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बुधवार, 1 जून 2016

एक निर्दोष पक्षी की ह्त्या  (भाग 1)
‘हम सब प्रयास कर रहे हैं. हम अपराधी को सज़ा दिला कर ही रहेंगे. अगर यहाँ निर्णय हमारे पक्ष में न हुआ तो हम अपील दायर करेंगे. हाई कोर्ट जायेंगे. आवश्यक हुआ तो सुप्रीम कोर्ट भी जायेंगे. परन्तु हम हत्यारे को छोड़ेंगे नहीं. इस बार वह बच न पायेगा. यह चौथी हत्या है जो उसने की है. आज तक उसे सज़ा नहीं मिली. परन्तु इस बार ऐसा न होगा. हम उसे सज़ा दिला कर रहेंगे, हमें कुछ भी करना पड़े. बस, प्लीज् आप थोड़ा धैर्य रखें.’
सुबोध सुन रहा था, पर उसे कुछ भी समझ न आ रहा था. कई विचारों, दुविधाओं व चिंताओं ने उसे एक साथ उसे घेर लिया था. ‘यह सब क्या हो रहा है? सामने बैठा व्यक्ति जो कुछ कह रहा है क्या उसका कोई अर्थ भी है? क्या परिस्थितियाँ उसका उपहास कर रही हैं? यह सब उसके साथ ही क्यों हो रहा है? कहाँ गलती हो गयी? क्या गलती हो गयी?’
एक के बाद एक उठते प्रश्न उसे विचलित करने लगे. अचानक वह उठ खड़ा हुआ और चल दिया. उसे यह भी ध्यान न रहा कि वह अकेला न था. सुधा भी साथ थी. सुधा उसके व्यवहार से थोड़ा घबरा गई थी. लगभग भागती हुई वह उसके पीछे आई.
कार के निकट पहुँच कर ही सुबोध को पत्नी का ध्यान आया. वह एकदम पलता. पलटते ही सुधा को अपने सामने पाया. उसे लगा कि वह उसे ऐसे देख रही थी जैसे कि वह उसका पति नहीं कोई अपरिचित हो. उस क्षण उसे लगा कि अब वह सब कुछ खो बैठा था.
‘तुम्हें आश्चर्य हो रहा है?’ सुधा का प्रश्न एक खंजर-सा उसके भीतर चुभ गया. बिना कुछ कहे ही वह गाड़ी चलाने लगा. उसे उस दिन की याद आई जिस दिन वह नई गाड़ी लेकर घर आया था. पुरानी कार बस एक वर्ष पुरानी थी. फिर भी, जैसे ही एक नया मॉडल बाज़ार में आया था, उसने नवानी को फोन कर नई कार लेने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी. नवानी का केस उसके पास फंसा हुआ था.
अगले ही दिन नई गाड़ी लेकर नवानी हाज़िर हो गया था. गाड़ी देखकर सुबोध चहक उठा था. ‘नवानी साहब, आपका चुनाव तो लाजवाब है. क्या कलर चुना है. अब समस्या यह है कि इस पुरानी कार का क्या करूं?’
नवानी के लिए संकेत ही बहुत था. पुरानी गाड़ी वह साथ लेता गया था. दो दिन बाद उसने चार लाख रूपए भिजवा दिए थे. सुबोध ने मन ही मन कहा था, ‘अच्छा सौदा रहा, बाज़ार में तीन-साढ़े तीन से अधिक न मिलते.’
नई कार देख कर पत्नी के चेहरे पर प्रसन्नता की हल्की-सी लहर भी न उठी थी. उसने यह भी न पूछा था कि गाड़ी कब और कैसे खरीदी. बस इतना ही कहा था, ‘अभी भी समय है, सोचो, तुम यह सब क्यों और किस के लिए कर रहे हो. इस अब का अंत कहाँ और कैसा होगा.’
चिन्नी प्रसन्नता से उछल पड़ी थी. पिता की हर सफलता का वह भरपूर स्वागत करती थी. उसके उत्साह और उसकी प्रफुल्लता को देख कर सुबोध पूरी तरह संतुष्ट हो जाता था. उसे चिन्नी पर बहुत गर्व था. चिन्नी ने उसके जीवन की उस शून्यता को थोड़ा-बहुत भर दिया था जिस शून्यता को सुधा ने उसके जीवन में रोप दिया था.
‘पापा, यह गाड़ी आप मुझे दे दो. आप पुरानी गाड़ी से अपना काम चला लो. मेरे सब फ्रेंड्स अपनी-अपनी गाड़ियों में आते हैं. सिर्फ मैं ही हूँ जिसके पास अपनी गाड़ी नहीं है. इस गाड़ी को देख कर सब जल-भुन कर रह जायेंगे.’
‘ऐसा नहीं हो सकता.’
‘क्यों? क्यों? क्यों?’
‘इसके दो कारण हैं. पहला कारण, तुम भूल रही हो कि तुम अपना ड्राइविंग लाइसेंस खो बैठी हो और अभी तक तुमने अपना नया लाइसेंस नहीं बनवाया है. दूसरा कारण, मैंने पुरानी गाड़ी बेच दी है.’
‘पापा, यू कांट डू दिस टू मी.’
अचानक एक झटका लगा. सुबोध जैसे नींद से जागा, ‘ध्यान ही न रहा, शायद स्पीड ब्रेकर था.’
‘मैंने तुम्हें कई बार चेताया था. परन्तु तुम ने मेरी एक न सुनी. आज परिणाम तुम्हारे सामने है.’ सुधा की वाणी में न क्रोध था, न क्षोभ. सिर्फ एक हताशा थी, हताशा जो अब सुबोध के मन में भी समाने लगी थी.
सुधा से उसका विवाह उसकी मां की इच्छा के अनुसार हुआ था. वह माँ की एक सहेली की बेटी थी. पाँच-सात वर्ष की थी जब उसके पिता का निधन हो गया था. मां ने कई कष्ट झेल कर बेटी को पाला-पोसा था. वह सुंदर पर सीधी-साधी लड़की थी. बी ए पास करने के बाद कुछ करने का सोच ही रही थी कि सुबोध की माँ ने विवाह की बात छेड़ दी थी. सुधा की माँ को अपने कानों पर विश्वास न हुआ था. पति की मृत्यु के बाद वह पूरी तरह निराश हो चुकी थी. जो कुछ पति छोड़ गए थे उससे तो बस दो-चार वर्ष ही ठीक से निर्वाह कर पाई थी. अब उसके पास ऐसा कुछ भी न था जिस के सहारे वह किसी संपन्न परिवार में सुधा का विवाह करने का सपना देखती.
सुबोध प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में सफल होकर आयकर विभाग का एक अधिकारी बन चुका था. कई संपन्न परिवारों से संकेत आ रहे थे. सब लाखों रूपए का दहेज़ देने को भी तैयार थे. परन्तु सुबोध की माँ को सुधा भा गयी थी. उसकी सुन्दरता से अधिक उसके स्वभाव ने उन्हें मोह लिया था. सुबोध अपने ही विभाग में कार्यरत एक लड़की से विवाह करना चाहता था. ट्रेनिंग के समय दोनों साथ ही थे. तभी से वह सुबोध को अच्छी लगती थी. परन्तु वह इतना लजीला था कि उस लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखने का कभी साहस ही न कर पाया था. एक दिन उस लड़की ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी से विवाह कर लिया. सुबोध अपने आप से खीज उठा और उसने तुरंत माँ का प्रस्ताव मान लिया.
सुधा को सब कुछ स्वप्न समान लगा था. उसने कल्पना भी न की थी कि सब कुछ ऐसे होगा. सुबोध उसे किसी राजकुमार से कम न लगा था. वह सोचती कि ऐसा तो सिर्फ परी कथाओं में होता है कि कहीं दूर देश से अचानक आकर कोई राजकुमार किसी सिंड्रेला के साथ विवाह कर लेता है.
सुधा की प्रसन्नता की कोई सीमा न थी. जीवन में सब कुछ बहुत ही सुंदर व मधुर लगने लगा था. सारा खालीपन पल भर में भर गया था. सारे कांटे गुलाबों में परिवर्तित हो गए थे. आकाश छूती, उफनती लहरें मासूम-सी लगने लगीं थीं.
सुधा अपनी इस अनुभूति को अपने पति के साथ भरपूर बांटना चाहती थी. वह चाहती थी कि उनका विवाहित जीवन सौन्दर्य और सुख से परिपूर्ण हो. अपनी इस कामना को जीवंत करने का पूर्ण प्रयास किया उसने. सुबोध भी सुधा के निश्छल प्रेम की धारा में ऐसा बहा कि वह भूल ही गया कि कुछ दिन पहले उसका मन कड़वाहट से भरा पड़ा था.
