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बुधवार, 17 अगस्त 2022

एक ग़ज़ल


एक ग़ज़ल


नई जब राह पर तू चल तो नक़्श-ए-पा बना के चल,

क़दम हिम्मत से रखता चल, हमेशा सर उठा के चल ।



बहुत से लोग ऐसे हैं , जो काँटे ही बिछाते हैं ,

अगर मुमकिन हो जो तुझसे तो गुलशन को सजा के चल । 



डराते है तुझे वो बारहा बन क़ौम के ’लीडर’ ,

अगर ईमान है दिल में तो फिर नज़रें  मिला के चल ।



किसी का सर क़लम करना, सिखाता कौन है तुझको ?

अँधेरों से निकल कर आ, उजाले में तू आ के चल ।



तुझे ख़ुद सोचना होगा ग़लत क्या है सही क्या है ,

फ़रेबी रहनुमाओं से ज़रा दामन बचा के चल ।



न समझें है ,न समझेंगे , वो अन्धे बन गए क़स्दन ,

मशाल इन्सानियत की ले क़दम आगे बढ़ा के चल ।



सफ़र कितना भी हो मुशकिल, लगेगा ख़ुशनुमा ’आनन’

किसी को हमसफ़र, हमराज़ तो अपना बना के चल ।




-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ


क़स्दन = जानबूझ कर


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