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शुक्रवार, 22 मई 2020

एक ग़ज़ल : क़ातिल के हक़ में --

एक ग़ज़ल : क़ातिल के हक़ में ---

क़ातिल के हक़ में लोग रिहाई में आ गए
अंधे  भी   चश्मदीद   गवाही   में  आ गए

तिनका छुपा हुआ है जो  दाढ़ी  में आप के
पूछे बिना ही आप सफ़ाई  मे आ गए

कुर्सी का ये असर है कि जादूगरी कहें
जो राहज़न थे  राहनुमाई में  आ गए

अच्छे दिनों के ख़्वाब थे आँखों में पल रहे
आई वबा तो दौर-ए- तबाही में आ गए

मुट्ठी में इन्क़लाब था सीने में जोश था
वो सल्तनत की पुश्तपनाही में आ गए

बस्ती जला के सेंक सियासत की रोटियाँ
मरहम लिए वो रस्म निबाही में आ गए

ऐ राहबर ! क्या ख़ाक तेरी रहबरी रही
हम रोशनी में थे कि सियाही में आ गए

’आनन’ तू खुशनसीब है पगड़ी तो सर पे है
वरना तो लोग बेच कमाई में आ गए

-आनन्द.पाठक-

वबा = महामरी
पुश्तपनाही = पॄष्ठ-पोषण,हिमायत
सियाही में = अँधेरे में
मरहम     = मलहम

शनिवार, 9 मई 2020

एक गीत : तुम चाहे जितने पहरेदार ---

एक गीत

तुम चाहे जितने पहरेदार बिठा दो
दो नयन मिले तो भाव एक रहते हैं
  

  दो दिल ने कब माना है जग का बन्धन
  नव सपनों का करता  रहता आलिंगन
  जब युगल कल्पना मूर्त रूप  लेती हैं
  मन ऐसे महका करते  ,जैसे चन्दन

जब उच्छवासों में युगल प्राण घुल जाते
तब मन के अन्तर्भाव  एक रहते हैं

  यह प्रणय स्वयं में संस्कृति है ,इक दर्शन
  यह चीज़ नहीं कि करते रहें  प्रदर्शन
  अनुभूति और एहसास तले पलता है
  यह ’तन’ का नहीं है.’मन’ का है आकर्षण

जब मर्यादा की ’लक्ष्मण रेखा’ आती
दो कदम ठिठक ,ठहराव एक रहते हैं

  उड़ते बादल पर चित्र बनाते कल के
  जब बिखर गये तो फिर क्यूँ आंसू ढुलके
  जब भी यथार्थ की दुनिया से टकराए
  जो रंग भरे थे ,उतर गए सब धुल के

नि:शब्द और बेबस आँखें कहती हैं
दो हृदय टूटते ,घाव एक रहते हैं

तुम चाहे जितने पहरेदार बिठा दो,दो नयन मिले तो भाव एक रहते हैं

-आनन्द.पाठक-

"हे! गुलमोहर" (कृष्ण आधुनिक)

प्रिय गुलमोहर,
निस्संदेह तुम फल न देते हो
किन्तु,जब ग्रीष्म ऋतु में
सूर्य की तपिश से
मौत रूपी अग्नि बरसती है
तब तुम हरे भरे हो
जीवन जीने का संकेत देते हो
और जो तुम विशालकाय हो
तो तुम्हारी पत्तियां
नन्हीं नन्हीं ही तो हैं
तुम्हारे पुष्प जो असुगंधित हैं
भले ही हैं
कोई तोड़ता रोंदता तो नहीं है
हे गुलमोहर वृक्ष,
तुम्हारी नन्हीं नन्हीं
करीने से सजी पत्तियां
बहुत सुन्दर लगती हैं
और टहनियों में जड़े सुंदर पुष्प
और उनका रंग
बहुत भाते हैं
भाती है तुम्हारी छाया भी
ग्रीष्म ऋतु में।

--
कृष्ण आधुनिक

शुक्रवार, 8 मई 2020

चांद को इश्क़ है - एक गीत


चांद को इश्क़ है 
धूप से क्यूं भला ?
रातों के  ....
चांद का ....
दिन की धूप से 
ये सिलसिला 
क्योंकर चला 
कहो तो ज़रा....


चांद के कांधे पे 
काला सा कोई तिल है कहीं 
अटकी है धूप की 
शोख़ नज़रे   दिल भी वहीं 
स्याह से  दाग में
धूप की गर्मियों को 
नर्म सा एक साया मिला 
क्योंकर भला ...


धूप की देह में 
बिखरे हुए है रंग कई
बज उठे नेह के 
 ढोल  सितार  मृदंग कई 
 पानी की बूंद से 
 धूप धनक साया मिला 
क्यों कर भला 









शुक्रवार, 1 मई 2020

एक ग़ज़ल :: मेरे जानां---

एक ग़ज़ल : मेरे जानाँ --

मेरे जानाँ ! न आजमा  मुझको
जुर्म किसने किया ,सज़ा मुझको

जिन्दगी तू ख़फ़ा ख़फ़ा क्यूँ है ?
क्या है मेरी ख़ता ,बता  मुझको

यूँ तो कोई नज़र नहीं  आता
कौन फिर दे रहा सदा मुझको

नासबूरी की इंतिहा क्या  है
ज़िन्दगी तू ही अब बता मुझको

होश फिर उम्र भर  नहीं आए
जल्वाअपना  कभी दिखा मुझको

मैं निगाहें  मिला सकूँ उनसे
इतनी तौफ़ीक़ दे ख़ुदा मुझको

उनका होना भी है बहुत ’आनन’
देता जीने का हौसला मुझको

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

नासबूरी =अधीरता ,ना सब्री

तौफ़ीक़ =शक्ति,सामर्थ्य