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मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

Laxmirangam: डिजिटल इंडिया - मेरा अनुभव.

Laxmirangam: डिजिटल इंडिया - मेरा अनुभव.: डिजिटल इंडिया – मेरा अनुभव. उस दिन मेरे मोबाईल पर फ्लेश आया. यदि आप जिओ का सिम घर बैठे पाना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें. मैंने क्लिक क...

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शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

चिड़िया: रहिए जरा सँभलकर

चिड़िया: रहिए जरा सँभलकर: रहिए जरा सँभलकर  मंजिल है दूर कितनी,  इसकी फिकर न करिए बस हमसफर राहों के,  चुनिए जरा सँभलकर... काँटे भी ढूँढते हैं,  नजदीकियों के ...

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

चिड़िया: खामोशियाँ गुल खिलाती हैं !

चिड़िया: खामोशियाँ गुल खिलाती हैं !: रात के पुर-असर सन्नाटे में जब चुप हो जाती है हवा फ़िज़ा भी बेखुदी के आलम में हो जाती है खामोश जब ! ठीक उसी लम्हे, चटकती हैं अनगिनत कलि...

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

Laxmirangam: साजन के गाँव में.

Laxmirangam: साजन के गाँव में.: साजन के गाँव में. आज मत रोको मुझे, साजन के गाँव में, सुनो मेरी छम छम, बिन पायल के पाँव में. आलता मँगाऊँगी मैं, मेंहदी  रच...

रविवार, 15 अक्टूबर 2017

Laxmirangam: धड़कन

Laxmirangam: धड़कन: धड़कन संग है तुम्हारा आजन्म, या कहें संग है हमारा आजन्म. छोड़ दे संग परछाईं जहाँ, उस घनेरी रात में भी, गर तुम नहीं हो सा...

शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

एक ग़ज़ल : मिलेगा जब वो हम से---

 ग़ज़ल : मिलेगा जब भी वो हमसे---


मिलेगा जब भी वो हम से, बस अपनी ही सुनायेगा
मसाइल जो हमारे हैं  , हवा  में  वो   उड़ाएगा

अभी तो उड़ रहा है आस्माँ में ,उड़ने  दे उस को
कटेगी डॊर उस की तो ,कहाँ पर और जायेगा ?

सफ़र में हो गया तनहा ,तुम्हारे  साथ चल कर जो
वो यादों के चरागों को  जलायेगा  ,बुझायेगा

कहाँ तक खींच कर लाई ,तुझे यह ज़िन्दगी प्यारे
अगर तू लौटना चाहे , नहीं  तू  लौट पायेगा

इस आँगन का शजर है बस इसी उम्मीद में ज़िन्दा
परिन्दा जो गया है छोड़ , वापस लौट आयेगा

वो रिश्तों की लगाता बोलियाँ बाज़ार में जा कर
जिसे करनी तिजारत है वो रिश्ते क्या निभायेगा

अरे ! क्या सोचता रहता यहाँ पर बैठ कर ’आनन’
गये हैं लोग सब कुछ छोड़ ,तू  भी  छोड़ जायेगा 

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

एक ग़ज़ल : छुपाते ही रहे अकसर---

एक ग़ज़ल : छुपाते ही रहे अकसर--

छुपाते ही रहे अकसर ,जुदाई के दो चश्म-ए-नम
जमाना पूछता गर ’क्या हुआ?’ तो क्या बताते हम

मज़ा ऐसे सफ़र का क्या,उठे बस मिल गई मंज़िल
न पाँवों में पड़े छाले  ,न आँखों  में  ही अश्क-ए-ग़म

न समझे हो न समझोगे ,  ख़ुदा की  यह इनायत है
बड़ी क़िस्मत से मिलता है ,मुहब्बत में कोई हमदम

हज़ारों सूरतें मुमकिन , हज़ारों  रंग भी मुमकिन
मगर जो अक्स दिल पर है किसी से भी नहीं है कम

ख़िजाँ का है अगर मौसम ,दिल-ए-नादाँ परेशां क्यूँ
सभी मौसम बदलता है  ,बदल जायेगा ये मौसम