*
जीवन ने वसंत का रूप ले लिया. हर ओर सुंदर पुष्प थे, पुष्पों की सुगंध थी, रंग-बिरंगी तितलियाँ थीं, चहचहाते पक्षी थे, नीले आकाश में मधुर गति से तैरते बादलों के गुच्छे थे. हर पल कुछ न कुछ गुनगुनाने को मन उत्सुक रहता था. जीवन, इन्द्रधनुष समान, इस छोर से उस छोर तक फैला लगता था.
इन्हीं रस भरे दिनों की बात है कि सुधा और सुबोध एक पार्टी में गए थे. अब सुधा को ठीक से याद भी नहीं कि वह पार्टी किसने दी थी और क्यों दी थी. सुबोध के कई सहकर्मी पति, पत्नियों के साथ आये थी.
हलके-हलके कहकहों के बीच सुधा कभी एक से बात कर रही थी तो कभी दूसरे से. तभी तारा गुप्ता ने आकर कहा था, ‘अच्छा, तुम हो सुबोध की भाग्यलक्ष्मी. तुम से मिलने को मैं बहुत आतुर थी.’
‘मैं भाग्यलक्ष्मी नहीं, सुधा हूँ,’ उसने भोलेपन से कहा था.
‘हाउ स्वीट, तुम सुधा हो, यह मैं भी जानती हूँ. पर क्या तुम जानती हो कि जब से सुबोध ने तुम से विवाह किया है तभी से उसका भाग्य पलट गया है?’ तारा गुप्ता की वाणी में ईर्ष्या ही नहीं, कड़वाहट भी थी.
‘मैं कुछ समझी नहीं?’ सुधा सच में ही कुछ समझ न पाई थी.
‘अब इतनी भोली भी तो तुम नहीं हो, या हमें मूर्ख समझती हो? यह जो हीरों का हार तुमने पहन रखा है, दस बारह लाख से कम का न होगा. कहाँ से आया यह? विवाह के बाद ही सुबोध को एक से बढ़कर एक बढ़िया पोस्टिंग मिली हैं. जहाँ सब लोग कलम घिस रहे हैं सुबोध मज़े से नोट छाप रहा है.’ 
सुधा स्तब्ध रह गयी. उसने कल्पना भी न की थी. ‘सुबोध एक भ्रष्ट अधिकारी है?’ इस प्रश्न ने उसे झंझोड़ दिया. उसने सुबोध की ओर देखा. अपने मित्रों के साथ खड़ा वह कोई ड्रिंक ले रहा था. उसकी मुस्कुराहट को देखा, उसकी चमकती आँखों को देखा, लगा तारा गुप्ता ने अवश्य ही झूठ कहा होगा, सुबोध ऐसा नहीं हो सकता. अनायास ही उसका हाथ गले में बंधे हीरों के हार की ओर गया. उसने हार छुआ और सिहर उठी. अगर यह हार दस बारह लाख का है तो इतने पैसे सुबोध के पास कहाँ से आये? उसे लगा कि कहीं से आकर तपती रेतीली हवा उसके चारों ओर फ़ैल गयी थी. उसे लगा कि उसका दम घुटा जा रहा था.
‘यह हार कितने का है?’ घर लौटते ही उसने पूछा था.
‘इस समय तुम्हें यह क्या सूझा?’
‘यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है.’
‘उस दिन बताया तो था.’
‘तुम्हें पोर्ट एरिया का चार्ज कब मिला?’
‘तुम्हें किसने कहा?’
‘तारा गुप्ता ने.’
‘वह चिढ़ती है मुझसे.’
‘क्या तुम घूस लेते हो?’
सुबोध को लगा कि जैसे किसी ने उठा कर उसे धरती पर पटक दिया था और उसकी छाती पर चढ़ कर बैठ गया था. अचानक शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया. विचार तिरोहित हो गए. उसने बहुत प्रयास किया पर कुछ कह न पाया.
सुधा इस तरह सीधे और सपाट शब्दों में उससे यह प्रश्न कर बैठेगी इसकी उसने कल्पना भी न की थी. उसके मन में संदेह तो था कि सुधा को उसका घूस लेना अच्छा न लगेगा. परन्तु उसे यह आशंका न थी कि उसकी प्रतिक्रिया इतनी तीखी और स्पष्ट होगी. वह हतप्रभ हो गया, परन्तु थोड़े काल के लिए ही. मन के किसी कोने से आवाज़ आई, चलो अच्छा ही हुआ, आज नहीं तो कल सुधा को इस बात का पता चलना ही था, आज नहीं तो कल इस तूफ़ान को आना ही था, आज नहीं तो कल मुझे इस स्थिति को झेलना ही था.
