मुक्तिपथ –
कन्हैया नंदन जी मेरे परम मित्रों में हैं। वे एक सफल व कुशल अधिकारी के साथ एक एक अच्छे साहित्यकार भी हैं। सबसे बढ़कर वे एक सफल व्यक्तित्व हैं। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों, ज्ञान, विज्ञान, खेल, कर्मठता, प्रेम, सौहार्द, सम्बन्ध , मित्रता आदि सभी में वे उन्मुक्त व्यवहारी व सफल व्यक्ति हैं। मेरी मित्रता एक सफल साहित्यकार के नाते रही है। हम एक समारोह में मिले, मित्रता हुई, वाद-विवाद व लम्बे पत्रोत्तरों का सिलसिला चला। लगभग चार वर्षों से उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ। कुछ दिन पहले उनका एक पत्र मिला जिससे ज्ञात हुआ कि वे अज्ञातवास में हैं। पत्र के साथ उनके पढ़ने के कमरे की चाभी भी थी। पत्र का मंतव्य था कि अब वे शीघ्र लौट कर नहीं आयेंगे और उनकी आलमारी में जो भी कागज़-पत्र, अप्रकाशित रचनाएं आदि या जो कुछ भी है अब मेरे स्वामित्व में है, मैं जैसे भी चाहूँ उसका उपयोग व निस्तारण करने को स्वतंत्र हूँ।
वे मुक्ति-पथ की ओर खोजलीन हैं। यह बात मैं उनके परिवार को भी बता दूँ, वे ढूंढने का उपक्रम न करें, चिंता की कोई बात नहीं है जब ठीक समझेंगे वे स्वयं ही आजाएँगे।
साहित्य से सम्बंधित लगभग सभी सामग्री मैंने हस्तगत करली, जिसमें एक डायरी, कुछ रचनाएं व कुछ पत्र आदि थे। मुझे सबसे अधिक आकृष्ट किया कुछ हस्तलिखित पत्रों की असंपादित-रद्दी प्रतियों ने, जो उन्होंने लोगों के अपने प्रति विचारों पर अन्य विवेचनात्मक टिप्पणियों सहित भेजे होंगे। वे वास्तव में एक सफल व्यक्तित्व के आत्म-निरीक्षण के दस्तावेज़ थे। वही दस्तावेज़ मैं आगे के पन्नों में आपके सम्मुख ज्यों के त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ।
पत्र एक---
नीरज, आशीर्वाद।
बेटे, तुम कुछ नया करना चाहते हो। नीति-रीति के नए अंदाज़ से मुझे चौंकाना चाहते हो। पुत्र का पिता से प्रतिद्वंद्विता का भाव होता है। तुम, हम भी कुछ हैं, यह जमाने को बताना चाहते हो। नीति-रीति की संकीर्णता तोड़कर समाज में विचार वैविध्य व उन्नन्ति के सोपानों की एक सीढ़ी अंतरजातीय विवाह भी है। प्रसन्न ही हूँ, चाहे चौंकाने के भाव से ही सही, मेरे भाव को ही तुम आगे बढाओगे। मैं तो कलम का सिपाही हूँ। चाहे कलम हो या कूंची-ब्रुश या चाकू -- सर्जना मेरा कर्म है, धर्म है। आशीर्वाद है।
