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गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

उर्दू बहर पर एक बातचीत :क़िस्त 10

उर्दू बह्र पे एक बातचीत :: क़िस्त 10

  ज़िहाफ़ात
[disclaimer clause -वही जो क़िस्त 1 में था]

 [पिछली क़िस्त 09 में मैने ज़िहाफ़ात [ब0ब0 ज़िहाफ़] के बारे में ज़िक़्र किया था।जिसे आप यहाँ देख सकते है
www.urdu-se-hindi.blogspot.com]

इस मज़्मून में  ज़िहाफ़ क्या होते हैं ,कितने क़िस्म के होते है  ,उर्दू शायरी में इनकी क्या अहमियत या हैसियत है , ज़िहाफ़ात न होते तो क्या होता वग़ैरह वग़ैरह पर बातचीत करेंगे
"ज़िहाफ़" का लगवी मानी [शब्द कोशीय अर्थ] ...न्यूनता ,कमी,छन्द की मात्राओं के काट-छाँट कतर-व्योंत करना वगैरह. होता है
मगर शायरी के इस्तलाह [परिभाषा ] में किसी सालिम रुक्न की वज़न [मात्राओं] में काट-छाँट ,क़तर-ब्योंत करना .कम करने के अमल  को ज़िहाफ़ कहते हैं । ज़िहाफ़ लगाने से हमेशा मात्रा में कमी ही हो जाती है ऐसा भी नहीं है कभी कभी वज़न बढ़ भी जाता है। कैसे बढ़ जाता है इसकी चर्चा आगे करेंगे।
तसव्वुर कीजिये कि ’ज़िहाफ़’ न लगाते या ज़िहाफ़ न होता तो क्या होता ? कुछ नहीं होता । सारे शायर बस उन्हीं 7-सालिम और 12 मुरक्क़ब बहूर में शायरी करते रहते फिर शायरी में रंगा रंगी न आती ,जीवन्तता न आती विविधता न आती । बयान की वुसअत न आती ।
तसव्वुर कीजिये कि आप के ज़ेहन [दिमाग] में कोई मिसरा सरज़द [निसृत] हुआ । ज़रूरी नहीं कि मिसरा किसी बहर में ही हो। असातिज़ा शायर[ उस्ताद शायर] जो हज़ारों अश’आर कहते सुनते पढ़ते आए हैं ,मुमकिन है कि उनके मिसरे किसी बहर में ही सरज़द हों मगर जो नौ-मश्क़ [ नए नए उभरते शायर] शायर हैं उन्हे अपने मिसरे को तरासना होता है किसी ज़िहाफ़ की मदद से-किसी बहर में।
तो फिर ये ज़िहाफ़ है क्या ?
ज़िहाफ़ उर्दू शायरी में एक अमल है जो सालिम बहर की शकल और मात्राओं को बदल देता है और बहर फिर भी आहंग में रहती है
आलिम जनाब कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब [ जो उर्दू अरूज़ के मुस्तनद [प्रामाणिक] अरूज़ी है अपनी किताब "आहंग और अरूज़" में इन ज़िहाफ़ात की संख्या 48 [अड़तालिस] बतलाई है। घबराईए नहीं। ये सारे ज़िहाफ़ात न आप को याद रखने है और न ही ये सारे ज़िहाफ़ात किसी एक सालिम् बहर पर ही लगते है। ख़ास ज़िहाफ़ात ख़ास सालिम रुक्न पर ही लगते हैं
ज़िहाफ़ के बारे में कुछ बुनियादी बातें है जो ध्यान देने योग्य हैं
1- सारे ज़िहाफ़ सारे रुक्न पर नहीं लगते । कुछ ज़िहाफ़ कुछ ख़ास रुक्न के लिए ख़ास तौर से निर्धारित है हैं[आगे आयेगा]