सुधा को किसी उत्तर की प्रतीक्षा न थी. सुबोध के विवर्ण चेहरे को देख कर ही वह सत्य जान गई थी. उसने कुछ कहा नहीं. इस स्थिति में शब्दों का सहारा लेना उसे निरर्थक लगा था.
कुछ दिनों तक दोनों एक-दूसरे से खिंचे-खिंचे से रहे थे. सुधा इस बात को स्वीकारने में अपने-आप को असमर्थ पा रही थी कि उसका पति एक भ्रष्ट अधिकारी था. अब तक वह समझे बैठी थी कि उसके पिता के समान ही सुबोध एक ईमानदार, चरित्रवान पुरुष था.
उसकी माँ ने उसे कितनी बार बताया था कि उसके पिता सरकार के जिस विभाग में कार्यरत थे वहां भ्रष्टाचार ने, एक रोग की भाँति, सभी कर्मचारियों को ग्रसित कर रखा था. परन्तु उसके पिता ने तो ईमानदारी से कार्य करने का व्रत ले रखा था. इस कारण उन्हें बहुत कष्ट भी उठाने पड़े थे. एक झूठे मामले में उनके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी हुई थी. तीन माह तक वह निलंबित भी रहे थे. परन्तु अपने निश्चय से वह कभी भी नहीं डिगे थे.
पिता की जो छवि उसके मन पर अंकित हो गई थी उसने उसकी सोच को बहुत प्रभावित किया था. शायद यही कारण था कि बिना जाने ही उसने मान रखा था कि सुबोध भी एक ईमानदार अधिकारी था.
अब अचानक एक चक्रवात ने सुधा को घेर लिया था. घर की हर वस्तु उसे दूषित लगने लगी थी. जितनी भी सुख-सुविधायें सुबोध ने जुटायीं थीं वह सब अपवित्र लगने लगीं थीं. उसे समझ न आ रहा था कि ऐसा कब तक चलेगा. कई प्रश्न, फन उठाये, नागों समान उसके सामने खड़े हो गए थे. क्या वह कभी सामान्य हो पायेगी? क्या भ्रष्टाचार से अर्जित की हुई संपत्ति का भोग कर पाएगी? क्या उनका विवाहित जीवन अभिशप्त हो जाएगा?
जिस चक्रवात में सुधा अनचाहे ही फंस गई थी, समय की मार ने धीरे-धीरे उसे प्रभावहीन कर दिया. वह कुछ सामान्य हुई. परिस्थितियों को फिर से समझने का उसने प्रयास किया. सोच-विचार कर उसे एक ही रास्ता दिखाई दिया, उसे सुबोध को समझाना होगा, उसे सही रास्ते पर लाने का एक प्रयास करना होगा.
बड़े हौले से उसने बात छेड़ी, अपने मन की दुविधा बताई, अपनी इच्छा से अवगत कराया, अपने प्यार का वास्ता दिया, भविष्य के प्रति उपजी अपनी आशंका की ओर इंगित किया. परन्तु सुबोध पर किसी बात का कोई प्रभाव न पड़ा. उसके मन में कोई संदेह न था. उसने कह दिया कि वह जीवन का भरपूर आनंद उठाना चाहता है और ऐसा तभी संभव है जब पास में धन हो. उसने स्पष्ट कर दिया कि उसे धन चाहिये, धन चाहे कैसा भी हो, चाहे कैसे भी आये.

सुधा डावांडोल हो गयी. परन्तु फिर भी उसने कई बार सुबोध को टोका, कई बार समझाया, कई बार रोका. परन्तु सुबोध ने उसकी एक न सुनी और खूब पैसा बनाया. कई बार वह मामलों को जानबूझ कर उलझा देता था. विवश हो कर दूसरे को उसकी इच्छानुसार पैसे देने ही पड़ते थे. करोड़ों रूपए की सम्पत्ति उसने कुछ ही वर्षों में इकट्ठी कर ली थी. लेकिन यह धन-सम्पदा सुधा को रत्तीभर आकर्षित न कर पायी थी.(कहानी का अंतिम भाग अगले अंक में) 
 ©आइ बी अरोड़ा

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