नहीं देखा सुना होगा  ,जुनून-ए-इश्क़ क्या होता
कभी ’आनन’ से मिल लेना ,समझ जाओगे तुम जानम

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

एक ग़ज़ल : बहुत अब हो चुकी बातें----


ग़ज़ल : बहुत अब हो चुकी बातें------

बहुत अब हो चुकी बातें तुम्हारी ,आस्माँ की
उतर आओ ज़मीं पर बात करनी है ज़हाँ की

मसाइल और भी है ,पर तुम्हें फ़ुरसत कहाँ है
कहाँ तक हम सुनाएँ  दास्ताँ  अश्क-ए-रवाँ की

मिलाते हाथ हो लेकिन नज़र होती कहीं पर
कि हर रिश्ते में रहते सोचते  सूद-ओ-जियाँ की

सभी है मुब्तिला हिर्स-ओ-हसद में, खुद गरज हैं
यहाँ पर कौन सुनता है  अमीर-ए-कारवां  की

वही शोले हैं नफ़रत के ,वही फ़ित्नागरी  है
किसे अब फ़िक़्र है अपने वतन हिन्दोस्तां की

हमें मालूम है पानी कहाँ पर मर रहा  है
बचाना है हमें बुनियाद  पहले इस मकाँ  की

तुम्हारे दौर का ’आनन’ कहो कैसा चलन है?
वही मारा गया जो  बात करता है ईमाँ  की

-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ
मसाइल =समस्यायें
अश्क-ए-रवाँ = बहते हुए आँसू
सूद-ओ-ज़ियाँ = हानि-लाभ/फ़ायदा-नुक़सान
मुब्तिला =लिप्त
हिर्स-ओ-हसद= लोभ लालच इर्ष्या द्वेष
पित्नागरी = दंगा फ़साद

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

एक व्यंग्य : अनावरण एक गाँधी मूर्ति का-------

[ 2--अक्टूबर -- गाँधी जयन्ती के अवसर पर ---]
डायरी के पन्नों से-----------------------
एक व्यंग्य : अनावरण एक गाँधी मूर्ति का-------

