण बोले पूछकर आओ आप कौन से ब्रह्मा हैं सनत आदि कुमारों वाले ब्रह्मा हैं या कोई और ब्रह्मा हैं ?ब्रह्माजी का सिर चकराया सोचने लगे मेरे अलावा क्या और भी ब्रह्मा हैं।

कृष्ण से जा पूछा यही सवाल। कृष्ण ने एक एक करके पहले दस सिर वाले फिर सौ और फिर सैंकड़ों हज़ारों सिर वाले ब्रह्मा प्रस्तुत कर दिए। अब ब्रह्मा जी सोचने लगे मेरा ब्रह्म लोक तो बड़ा सीमित है यद्यपि अपने विस्तार में यह दस खरब निहारिकाएं (गेलेक्सीज़ )लिए हैं। और उनमें  से प्रत्येक में औसतन २०० अरब सितारे भी हैं। मेरी सृष्टि का विस्तार तो मात्र इतना ही है ये दस और हज़ार सिर वाले ब्रह्माओं का ब्रह्म लोक कितना विस्तार लिए होगा।ब्रह्मा जी सोच में पड़  गए।  भगवान की लीला को ब्रह्मा भी नहीं जानते फिर हम मनुष्यों की क्या औकात हाँ उसका भक्त बन जाएं अतब और बात है। भगवान फिर तो सारथि भी बन जाते हैं नौकर भी पुत्र भी। जो जिस रूप में ध्यावे उसी रूप पावे।

और फिर ये तमाम लोक तो मात्र कृष्ण की कुल ऊर्जा का एक चौथाई भाग हैं। शेष कृष्ण की तीन चौथाईऊर्जा  में कृष्ण की योगमाया से बने अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं।

(७)क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ :भगवद्गीता में इस मनुष्य शरीर(देह ) को क्षेत्र (फील्ड आफ एक्शन )कहा  गया है।आत्मा को इस शरीर को जानने वाला क्षेत्रज्ञ कहा गया है। क्षेत्री शब्द भी गीता में आत्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है। आत्मा शब्द कई जगह ईश्वर के लिए भी आया है।

पुरुष शब्द आत्मा  के लिए भी आया है  परमात्मा  के लिए भी।पुरुष और प्रकृति (माया यानी मैटीरीअल एनर्जी )शब्द बार बार आये हैं। सृष्टि बनी बनाई कृष्ण में से उद्भूत होती है और उसी कृष्ण की योगमाया में विलीन हो जाती है।

(८)  भागवत :  -भगवत : इदम भागवतम्   यानी जो भी कुछ भगवान का है वाही भागवतम् है। जैसे भगवद्गीता -The Song Of God ,श्रीभागवत -महापुराण यानी भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्रण करने वाला वैदिक ग्रन्थ


श्री कृष्णा इज़ दी सुप्रीम पर्सनेलिटी आफ गॉड हेड।

जयश्रीकृष्णा !  

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह अध्यात्म के ज्ञान में वृध्दी हुई।

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  2. वहुत ही सतही ढंग से कही गयी हैं ......भ्रमात्मक भी है....
    -----अध्यात्म को आत्मा भी ===== अध्यात्म को आत्मा नहीं कहते अपितु आत्मा से सम्बंधित ...
    -----अध्यात्मिका का मतलब जीआत्मा भी नहीं है =आत्मा से सम्बंधित
    ----काया से पैदा व्याधियां ,रोग.....काया में ही तो व्याधियां पैदा होती हैं .जी आध्यात्मिक, अधिभौतिक एवं अधि देविक होती हैं.....काया से कौन सी व्याधियां पैदा होती हैं ...
    ---- ब्रह्म और माया ..दो ही तो होते हैं ..माया ही शक्ति या एनर्जी है .....कोइ अलग अलग इनार्जियाँ थोड़े ही होती हैं सब उसी एक आदि-शक्ति के विविध रूप हैं.....

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