2-ज़िहाफ़ के अमल से सालिम रुक्न की वज़न ,शकल और नाम बदल जाते हैं और बदली हुई रुक्न[ बदली हुई शकल] को ’मुज़ाहिफ़’शकल कहते है [आगे आयेगा]
3- यह तो आप जानते ही होंगे और पिछले क़िस्तों में ] में हम बयान भी कर चुके हैं कि सालिम रुक्न -सबब-[2-हर्फ़ी लफ़्ज़]और वतद [3-हर्फ़ी लफ़्ज़] के combination से बनते हैं तो ये ज़िहाफ़ भी ’सबब’ और ’वतद’ पर ही लगते हैं । सबब पे लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होते हैं और वतद पे लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होते हैं।
4-कुछ ज़िहाफ़ आम होते है जो शे’र के किसी भी मुकाम [ सदर..हश्व...अरूज़...इब्तिदा...ज़र्ब] पर आने वाले रुक्न पर लगते है इसे आम ज़िहाफ़ कहते हैं
जब कि कुछ ज़िहाफ़ सिर्फ़ सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस है या फिर अरूज़ या ज़र्ब मुकाम के लिए ख़ास है [सदर..हस्व...अरूज़...आदि की चर्चा पिछले क़िस्तों  में कर चुके हैं]उन्हें ख़ास ज़िहाफ़ कहते हैं
3- किसी रुक्न पर एक साथ दो ज़िहाफ़ का भी अमल हो सकता है । उसे मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ [मिश्रित ज़िहाफ़]कहते हैं ।यानी दोनो ज़िहाफ़ रुक्न पर एक साथ ही लगेंगे। यह नहीं कि सालिम रुक्न पर एक ज़िहाफ़ का अमल कर दिया और उसकी मुज़ाहिफ़ शकल मिल गई और फिर उसके बाद उस  मुज़ाहिफ़ शकल पर दूसरे ज़िहाफ़ का अमल किया ।्यह अरूज़ी लिहाज से ग़लत होगा।
ज़िहाफ़ हमेशा सालिम रुक्न पर ही लगता है टूटी-फूटी शकल पर नहीं।
4-कुछ ज़िहाफ़[11-ज़िहाफ़] तो अरबी बहर [ बह्र-ए-कामिल और बहर-वाफ़िर ] के लिए मख़्सूस हैं
5 ज़िहाफ़ का अध्याय इतना विस्तृत है  कि इस संक्षिप्त] आलेख में विस्तृत वर्णन करना संभव नहीं है फिर भी
 हम यहाँ 48 -ज़िहाफ़ के नाम न लिख कर ,चन्द मक़्बूल और मशहूर  ज़िहाफ़ का ही नाम लिख रहा हूँ जो उर्दू शायरी में  [प्रचलित] ,मक़्बूल और आहंग खेज़ है
6- ज़िहाफ़ बनाने के कुछ ख़ास नियम ,क़ायदा,.Rules निर्धारित है कि कौन सा ज़िहाफ़ रुक्न के किस स्थान से कौन से मक़ाम का मात्रा गिरायेगा या साकिन कर देगा या साकित कर देगा या उसके अमल से क्या होगा जैसे---
उदाहरण के लिए -एक ज़िहाफ़ है ’ख़ब्न" ---अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है तो इस ज़िहाफ़ का काम है. सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के दूसरे हर्फ़  को गिराना [ज़ाहिर है कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ का दूसरा हर्फ़ साकिन ही होता है]
फिर उसकी मुज़ाहिफ़ बहर के नाम में "मख्बून’ जोड़ देंगे