......नेता जी ने अपनी गांधी-टोपी सीधी की।रह रह कर टेढी़ हो जाया करती है। विशेषत: जब वह सत्ता सुख से वंचित रहते हैं।धकियाये जाने के बाद टेढी़-मेढ़ी ,मैली-कुचैली हो जाती है।समय-समय पर सीधी रखना एक बाध्यता हो जाती है,अन्यथा विरोधी दल ’टोपी-कोण" पर ही हंगामा शुरू कर सकते हैं। विपक्ष के पास वैसे भी मौलिक मुद्दों की कमी बनी रहती है।व्यर्थ में प्रचार करना शुरू कर देंगे-’देखा!,कहते थी न ,नेता जी की टोपी टेढ़ी न हो जाए तो कहना’।इसी अप्रत्यक्ष भय से आक्रान्त ,नेता जी ने अपनी टोपी सीधी की तथा मनोगत गांधी जी को कोसा-’ अपने तो पहनते नहीं थे हमें पहना गये।पहनते तो मालूम होता कि आज की राजनीति में टोपी सीधी रखना कितना दुष्कर व कष्ट साध्य है। करते रहो आजीवन सीधी।अरे! जो पहनते नहीं वो तो ’कैबिनेट ’ में घुसे हैं और हम हैं कि सीधी करते-करते सड़क पर आ गए।’
यही दर्द ,यही टीस लिए मंच पर बैठे हुए नेता जी भाषण हेतु उठे। माइक के सामने आए।ठक-ठक कर टेस्ट किया ।आवाज़ बरोबर निकलेगी तो ? धोखा तो नही देगी? आश्वस्त हुए।तत्पश्चात उपस्थित जन समुदाय का अवलोकन किया,किसी अनुभवी बूचड़ की तरह-’काश ! यह समस्त भीड़ मेरी बूचड़्खाने में आ जाती और ’वोट’ में बदल जाती! इसी कल्पना मात्र से मन आत्मविभोर हो गया ,नयनों में एक विशेष चमक उभर आई। परन्तु अविलम्ब नेता जी ने गम्भीरता का आवरण ओढ़ लिया कि कहीं इस मनोगत हर्ष को लोग ’टुच्चापन’ न समझ लें।लोकतन्त्र है,समझ सकते हैं। फिर एक दॄष्टि उस मूर्ति पर किया जिसका उन्होने अभी-अभी अनावरण किया था और फोटो खिंचवाये थे ।ऐसे अवसरों की छवि काफी मान्यता रखती है ,सनद रहती है ,वक्त ज़रूरत काम आती है।चुनाव टिकट वितरण,छीना-झपटी में संभवत: दिखाना पड़ जाए -कितने फ़ीते काटे,कितने वोट काटे, कितने फ़ोटू खिंचवाये ?
फिर मंच पर बिछी ज़ाज़िम को देखा। वर्षों से नेताओं का भार ढोते-ढोते जीर्ण-शीर्ण व गन्दी हो चली है।इसको बदलने की आवश्यकता को कोई महसूस नहीं करता । वो लोग भी नहीं ,जिन्होने इसे जीर्ण-शीर्ण-विदीर्ण बनाया है। शून्य आँखों से ऊपर शामियाने को देखा।कहाँ-कहाँ से क्षेत्रीय टुकड़े लाकर जोड़ दिया है जुम्मन मियां ने -किसी मिली-जुली साझा सरकार की तरह।कितने छिद्र हो गए हैं यत्र-तत्र।साझा सरकार यानी शामियाने को यह भ्रम है कि टंगा है जनता के सर पर रक्षा के लिए।यदि लोकतन्त्र के अन्य स्तंभ न होते ---न्यायपालिका के ,---कार्यपालिका के ---मीडिया के----या हमारे जैसे ज़मीन में धँसे कर्मठ कार्यकर्ताओं के,तो क्या यह शामियाना टंगा रह सकता था?इसी मनन-चिन्तन में डूबे नेताजी ने अपना दायाँ पैर आगे बढा़ ,बायाँ पैर पीछे खींच ,हाथ पीछे बाँध,गला खँखारा फिर प्रस्फुटित हुए...
" देवियो और सज्जनो !(मनोगत ---इस सभा के बाद गारंटी नहीं है ’देवियों की )
-आज बड़े ही हर्ष का विषय है कि आप से मिल-बैठ कर , आमने-सामने, दो-चार बात करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।आप लोगो ने यहाँ पधारने का जो कष्ट किया है उससे गांधी जी की मूर्ति ,मेरा अभिप्राय है कि यह समारोह कृतज्ञ हुआ ।हमने आप की समस्यायें सुनी ,आप हमारी सुने।यही सौहाद्र है ,यही परस्पर प्रेम है ,यही भाई चारा है।"
