एक ग़ज़ल :
क्या कहूँ मैने किस पे कही है ग़ज़ल।
सोच जिसकी थी जैसी, सुनी है ग़ज़ल ।
दौर-ए-हाज़िर की हो रोशनी या धुँआ,
सामने आइना रख गई है ग़ज़ल ।
लोग ख़ामोश हैं खिड़कियाँ बन्द कर,
राह-ए-हक़ मे खड़ी थी ,खड़ी है ग़ज़ल
वो तक़ारीर नफ़रत पे करते रहे,
प्यार की लौ जगाती रही है ग़ज़ल।
मीर-ओ-ग़ालिब से चल कर है पहुँची यहाँ,
कब रुकी या झुकी कब थकी है ग़ज़ल ।
लौट आओगे तुम भी इसी राह पर,
मेरी तहज़ीब-ए-उलफ़त बनी है ग़ज़ल।
आज ’आनन’ तुम्हारा ये तर्ज़-ए-बयां,
बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ बन गई है ग़ज़ल।
-आनन्द.पाठक-
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 25 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवाह! शानदार प्रस्तुति।
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