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मंगलवार, 27 सितंबर 2022

एक ग़ज़ल :हर जगह झूठ ही झूठ की है ख़बर--

  एक ग़ज़ल 


हर जगह झूठ ही झूठ की है ख़बर ,

पूछता कौन है अब कि सच है किधर?


इस क़लम को ख़ुदा इतनी तौफीक़ दे,

हक़ पे लड़ती रहे बेधड़क उम्र भर ।


बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी,

बेच कर आ गए वो नसीब-ए-सहर।


जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन,

या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ  बन्द कर ।


उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो -

अपने अन्दर न देखा कभी झाँक कर ।


तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू ,

ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर।


एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी,

तेरे नग़्मों  का होगा कभी तो असर ।



-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ -

ज़ुल्मात से = अँधेरों से 

सहर        = सुबह 

दस्तार पर = पगड़ी पर, इज्जत पर 

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! बहुत खूब ! सुनने वालों के दिल की बात आपने कह दी ।

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  2. मज़मून पर नाइत्तिफ़ाकी हो सकती है, मगर गज़ल बहुत उम्दा है पाठक साहब!

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