नेता जी एक पल चुप होते हैं।चिन्तन की मुद्रा अपनाते है। आँखे बन्द करते है। अभी प्रथम गियर में चल रहे हैं,लोहा गरम हो रहा है ।
".....अभी अभी हमने जिन महापुरुष की मूर्ति का अनावरण किया है,संभवत: उनसे आप सभी लोग परिचित होंगे।जो पुरानी पीढ़ी के है उन्होने गांधी जी का नाम अवश्य सुना होगा। जो नई पीढी़ के हैं उनकी सुविधा हेतु नाम नीचे लिखवा दिया है जिससे हमारे नौजवान भाईयों को मूर्ति पहचानने में कोई असुविधा न हो।इधर हमारी युवा-पीढी़ में एक नई प्रतिभा पनप रही है -मूर्ति-भंजन विधा की,कोलतार लेपन कला की। इसमे उनका दोष नहीं है। दोष है तो हमारी विरोधी पार्टी का। नाम नहीं लूंगा । हमारी युवा-पीढी को भटका रही है ,गुमराह कर रही है। उसमे एक दिशा-बोध की कमी पैदा कर रही है।इस कोलतार-लेपन कला में,विदेशी विशेषत: पड़ोसी देश की छिन्न-भिन्नात्मक शक्तियों का हाथ है इसीलिए मूर्ति के नीचे नाम लिखवा दिया है कि युवा पीढ़ी आगे आए ,पढ़े व गांधी जी के नाम से परिचित हो । कहीं ऐसा न हो कि कोलतार-लेपन या मूर्ति-भन्जनोपरान्त आप सुबह-सुबह ग्लानी से भर उठें -हाय! हमने तो जाना ही नहीं कि यह किस महान आत्मा की मूर्ति थी! ... तो भाईयो और बहनो !मै इस तहसील के नुक्कड़ से ,देश की समस्त युवा पीढी़ का आह्वान करता हूँ कि अब वक्त आ गया है गांधी जी की मूर्ति पहचानने का ,नाम पढने का ......"
तालियां बजने लगी। नारे लगने लगे -नेता भईया ज़िन्दाबाद ! ज़िन्दाबाद!..लोहा गरम होने लगा ,गाड़ी गियर पकड़ने लगी।
" ....आप को ज्ञात है ,इस सभा में अन्य दलों के कुछ कार्यकर्ता भाई लोग भी उपस्थित हैं। मैं नाम लेना उचित नहीं समझता ....परन्तु यह सर्व विदित है ,,,’छमिया रेप-काण्ड में कौन-कौन लोग शामिल थे ? नथुआ-हत्या काण्ड किसने कराया? अरे! नथुआ वही जो दलित था,शोषित था ।अब बचने के लिए पार्टी का सहारा लेते हैं ।...हमने स्पष्ट कर दिया है ,नहीं भाई ,नहीं । पार्टी ऐसे छिछोरे ,छोटी-मोटी हरकतों के लिए नहीं होती ---देश में इससे भी बड़े-बड़े काम है जिसमे पार्टी को काम करना है मसलन चारा घोटाला.चीनी घोटाला.नरेगा घोटाला .हवाला..नारी पर अत्याचार..गाँव की बहू-बेटियों पर अत्याचार
,हमारे घर-परिवार के सदस्यों, भाई-भतीजों पर अत्याचार। हमें बर्दाश्त नहीं करना है । हमें इस तहसील के नोनी माटी की कसम ,गांधी जी के डण्डे की सौगन्ध ,इन फासिस्टवादी शक्तियों को बेनकाब करना है....."
"...बोलिए भारतमाता की जय!.." -भीड़ ने जयघोष किया ।तालियां बजने लगी। भीड़ में जोश का संचार होने लगा।आयोजको में उत्साह-वर्धन होने लगा,लोहा गर्म होने लगा,गाड़ी गियर पकड़ने लगी। नेता जी एक क्षण चुप हो ,तालियों की संख्या गिनने लगे।
".....हाँ ,तो मै क्या कह रहा था? हाँ ,तो फासिस्टवादी शक्तियों को बेनकाब करना है । मैं अपने किसान भाईयो को, श्रमिक भाईयों को यह बता दूँ इन शक्तियों क मूल इस गाँव में नहीं ,इस तहसील में नहीं,हमारे-आप के अन्दर नहीं ,इनका मूल है दिल्ली में ,हमें दिल्ली जाना होगा मूलोच्छेदन करने।आशा है आगामी आम चुनाव में ह आप हमारा खयाल अवश्य रखेंगे....."
