एक ग़ज़ल
हर जगह झूठ ही झूठ की है ख़बर ,
पूछता कौन है अब कि सच है किधर?
इस क़लम को ख़ुदा इतनी तौफीक़ दे,
हक़ पे लड़ती रहे बेधड़क उम्र भर ।
बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी,
बेच कर आ गए वो नसीब-ए-सहर।
जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन,
या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ बन्द कर ।
उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो -
अपने अन्दर न देखा कभी झाँक कर ।
तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू ,
ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर।
एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी,
तेरे नग़्मों का होगा कभी तो असर ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
ज़ुल्मात से = अँधेरों से
सहर = सुबह
दस्तार पर = पगड़ी पर, इज्जत पर
वाह!गज़ब कहा सर 👌
जवाब देंहटाएंआभार आप का🙏🙏
हटाएंवाह ! बहुत खूब ! सुनने वालों के दिल की बात आपने कह दी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद🙏🙏
जवाब देंहटाएंकृपा आप की शास्त्री जी 🙏
जवाब देंहटाएंमज़मून पर नाइत्तिफ़ाकी हो सकती है, मगर गज़ल बहुत उम्दा है पाठक साहब!
जवाब देंहटाएंकाफी बेहतरीन ग़ज़ल बहुत अच्छा लगा पढ़कर
जवाब देंहटाएं