लगभग ३५ वर्ष पहले जब मैंने सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विवाह किया था तो वह बहुत सी व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक लालसाओं व आकर्षणों को त्याग कर, समाज में नारी को उन्नंत दिशा प्रदान करके भावी पीढ़ी को आगे दिशा निर्देश का प्रयास भर था। अब लगता है उसका परिणामी रूप सम्मुख आ रहा है। मैं साथ हूँ। मैं आऊँगा तुम्हारी सफलता का एक पृष्ठ लिखने।
बेटे ! तुम कहते हो कि आपको किसी बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। आपके लिए तो "आउट आफ साईट आउट आफ माइंड"। “कविता से दुनिया नहीं चलती” आदि। इसका अर्थ है कि मैं तुम्हारे किये कार्यों व उपलब्धियों की, नए नए कलापों की तुम्हारी माँ की भांति अत्यधिक प्रशंसा नहीं करता। पुत्र की उपलब्धियों पर अत्यधिक उत्सुकता, एक्साईटमेंट प्रदर्शित नहीं करता। सच है। हाँ, मैं ऐसा ही हूँ। आज तुम्हारे कथन से मुझे लगता है कि शायद मैं अपने जीवन के लक्ष्य की ओर वास्तव में उन्मुख हूँ। भेदा-भेद,फलाफल से परे, ज्ञान अज्ञान से परे, गुणातीत अवस्था की ओर, मुक्ति की ओर। धन्यवाद, आनंदित हूँ। और बेटे! कवि का अर्थ क्रान्तिदर्शी होता है, आत्मदर्शी। समदर्शी, कवि, मनीषी, स्वयंभू, परिभू -ईश्वर के गुण हैं। ईश्वर ने ही सारा संसार, माया जगत बनाया है, रचाया सजाया है। यह कैसे हो सकता है कि कवि, दुनिया-जगत को न जाने, न पहचाने। हाँ यह हो सकता है कि वह उसमें रमे नहीं। सिर्फ माया जगत उसका लक्ष्य न हो। सिद्धियाँ प्राप्ति के बाद त्यागकर, मुक्तिपथ उसका लक्ष्य हो।
तुम कहते हो कि आप स्वयं कोई निर्णय नहीं लेते, ताकि जवाब-देही न करनी पड़े। हो सकता है यह सत्य हो, पर किसी भी प्रभावशाली, दूरगामी व अंतिम निर्णयों से पहले पक्की तौर पर जांच आवश्यक है। अतः मुखिया को सर्वदा अन्य व मातहतों को ही निर्णय लेने देना चाहिए। क्योंकि दूर से देखने पर कमियों व भूलों का ज्ञान सरलता से होता है। स्वयं कार्य करते समय, कार्य सदैव सही लगते हैं। हाँ तुरंत व हानिकारक होने वाले क्रिया-कलापों पर तो मैं तुरंत वीटो-पावर ( विशेषाधिकार ) से निर्णय लेता हूँ। यह सत्य ही लोकरंजक व एकतान्त्रिक के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था है।
पत्र -दो ----
दक्षा,
बेटी, तुम दहेज़ के नाम पर तीव्र प्रतिक्रिया करती हो। नारी-नर समानता व नारी की महानता पर गौरवान्वित हो। कभी कभी शादी-विवाह के विपरीत विचार भी व्यक्त करती हो। तुम कहती हो कि ( जब कभी नाराज होकर झगड़ा करती हो तो ) अब आप पिता की तरह सोच रहे हैं। अच्छा लगता है, तुम मेरी ही प्रतिकृति हो इस स्थान पर। यदि पुत्र, पिता की ज्ञान कृति है तो पुत्री भाव कृति। पर बेटी, पुरुष अर्थात प्रकृति के सामान्य अर्ध-भाव को ठुकराने या दबाकर पूर्ण-काम