वैसे ही एक ज़िहाफ़ है ;कस्र’ ---- अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर खत्म होता है तो ज़िहाफ़ क़स्र आखिरी साकिन को साकित कर के उस से पहले वाले हर्फ़ की हरकत को साकिन कर देता है
और उसकी मुज़ाहिफ़ बहर के नाम में ’मक़्सूर’ जोड़ देंगे जैसे

या ऐसे ही एक ज़िहाफ़ है ’ख़रम’ ---अगर कोई रुक्न वतद मज़्मूआ से शुरू हो रहा है तो शुरू होने वाले पहले हर्फ़ को गिराना ’ख़रम’ कहलाता है
और फिर मुज़ाहिफ़ बहर के नाम में ’अख़रम’ जोड़ देंगे

कहने का मतलब यह कि ऐसे ही हर ज़िहाफ़ का अपना उसूल है ...नियम है ...क़ायदा है...कानून है ,जो अरूज़ की किसी किताब में आसानी से मिल जायेगा
अत: हर ज़िहाफ़ का कुछ न कुछ काम होता है जो रुक्न के किसी न किसी स्थान से वज़न का कमी कर देता है  या काट-छाँट कर देता है
मगर कुछ ज़िहाफ़ ऐसे भी है जो रुक्न के वज़न को बढ़ा भी देते हैं [ रुक्न के हर्फ़-ए-अल आखिर मे] यानी रुक्न के आखिरी हर्फ़ में इज़ाफ़ा भी कर देता है
यहाँ पर सभी ज़िहाफ़ात की चर्चा करना न मुमकिन है न मुनासिब है पर यहाँ हम कुछ ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ की चर्चा करेंगे
ज़िहाफ़ के नाम        मुज़ाहिफ़  नाम            
ख़ब्न मख़्बून
इज़्मार मुज़्मार
ख़रम अख़रम
ख़रब अख़रब
ह्ज़्फ़ महज़ूफ़
क़तअ मक़्तूअ
कस्र मक़्सूर
क़फ़ मक़्फ़ूफ़
शकल मश्कूल
सलम असलम
शतर अशतर
बतर अबतर
कब्ज़ मक़्बूज़
वग़ैरह....वग़ैरह....वग़ैरह.....वग़ैरह....

अरूज़ में कुछ ज़िहाफ़ ’वतद" के लिए ही मख़्सूस [ख़ास  तौर से निर्धारित ] हैं जो लगेगा तो ’वतद’ पर ही लगेगा जैसे.जैसे.ख़रम..सालिम...हज़ज वग़ैरह वग़ैरह......। यह  और बात है कि वतद के भी 3-भेद [ वतद.ए-मज़्मूआ...वतद-ए-मफ़रुक़...वतद-ए-मौकूफ़ ] होते हैं और इनके लिए भी अलग अलग ’ज़िहाफ़ निर्धारित हैं ...
और कुछ ज़िहाफ़ "सबब" के लिए मख़्सूस है जो लगेगा तो सबब पर ही लगेगा ।जैसे.ख़ब्न...तय्यी...क़ब्ज़..कफ़...वग़ैरह वग़ैरह वग़ैरह ।.यह  और बात है कि सबब के भी 2-भेद [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और सबब-ए-सकील] होते है और इनके लिए भी अलग अलग ज़िहाफ़ निर्धारित हैं

 अब ऊपर कही हुई बातों को एक उदाहरण से स्पष्ट करते है
एक बहर है -मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम जिसका वज़न होता है ’फ़ऊलुन...फ़ऊलुन...फ़ऊलुन...फ़ऊलुन [यानी 122    122   122  122 ] .यह सालिम बहर है और ’फ़ऊलुन’-सालिम रुक्न है। "फ़ऊ लुन" --एक वतद [तीन हर्फ़ी  फ़ऊ (1 2) ] और एक सबब [दो हर्फ़ी  लुन (2)} से बना है । अब जो भी ज़िहाफ़ लगेगा वो इसी वतद और सबब पर लगेगा।
 ज़िहाफ़ के अमल से सिर्फ़ इसी बहर यानी बहर-ए-मुतक़ारिब  के 13 से ज़्यादा मुज़ाफ़िफ़ बहर बरामद की जा सकती हैं
[नोट-ध्यान रहे कि हर सालिम रुक्न =8 नं0 [फ़ऊलुन...फ़ाइलुन...फ़ाइलातुन...मफ़ाईलुन....मुसतफ़इलुन.. मुफ़ाइलतुन...मुतफ़ाइलुन...मफ़ऊलात] वतद + सबब् के combination - से ही बना है और ज़िहाफ़ भी इन्ही वतद और सबब के टुकड़े पर लगेंगे।]
अब इसी बहर में एक शे’र पढ़ते हैं.जो बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है...[अल्लामा इक़बाल का बड़ा ही मशहूर और दिलकश शे’र है]
122--122---122----122
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

