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शनिवार, 8 सितंबर 2018

एक ग़ज़ल : झूठ का जब धुआँ-----

एक ग़ज़ल :

झूठ का जब धुआँ ये घना हो गया
सच  यहाँ बोलना अब मना हो गया

आईना को ही फ़र्ज़ी बताने लगे
आइना से कभी सामना हो गया

रहबरी भी तिजारत हुई आजकल
जिसका मक़सद ही बस लूटना हो गया

जिसको देखा नहीं जिसको जाना नहीं
क्या कहें ,दिल उसी पे फ़ना हो गया

रफ़्ता रफ़्ता वो जब याद आने लगे
बेख़ुदी में ख़ुदी  भूलना हो गया

रंग चेहरे का ’आनन’ उड़ा किसलिए ?
ख़ुद का ख़ुद से कहीं सामना हो गया ?

-आनन्द.पाठक-

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