कैसे हुआ जा सकता है ? यह ठीक उसी तरह है जैसे प्रकृति की सुकुमार कृति नारी को ठुकराने या पुरुष अहं-भाव से दबाकर कोई भी पुरुष पूर्ण-काम नहीं हो सकता। सम्पूर्ण नहीं हो सकता। हिन्दू देवों -राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, सीता-राम आदि के युगल रूप होने का यही अर्थ है। हमें साध्य से नहीं साधनों से होशियार रहना चाहिए। साधन ही उचित-अनुचित, सही-गलत होते हैं। साध्य तो लक्ष्य ही होता है, गलत या सही नहीं। हाँ, यदि वह साध्य शास्त्रोचित, परमार्थ-भावयुक्त है तो और अहंकार भाव से ग्रसित नहीं है। अपनी इच्छा भाव से उचित चुनाव करो, मैं तो साथ हूँ ही। शेष स्वयं सब कुछ सोच विचार कर, न कि इच्छाभाव में बहकर व सांसारिक चकाचौंध से ग्रसित व मोहित होकर। आशीर्वाद है।
पत्र -तीन -----
नीरा, आशीर्वाद ।
बेटी, तुम बेटी जैसी ही हो। मैं जानता हूँ तुम चाहती हो उसे। मैं जानता हूँ तुम उस माहौल से बाहर आना चाहती हो। स्वच्छंद स्वतंत्र आकाश में उड़ना चाहती हो। हम तो हैं ही मुक्ति राह के, नारी स्वतन्त्रता के झंडावरदार। तुममें मैं अपने मन की इच्छा की प्रतिच्छाया, नारी मुक्ति की बात ही देखता हूँ। मैं अवश्य तुम्हारी मुक्ति-सेतु की नींव बनूंगा। वर्षों पहले जो नारी उत्थान के बहाने समाज कल्याण का दुष्कर मार्ग मैंने घर फूंक कलाप से अपनाया था उसे अवश्य ही आगे बढ़ाऊंगा। मेरा आशीर्वाद व शुभकामनाएं हैं तुम्हारे साथ। पर इस पथ पर कमर कस कर चलना होगा। संघर्ष को दृढ़ता से जीतना होगा। दुर्बलता के क्षणों में धैर्य बनाए रखना होगा, वही सफलता दिलाएगा। मैं हूँ न तुम्हारे साथ, मैं आऊँगा लौटकर अवश्य, तुम्हारी सफलता का साक्षी बनने। पूर्णाहुति के लिए।
पत्र चार ---.
सुप्रिया,
तुम कहती हो कि तुम बहुत भोले हो। बात करना नहीं आता। बुद्धू हो। घर-गृहस्थी से मतलब नहीं रखते। कुछ नहीं समझते। छोटी-छोटी बात पर झल्लाते हो, छोटी छोटी गलतियों पर गुस्सा होते हो। रूठने पर कभी मनाते नहीं। वक्त पर जरूरी काम याद आते नहीं। प्रिया! पूर्णकाम कौन हो पाया है ? मानव मन भूलों की गठरी है, अधभरी गगरी है, खामियों की नगरी है। पर सोचो, समझो, बताओ कि जीवन की डगर पर जीवन-सुख में कहीं तुम्हें कमी अखरी ? या किसी भी त्रुटि पर, कमी पर या हानि-क्षति पर कभी मुझे क्रोध आया? अन्य लोग तो कहते हैं कि मुझे क्रोध आता ही नहीं। छोटी छोटी कमियों या त्रुटियों पर गुस्सा, सुधारने की कोशिश का फ़साना है। ये सुधर सकतीं हैं यह कहने का बहाना है। गुस्सा अपनों पर ही आता है, गैरों पर नहीं। मैं अवश्य आऊँगा। पर कब ......?
पत्र पांच ----
प्रिय अग्रज, सादर चरणस्पर्श ।
आपको मलाल है कि मैं सब विधि कुशल होने पर भी एक महान व प्रसिद्ध चिकित्सक नहीं बना। आपका कहना है कि तुम जहां पहुँच सकते थे नहीं पहुंचे। भाई! आप बड़े हैं, अनुभवी हैं, परिवार में हम सबसे अधिक कुशाग्र-बुद्धि; मुझसे अधिक दुनियादार हैं। मैं क्या कहूं, पर सिद्धि को छोड़कर ( प्राप्त करने के बाद ) आगे बढ़ जाना मेरे विचार से मुक्तिपथ की ओर बढ़ना है। सिद्धियों को कभी मैंने अपने हित में भुनाने का कार्य नहीं किया। मैं कभी तेज दौड़ मैं शामिल ही नहीं हुआ। हो सकता है कि दुनियादारी की दौड़ में मैं बहुतों से पीछे रह गया होऊँ; पर अपने अंतर में मुझे संतोष है। मैंने सिद्धियाँ प्राप्त कीं, शायद इस समय की विशेषज्ञता सिद्धि, जन सामान्य में आदर, समाज में स्थापित पहचान। शायद यह माता-पिता की साधना का उचित फल है। सिद्धियों के लाभपूर्ण उपयोग के शिखर पर मैं नहीं पहुँच पाया। प्रभु इच्छा ! मैं एसा ही हूँ। पर मुक्ति-पथ की ओर मुझे बढ़ना ही है। आप जानते हैं कि अनुज, भगिनी, रिश्तेदार आदि सभी लिए मैं
प्रभामंडल युक्त हूँ। वे अभिभूत हैं मेरी कर्मठता, काव्यप्रेम एवं सभी से समता व युक्ति-युक्त प्रेमपूर्ण व्यवहार के वे कायल हैं। नाते-रिश्तेदार, उनके बच्चों में, पड़ोसियों में, मैं आदर्श, अनुकरणीय व सफल व्यक्ति की भांति चर्चित व प्रशंसित हूँ। शिखर पर पहुंचे परिवार के शिखर पुरुष की तरह माननीय। जब आप किसी को डांट देते हैं या नाराज़ होजाते हैं तो या किसी का आपसे कोई काम नहीं हो पाता तो वे मुझे ही संपर्क करते हैं, सुलझाने के लिए|
मेरे कवि मित्र मुझे आशु-कवि, आध्यात्मिक रचनाकार, भावुक, सुविनयी, ज्ञानी जाने क्या क्या कहते हैं। कवि ह्रदय की महानता ही है यह सब। ज्ञानी व सत्संगति वाले विद्वानों की संगति-सान्निध्य में जो रस प्राप्त होता है, ज्ञान व अनुभव होता है, उसी को अपने जीवन के अनुभवों से मिलाकर कलमबद्ध कर लेता हूं। उस असीम की कृपा होती है तो कविता बन जाती है और मैं कर्ता का भ्रम पाले रहता हूँ।
मेरे सहकर्मी साथी मुझे कर्मठ, ईमानदार, अपने काम में मस्त, निर्णय में कठोर, कानूनची पर सभी में समभाव रखने वाला व्यक्ति कहते हैं। कुछ सुधी चिकित्सक मित्र, भाई आपकी तरह यह भी कहते हैं कि तुम अपने मुख्य पेशे में कभी नहीं रम पाए। अपनी सिद्धि-यात्रा से भटक गए। विशेषज्ञ कर्म सिद्धि-रूप था, योग था; तुम योग भ्रष्ट व पथ-भ्रष्ट योगी होकर रह गए। भाई! जीवन का लक्ष्य क्या है ? सिद्धि या मुक्ति ? निश्चय ही मुक्ति। वे कहते हैं- सिद्धि प्राप्ति से ही तो जीवन सफल बनाया जा सकता है। पर भाई जी, मुक्ति ही वास्तविक सफलता है, जीवन है। आनंद, परमानंद, सत-चित भाव आदि ही मुक्ति है, वही सफल जीवन है। मुक्ति का आधार-भूत भाव, मानव कल्याण द्वारा शान्ति व परमानंद मार्ग है। सिद्धियों द्वारा मानव कल्याण, मुक्तिपथ की खोज से मानव कल्याण, प्रेम भाव के पथ से मानव कल्याण या किसी भी भाव व कर्म से मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करके मुक्ति प्राप्ति की राह पर अग्रसर हुआ जा सकता है। सिद्धियाँ भौतिक बस्तु हैं, सांसारिक हैं। ऋद्धि-सिद्धि में लक्ष्मी व् सरस्वती दौनों की ही कृपा दृष्टि होती है जो इस काल-खंड की रीति है। अतः सिद्धि में अहं तत्व के प्रमुखता पाने का, वैभव-भ्रष्टता का अधिक अंदेशा होता है। वहां से गिर कर, पथभ्रष्ट होकर उठा नहीं जा सकता। अतः सिद्धि से