---भीड़ ने पुन: जयघोष किया-’नेता भईया -ज़िन्दाबाद,ज़िन्दाबाद।जबतक सूरज चाँद रहेगा-नेता भईया नाम रहेगा। भाई साहब संघर्ष करो-हम तुम्हारे साथ हैं...देश का नेता कैसा हो....भईया जी जैसा हो----.? जैसे नपुंसक नारों से शामियाना गूँज उठा। नेता चाहे जैसा हो,पार्टी चाहे जिसकी हो,आयोजन चाहे जो हो-ऐसे ही शक्ति-शून्य --नपुंसक नारे लगते हैं। तालियां बजती है...कोलाहल बढ़ता है..लोकतन्त्र आगे बढता है।
"....भाईयों शान्त रहें,शान्त रहें!अपना अपना आसन ग्रहण कर लीजिए । अरे हरहुआ ! बैठता काहे नहीं है रे ? हाँ तो अब मूल विषय पर आता हूँ इन महापुरुष के संबंध में जिनका अभी-अभी हमलोगो ने अनावरण किया है-इसका समस्त श्रेय गजाधर बाबू को जाता है जो इस क्षेत्र के एक सक्रिय व कर्मठ कार्यकर्ता समाजसेवी हैं ,सौभाग्यवश आज हमारे बीच उपस्थित भी हैं।मेरे बाद आप इनके भी विचार सुनेगे और लाभान्वित होंगे।इस क्षेत्र की जनता के लिए गांधी जी की एक मूर्ति की आवश्यकता बहुत वर्षों से महसूस की जा रही थी जो गजाधर बाबू के अनवरत प्रयास व सतत संघर्ष से चालीस साल बाद संभव हुआ। इस पुण्य कार्य हेतु गजाधर बाबू धन्यवाद के पात्र ही नहीं,महापात्र हैं।
"...अब इस क्षेत्र के नौजवानों भाईयो को,श्रमिको को ,किसानो को,बच्चो को ,महिलाओं को,सुहागिनों को,विधवाओं को,लूलों को,लंगडो़ को २-अक्तूबर के दिन ट्रैक्टरों मे लद-लद कर शहर नहीं जाना पड़ेगा ।यहीं पर श्रद्धा सुमन चढ़ा देंगे।अपना चर्खा यहीं धो-पोछ कर लायेंगे और गांधी जी के श्री चरणों में बैठ कर रामधुन गायेंगे,सूता कातेंगे और फोटू खिंचवा लेंगे। अन्यथा दो घन्टे के काम के लिए दिन भर लग जाता था।आप के सालो साल का आवन-जावन का कष्ट नहीं देखा जा सका गजाधर बाबू से ,सो एक अदद मूर्ति यहीं स्थापित करवा दी।"
पुन: जयघोष हुआ -गजाधर बाबू ज़िन्दाबाद..ज़िन्दाबाद...जब तक सूरज चाँद रहेगा....-एक नारा उछला तो गजाधर बाबू के खादी कुर्ते को इत्र की तरह भिंगो गया। मंच गमक गया ।गजाधर बाबू हर्षित हो गए,मन प्रफुल्लित हो गया। परन्तु तुरन्त गंभीरता का का दुशाला ओढ़ ,हाथ जोड़,भाव-विभोर हो,श्रद्धावश सर झुका लिया।नारे के प्रति श्रद्धा? ज़िन्दाबाद के प्रति समर्पण? या उपस्थित जनसमुदाय के प्रति प्रेम विह्वलता?
"....और अन्त में ,आप लोगो का ज्यादा समय नहीं लूंगा। और भी हमारे कई भाई है जो हमारे बीच मंच पर उपस्थित है।आप उनके भी विचार सुनेंगे। इच्छा होते हुए भी आप लोगो के बीच ज्यादा समय नहीं दे पा रहा हूँ।आज सुबह जब डी०एम० साहब के यहाँ नाश्ता कर रहा था तो पी०एम० आफ़िस से काल मिला-भाई साहब ! तुरन्त दिल्ली पहुँचो । क्या करे! ससुरा वक्त ही नहीं मिलता, हम अपने गरीब भाईयों को देखें कि लख्ननऊ ,दिल्ली देंखे? कई बार कहा कि भाई साहब इतना लखनऊ दिल्ली न बुलाया करो ,हमें अपने ग्रामीण भाईयों को देखना है ।पहले (चुनाव के पहले?) हम उनके है बाद (चुनाव के बाद?) में हम आप के है ,दिल्ली के हैं।...तो भाईयों मैं महात्मा जी को शत शत प्रणाम करता हूँ ,उनके दण्ड को प्रणाम करता हूँ जिससे उन्होने अंग्रेजों को मार भगाया । आज विघटनकारी शक्तियाँ फ़िर सर उठा रहीं हैं---क्या कश्मीर क्या असम...क्या तमिलनाडु क्या झारखण्ड। क्या उत्तराखण्ड क्या सामनेवाले गाँव का दखिन टोला।अब डण्डा पकड़ कर काम नहीं चलने वाला ...अब इसे चलाना पड़ेगा..."