यह शे’र अरूज़ के लिहाज़ से बिल्कुल वज़न और बहर में है दुरुस्त है साथ ही साथ बहुत ही मानीख़ेज़ [अति अर्थपूर्ण] भी है

अब एक काम करते है
आखिरी रुक्न [औ] र भी हैं [1 2 2] जो शे’र के अरूज़ [मिसरा ऊला ] और इत्तिफ़ाकन शे’र के जर्ब [मिसरा सानी] के मुकाम पर वाके हुआ है में थोड़ी तब्दीली कर देते है [ अल्लामा साहिब से क्षमा याचना सहित] मे से- ’है"- हटा देते है फिर देखते है क्या होता है

122    ---122---  122----12
सितारों के आगे जहाँ और भी
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी
वज़न और बहर के लिहाज़ से यह शे’र भी दुरुस्त है
अब इसका वज़न हो गया 122---122---122---12 यानी सूरत बदल गई और वज़न बदल गया यानी आखिरी रुक्न [1 2 2] के बजाय अब [1 2 ] हो गया यानी आखिरी रुक्न पर कोई ज़िहाफ़ लग गया । जी हाँ ,और उस ज़िहाफ़ का नाम है ’हज़्फ़’ । ज़िहाफ़ "हज़्फ़" का काम है ---अगर किसी रुक्न के अन्त में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [यहाँ पर [औ] र भी हैं 1 2 2 में "है" (2)] आता है तो "हज़्फ़’ उस सबब-ए-ख़फ़ीफ़ को साक़ित यानी शान्त कर देता है] बज़ाहिर अब मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम बहर ’मुज़ाइफ़’ बहर हो गई और इस बहर का नाम बदल जायेगा यानी ’बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़" [क्योंकि आखिरी रुक्न पर ’हज़्फ़’ का अमल है]
यही सूरत तब भी होगी जब मतला में से ’"भी’-हटा देंगे तब मतला हो जायेगा
122    122    122  12
सितारों के आगे जहाँ और हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और हैं

यानी वज़न 122---122---122--12 हो गया और बहर का नाम बज़ाहिर "मुसम्मन सालिम महज़ूफ़’ होगा । कारण वही कि आखिरी रुक्न में "हज़्फ़’ [1 2 फ़ऊ] है
यहाँ ’हज़्फ़’ -एक ख़ास ज़िहाफ़ है कारण कि यह शे’र के ’अरूज़’ और जर्ब’ मुक़ाम के लिये निर्धारित है । मिसरा ऊला का आखिरी रुक्न का मुक़ाम अरूज़ का मुकाम  है और मिसरा सानी के आखिरी रुक्न का मुकाम "जर्ब’ का मुकाम है और यह ज़िहाफ़ सिर्फ़ इन्हीं दो ख़ास मुक़ाम पर लगेगा अत: यह ख़ास ज़िहाफ़ है
अब आप के सामने अल्लामा साहब के नज़्म के 3-विकल्प है

(1)  सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं  -----  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम[122---122---122---122]

(2) सितारों के आगे जहाँ और भी
    अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी ----------बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ [122---122---122---12]

(3)  सितारों के आगे जहाँ और हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और हैं --------  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ [122---122---122---12]

अब आप यह तय करें कि इन तीनों अश’आर में कौन सा शे’र आप को ज़्यादा पसन्द है और क्यों?
इस नज़्म के अन्य शे’र नीचे लिख रहा हूँ

सितारों के आगे जहाँ और भी है
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

