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शनिवार, 4 अप्रैल 2015

सीखी कहाँ से नवाबजूं ऐसी देनी देन ? ज्यों- ज्यों कर ऊंचे चढ़ें ,त्यों त्यों नीचे नैन

 देनहार कोई और है ,जो देता दिन रेन

लोग भरम मो पे करें ,ताते नीचे नैन।

प्रसंग है संतकवि  रहीम का (पहले नवाब और राजा भी संत होते थे )जिनका पूरा नाम था अब्दुल रहीम खानखाना था । कहतें हैं उनके दरबार से कोई खाली हाथ न जाता था। दान देते वक्त उनकी नज़रें विनम्रता से नीचे झुक जाती थीं ,उपकृत महसूस करते थे ,आभार व्यक्त करते थे लेने वाले का।

उनकी इसी विनम्रता से अभिप्रेरित हो एक मर्तबा उनके समकालीन कवि गंग ने ये उदगार तब व्यक्त किये जब उन्होंने देखा कि उनके दरबार में पहुंचा एक व्यक्ति कई बार जकात ले चुका है और बारहा  फिर  से मांगने खड़ा होजाता है कतार में शामिल हो:

सीखी कहाँ से नवाबजूं ऐसी देनी देन ?

ज्यों- ज्यों कर ऊंचे चढ़ें ,त्यों त्यों नीचे नैन।

यानी जैसे जैसे जकात में दी गई राशि बढ़ती जाती है विनम्रता का सहभाव भी उसी अनुपात में आपसे आप बढ़ जाता है।
"नवाब साहब दान देने का ऐसा विनम्र (निरहंकारी )तरीका आपने कहाँ से सीखा ?"-गैंग बोले।

प्रत्युत्तर रहीम ने कवित्त में ही दिया जो गौर तलब है :

देनहार कोई और है ,जो देता दिन -रैन ,

लोग भरम मो पे करें ,ताते नीचे नैन।

असल में देने वाला तो कोई और  है वह अल्लाह ताला है जिसका दरबार हमेशा खुला रहता है ,लोग खाम -खा हमें दाता मान लेते हैं इसीलिए  सिर  झुकजाता है उसके सिज़दे में। एहसान से।  शर्म से।

जय श्री कृष्ण। 

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