जोरदार तालियां बजने लगी । "भाई जी संघर्ष करो ...’-जैसे नारे लगने लगे।प्रतीत हो रहा था कि किराए की इस भीड़ को इन नारों के अतिरिक्त कुछ ज्ञात नहीं था ।या 10-10 रुपए पर आए ये लोग इससे ज्यादा नारा लगाना नहीं चाहते थे आठ आना प्रति नारा,चार आना नारा लगाने का,चार आना हाथ लहराने का। डिस्को स्टाईल के दर अलग।
"... तो भाईयो और बहनो ! अन्त में आप से कहना चाहूँगा......" नेता जी अन्त में,अन्त में करते करते ३ घन्टे बाद अन्तिआए ,और जो सबसे अन्त में कहा था वह यह था -’आगामी चुनाव में मुझे दिल्ली भेजना न भूलें?
०० ००० ०००००
सभा विसर्जित हो गई।भीड़ लौट गई।बगल वाले कनात में मध्याह्न भोज का एक छोटा सा आयोजन था । मुर्ग-मुसल्लम,मांस-मछली,दवा-दारु आदि का समुचित प्रबन्ध था। आयोजकगण सस्वाद खा रहे थे । बोतल पर बोतल शराब ढाली जा रही थी । गांधी जी निरीह व निस्पॄह भाव से गले में माला धारण किए देख रहे थे। पत्थर के थे। मानवीय भावों से ऊपर।पीड़ा-करुणा से ऊपर ,बहुत ऊपर।
गजाधर बाबू ने उत्साह वर्धन किया। मुस्कराते हुए बोले-" बेटा ! जान डाल दी भाषण में।’
नेता जी ने करबद्ध हो,शीश झुका लिया और एक आन्तरिक पीडा़ संजोए दीर्घ सांस छोड़्ते हुए कहा-"दद्दा! सब आप का आशीर्वाद है ,पर स्साले दिल्ली वाले कुछ नहीं सोचते ,मेरे बारे में"
" ज़रूर सोचेंगे बेटा,ज़रूर सोंचेगे एक दिन’-उससे भी बडी़ पीड़ा लिए,गजाधर बाबू ने उससे भी गहरा उच्छवास छोड़ते हुए कहा-" मुझे ही देख ,इसी आशा में मैं बूढा़ हो चला ,दिल्ली को मेरे बारे में सोचना ही पडे़गा...."
ज्ञात हुआ दोनो व्यक्ति दिल्ली को एक घंटा तक अपने प्रति सोचवाते रहे।
गांधी जी की मूर्ति-स्थापना से गाँव वालों का भला हुआ कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। परन्तु एक सत्य नि:संदेह व निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आस-पास गाँव कि जितने नशेड़िए, गंजेड़िए ,भंगेड़िए थे उनका काफी भला हुआ ।अब खोली में छुप कर नशा करने की आवश्यकता नहीं थी ।रात के अंधेरे में गांधी चबूतरा ही काफी था। गांधी जी स्वयं प्रकाश - पुंज थे अत: अधिकारियों ने रोशनी की व्यवस्था करना आवश्यक नहीं समझा। सारे नशेड़िए मिल कर दम लगाते थे । पुलिस उधर नहीं जाती थी। पुलिस को गांधी जी से क्या काम? गांधी चबूतरा अभयक्षेत्र हो गया ।गंजेडियों क भय दूर हो गया,भय से मुक्ति।गांधी जी भी तो यही चाहते थे ।दिन में गांधी जी की मूर्ति के ऊपर सारे कबूतर विष्ठा करते थे और सारे नशेबाज......
मूर्तियां स्थापित हो जाती हैं और सभी लोग अपनी-अपनी सुविधा से इसका उपयोग करते हैं।
अस्तु!
-आनन्द.पाठक-