तू तायर है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं

गए दिन कि तनहा था मैं अन्जुमन में
यहाँ अब मिरे राज़दाँ और भी हैं

इसी प्रकार हर उर्दू की बहर पर कोई न कोई ज़िहाफ़ लगाया जा सकता है क्योंकि बहर रुक्न से बनता है और रुक्न ’सबब [2-हर्फ़ी लफ़्ज़] और वतद [3-हर्फ़ी लफ़्ज़] ’ से बनता है  और ज़िहाफ़ इन्हीं वतद और सबब पर लगता है।ऐसे ही अन्य बहर और अन्य ज़िहाफ़ पे चर्चा की जा सकती है।
सिर्फ़ इस रुक्न पे ही अगर 8-10 ज़िहाफ़ लग सकते हैं तो आप कल्पना कर सकते है कि 8-सालिम रुक्न पर कितने ज़िहाफ़ लग सकते है और 19- उर्दू की बहरों की कितनी मुज़ाहिफ़ शकलें हो सकती हैं। मगर घबराईए नहीं । कोई भी शायर सभी बहर में शायरी नहीं करता और न ही सभी मुज़ाहिफ़ बहर में शायरी करता है । वो तो ख़ास ख़ास और मक़्बूल बहर में ही शायरी करता है और ये बहरे लगभग 200 के आस-पास बैठती हैं।
अब एक बुनियादी सवाल --
(क) क्या शायरी के लिए ’अरूज़’ का जानना ज़रूरी है?
कत्तई नहीं ,बिना अरूज़ की जानकारी के भी शायरी की जा सकती है। दर हक़ीक़त बिना मुकम्मल अरूज़ की जानकारी के भी लोग शायरी करते  हैं । अरूज़ जानना वैसे ही ज़रूरी नही है जैसे मुहम्मद रफ़ी के गाना गाने के लिए आप को संगीत की विधिवत शिक्षा लेना ज़रूरी नहीं बस आप को वही लय वही सुर वही ताल वही आलाप वही अवरोह वही आरोह मिला कर भी मुहम्मद रफ़ी के [या ऐसे ही किसी और शायर के] गाने गा सकते है। वैसे ही आप किसी उस्ताद शायर के अश’आर के लय [आहंग ] पर भी शे’र कह सकते है मगर
फिर आप को कभी ये पता न लगेगा और न ही बारीकियाँ ही पता चल पायेगी कि कमी कहाँ पर है और क्यों है या इस में और सुधार की कहाँ गुंजाईश है
(ख) क्या एक अच्छा अरूज़ी [उर्दू का छन्द शास्त्र जानने वाला] क्या एक अच्छा शायर भी होता है?
ज़रूरी नहीं कि एक अच्छा अरूज़ी -एक अच्छा शायर भी हो या एक अच्छा शायर अच्छा अरूज़ी भी हो। दोनो अलग अलग बातें हैं अगर किसी शख़्स में ये दोनों सिफ़त एक साथ  हो तो कहना ही क्या....सोने में सुहागा ...या सोने में सुगन्ध !!!

शायरी सिर्फ़ बहर--वज़न ..रुक्न...मात्रा का ही खेल नहीं असल बात तो उसके ’कथ्य’ में होती है....शे’र की बुनावट में होती है ..मुहावरो के सही प्रयोग में होता  है और यही शायर का हुनर है और यही शे’र का हुस्न है।वरना आजकल तो मंच पर हर तीसरा आदमी शायरी कर रहा है कुछ लोगों की शायरी में कथ्य और बुनावट की बात तो छोड़ ही दीजिए ..मात्रा वज़न क़ाफ़िया रदीफ़ का तो .मालिक .अल्ला अल्ला खैर सल्ला..और उस पर  तुर्रा ये कि 50-100 वाह वाह भी करते मिल जायेंगे हर मंच पर।यही कारण है कि फ़क़त तुक भिड़ा देना या तुकबन्दी कर देना ही शायरी नहीं होती।
चलते चलते----
[ नोट : और अन्त में
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
09413395592

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (06-12-2014) को "पता है ६ दिसंबर..." (चर्चा-1819) पर भी होगी।
    --
    सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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