एक ग़ज़ल
हर बार अपनी पीठ स्वयं थपथपा रहे
’कट्टर इमानदार हैं-खुद को बता रहे
दावे तमाम खोखले हैं ,जानते सभी
क्यों लोग बाग उनके छलावे में आ रहे?
झूठा था इन्क़लाब, कि सत्ता की भूख थी
कुर्सी मिली तो बाद अँगूठा दिखा रहे
उतरे हैं आसमान से सीधे ज़मीन पर
जो सामने दिखा उसे बौना बता रहे
वह बाँटता है ’रेवड़ी’ खुलकर चुनाव में
जो लोग मुफ़्तखोर हैं झाँसे मे आ रहे
वो माँगते सबूत हैं देते मगर न खुद
आरोप बिन सबूत के सब पर लगा रहे
वैसे बड़ी उमीद थी लोगों की ,आप से
अपना ज़मीर आप कहाँ बेच-खा रहे
’आनन’ वो तीसमार है इसमें तो शक नहीं
वो बार बार काठ की हंडी चढ़ा रहे ।
-आनन्द.पाठक-
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार 4 सितम्बर, 2022 को "चमन में घुट रही साँसें" (चर्चा अंक-4542) (चर्चा अंक-4525)
जवाब देंहटाएंपर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कृपा आप की🙏
हटाएंवाह! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंआभार आप का
हटाएंशत प्रतिशत सही
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप का
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