एक ग़ज़ल : तुम्हारे हुस्न से ---
तुम्हारे हुस्न से जलतीं हैं ,कुछ हूरें भी जन्नत में ,
ये रश्क़-ए-माह-ए-कामिल है,फ़लक जलता अदावत में ।
तेरी उल्फ़त ज़ियादा तो मेरी उलफ़त है क्या कमतर ?
ज़ियादा कम का मसला तो नहीं होता है उल्फ़त में ।
पहाडों से चली नदियाँ बना कर रास्ता अपना ,
तो डरना क्या ,फ़ना होना है जब राह-ए-मुहब्बत में ।
वही आदत पुरानी है तुम्हारी आज तक ,जानम !
गँवाया वक़्त मिलने का ,गिला शिकवा शिकायत में ।
चिराग़ों को मिला करती हवाओं से सदा धमकी ,
नहीं डरते, नहीं बुझते, ये शामिल उनकी आदत में ।
उन्हें भी रोशनी देगी जो थक कर हार कर बैठे ,
मेरा जब ज़िक्र आयेगा ज़माने की हिकायत में ।
जहाँ सर झुक गया ’आनन’ वहीं काबा,वहीं काशी ,
वो खुद ही आएँगे चलकर बड़ी ताक़त मुहब्बत में ।
-आनन्द.पाठक-
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 04 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंखूबसूरत ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-12-2020) को "उलूक बेवकूफ नहीं है" (चर्चा अंक- 3907) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत सुन्दर मुकम्मल गजल
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएं