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सोमवार, 29 जुलाई 2019

एक ग़ज़ल : साज़िश थी अमीरों की----

एक ग़ज़ल : साज़िश थी अमीरों की--

साज़िश थी अमीरों की ,फाईल में दबी होगी
दो-चार मरें होंगे  ,’कार ’ उनकी  चढ़ी  होगी

’साहब’ की हवेली है ,सरकार भी ताबे’ में
इक बार गई ’कम्मो’ लौटी न कभी  होगी

आँखों का मरा पानी , तू भी तो मरा होगा
आँगन में तेरे जिस दिन ’तुलसी’ जो जली होगी

पैसों की गवाही से ,क़ानून खरीदेंगे
इन्साफ़ की आँखों पर ,पट्टी जो बँधी होगी

इतना ही समझ लेना ,कल ताज नहीं होगा
मिट्टी से बने तन पर ,कुछ ख़ाक पड़ी होगी

मौला तो नहीं  हो तुम  ,मैं भी न फ़रिश्ता हूँ
इन्सान है हम दोनों ,दोनों में  कमी होगी

गमलों की उपज वाले ,ये बात न समझेंगे
’आनन’ ने कहा सच है ,तो बात लगी होगी

-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 6 जुलाई 2019

एक ग़ज़ल : सलामत पाँव हैं जिनके--

एक ग़ज़ल


सलामत पाँव है जिनके वो कन्धों पर टिके हैं
जो चल सकते थे अपने दम ,अपाहिज से दिखे है

कि जिनके कद से भी ऊँचे "कट-आउट’ हैं नगर में
जो भीतर झाँक कर देखा बहुत नीचे गिरे हैं

बुलन्दी आप की माना कि सर चढ़  बोलती  है
मगर ये क्या कि हम सब  आप को बौने  दिखे हैं

ये "टुकड़े गैंग" वाले हैं फ़क़त मोहरे  किसी के
सियासी चाल है जिनकी वो पर्दे में छुपे  हैं

कहीं नफ़रत,कहीं दंगे ,कहीं अंधड़ ,हवादिस
मुहब्बत के चरागों को बुझाने  पर अड़े  हैं

हमारे साथ जो भी थे चले पहुँचे कहाँ तक
हमें भी सोचना होगा, कहाँ पर हम रुके हैं

समझते थे जिन्हे ’आनन’ धुले हैं दूध के सब
बिके हैं लोग वो भी अपने दामों  पर  बिके  हैं


-आनन्द.पाठक-