चन्द माहिया
1
ये रात ,ये तनहाई
सोने कब देती
वो तेरी अंगड़ाई
2
जो तू ने कहा, माना
तेरी निगाहों में
फिर भी हूँ अनजाना
3
कुछ दर्द-ए-ज़माना है
और ग़म-ए-जानां
जीने का बहाना है
4
कूचे जो गए तेरे
सजदे से पहले
याद आए गुनह मेरे
5
इक वो भी ज़माना था
हँस कर रूठी तुम
मुझको ही मनाना था
-आनन्द.पाठक-
1
ये रात ,ये तनहाई
सोने कब देती
वो तेरी अंगड़ाई
2
जो तू ने कहा, माना
तेरी निगाहों में
फिर भी हूँ अनजाना
3
कुछ दर्द-ए-ज़माना है
और ग़म-ए-जानां
जीने का बहाना है
4
कूचे जो गए तेरे
सजदे से पहले
याद आए गुनह मेरे
5
इक वो भी ज़माना था
हँस कर रूठी तुम
मुझको ही मनाना था
-आनन्द.पाठक-
सुन्दर माहिया रचे हैं आपने
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आप का
हटाएंसादर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-04-2020) को "मुस्लिम समाज को सकारात्मक सोच की आवश्यकता" ( चर्चा अंक-3672) पर भी होगी। --
जवाब देंहटाएंसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
कोरोना को घर में लॉकडाउन होकर ही हराया जा सकता है इसलिए आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप का
हटाएंसादर
सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएं