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रविवार, 26 जून 2022

एक व्यंग्य व्यथा : एक लघु चिन्तन --देश हित में

 डायरी के पन्नों से--


एक व्यंग्य व्यथा: एक लघु चिन्तन : --"देश हित में"

जिन्हें घोटाला करना है वो घोटाला करेंगे---जिन्हें लार टपकाना है वो लार टपकायेगें---जिन्हें विरोध करना है वो विरोध करेंगे--- सब अपना अपना काम करेगे ।
ख़ुमार बाराबंकी साहब का एक शे’र है

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है , हवा चल रही है

यानी दोनो अपना अपना काम कर रहे हैं} एक कमल है जो कीचड़ में खिलता है और दूसरा कमल का पत्ता है जो सदा पानी के ऊपर रहता है --पानी ठहरता ही नहीं उस पर।
----आजकल होटल -ज़मीन -माल -घोटाला की हवा चल रही है -थक नहीं रही है -- बादल घिर तो रहे हैं मगर बरस नहीं रहे हैं।
-----जो देश की चिन्ता करे वो बुद्धिजीवी
-----जो चिन्ता न करे वो ’सुप्त जीवी’
------जो ;पुरस्कार’ लौटा दे वो ’सेक्युलर’
-------और जो न लौटाए वो ’कम्युनल’ है
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मैं कोई पुरस्कार का”जुगाड़’ तो कर नहीं पाया तो लौटाता क्या । नंगा ,नहाता क्या---निचोड़ता क्या ।
सोचा एक लघु चिन्तन ही कर लें तब तक -’देश हित मे’ --- दुनिया यह न समझ ले कि कैसा ’ सुप्त जीवी प्राणी ’ है यह कि ’ताल ठोंक कर’- बहस भी नहीं देखता।
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कल ’लालू जी’ ने एक निर्णय लिया --देश हित में
आज ’नीतीश जी’ ने एक निर्णय लिया --देश हित में
भाजपा ने एक ’चारा’ फ़ेंका -- देश हित में
एक ने वो ’चारा’ नहीं खाया --देश हित में
दूसरा ’ चारा’ खा ले शायद --देश हित में
तीसरा ’हाथ’ दिखा दिखा कर थक गया ---देश हित मे
तो क्या? सब का ’देश हित’ अलग अलग है ।
या सबका ’देश हित’ एक है --कुर्सी-
और जनता ?
----जनता चुप होकर देखती है -----देश हित मे।
-ग़ालिब का शेर गुनगुनाती है

बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

गो हाथ में जुम्बिश नहीं आंखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे

जनता के लिए कौन है रोता यहां प्यारे
सिद्धान्त" गया भाड़ में , ’सत्ता’ मेरे आगे

यह ,आखिरी वाला शेर गालिब ने नहीं कहा था।
हाँ , अगरऔर ज़िन्दा रहते--तो यही कहते---" कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता "-। ख़ुदा मगफ़िरत करे
जनता तो --बस तमाशा देख रही है -- आश्वस्त है कि ये सभी ’रहनुमा’ मेरे लिये चिन्ता कर रहे हैं॥ हमें क्या करना ! -हमे तो 5-साल बाद चिन्ता करना है ।एक सज्जन ने लोकतन्त्र का रहस्य बड़े मनोयोग से सुनाया--"बाबा !जानत हईं ,जईसन जनता चाही वईसन सरकार आई" ---मैंने परिभाषा पर तो ध्यान नहीं दिया मगर ’बाबा’ के नाम से ज़रूर सजग हो गया--पता नहीं यह कौन वाला ’बाबा ’ समझ रहा है मुझे।
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उस ने कहा था---महागठ्बन्धन है ---टूटेगा नहीं---’फ़ेविकोल से भी ज़्यादे का भरोसा है --जब तक ’कुर्सी’ नहीं छूटेगी --प्राण नहीं छूटेगा --गठबन्धन नही टूटेगा--- सत्ता का शाश्वत सत्य है---- जनता मगन होई नाचन लागी --- ’सुशासन’ महराज की जय
भईए ! हम तो ’समाजवाद’ लाने को निकले थे ---सम्पूर्ण क्रान्ति करने निकले थे --।हम पर तो बस समझिए ’जयप्रकाश नारायण जी ’ का आशीर्वाद रहा कि फल फूल रहे है जैसे अन्ना हज़ारे जी केआशीर्वाद से उनके चेले-चापड़ फल फूल रहे है जैसे गाँधी जी के चेले फल फूल लिए।
और जनता -कल भी वहीं थी आज भी वहीं है---]सम्पूर्ण क्रान्ति’ के इन्तिज़ार में---

नई सुबह की नई रोशनी लाने को जो लोग गए थे
अंधियारे लेकर लौटे हैं जंगलात से घिरे शहर में

दुनिया में सम्पूर्ण क्या है, सिवा भगवान के !--वो तो मिलने से रहे। बस जो मिला वही लेते आये अपने घर ---बेटी दामाद बेटा-बहू भाई ,भतीजा --सब समाजवादी हो गए -चेहरे पे नूर आ गया ।कहते हैं- चिराग पहले घर में ही जलाना चाहिए --। सो मैने घर में ही ’समाजवाद’ का चिराग जला दिया-क्या बुरा किया-। कहने दीजिए लोहिया जी को--ज़िन्दा क़ौमे 5-साल इन्तिज़ार नहीं करती----
मैने कहा था--भइए----

साथ अगर है छूटेगा ही
’गठ बन्धन’ है टूटेगा ही
कुर्सी पे चाहे जो बैठे
बैठा है तो लूटेगा ही
’हाथ’ भला अब क्या करलेगा
डूबा है तो डूबेगा ही

गुरू जी ने कहा ----वत्स आनन्द ! ज़्यादे चिन्ता करने को नी। चिन्ता ,चिता समान है।
कहाँ तक चिन्ता करुँ -झोला लट्काए ।,मेरे जैसे चिन्तक के लिए इतना ही चिन्ता काफी है -- सो अब आज का चिन्तन यहीं तक। कल की चिन्ता कल पर।
अस्तु

-आनन्द पाठक-

सोमवार, 20 जून 2022

बादल बूंदे बारिश और मैं

 सुनो,

आज तुम

मुझसे मिलने

इन बरसती रातों में 

 मत आना !

 

सोचा है मैंने,

आज बारिशें और मैं,

मैं और ये बारिशें,

भीगेंगें देर तक,

एक दूसरे में,

जब तलक,

एक एक बूंद में मैं 

रच बस न जाऊं !

और,

हर बूंद से रग रग,

मैं भीग न जाऊं !



नही चाहिए .. कोई,

हमारे दरमियां!

बस हो तो,

बादल हो, 

 बूंदे हो ,

 नशीली  बारिशें हो,

और हूं,  बस मैं !


शुक्रवार, 17 जून 2022

तेरे साए से लिपटकर रोया होता


तेरे साए से लिपटकर रोया होता

इतना तन्हा मजबूर मैं  गोया होता


गुल भी होते और बुलबुल होती

सूखे बंजर मे शजर एक बोया होता


आ ही जाते ख्वाब  मेरी आँखों मे

मैं किसी रात सूकून से जो सोया होता


कर ही डाला था जब तमन्नाओं का खून 

अपने दामन से काश ये  तो दाग़ धोया होता


सर झुकाए हुए यूं न चलता ' ज़िंदगी'

गर गुनाहों को कांधो पे यूं न ढोया होता




गुरुवार, 16 जून 2022

कितना खूबसूरत होता है

 कितना खूबसूरत होता है 

ऐसे तन्हा होना 

समुंदर की धड़कनों संग 

जागना सोना 


रात से तेरे सायों में

कभी कभी जुगनू होना 

चांदनी रातों में 

चांद सा मुझसे रूबरू होना


जागती आंखों का

खूबसूरत कोई सपना होना

मेरी एक ही ख्वाहिश है 

 तुझसा कोई  अपना होना 


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सोमवार, 13 जून 2022

कुछ अनुभूतियाँ

 

कुछ अनुभूतियाँ

 

 

1

सच क्या बस उतना होता है

जितना हम तुम देखा करते ?,

 कुछ ऐसा भी सच होता है

अनुभव करते सोचा करते

 

 

2

क्या कहना है अब, सब छोड़ो

क्या पाया, दिल ने क्या चाहा,

कितनी बार सफ़र में आया

मेरे जीवन में चौराहा ।

 

3

नए वर्ष के प्रथम दिवस पर

सब के थे संदेश, बधाई,

दिन भर रहा प्रतीक्षारत मैं

कोई ख़बर न तेरी आई

 

 

4

सोच रही क्यों अलग राह की?

ऐसा तो व्यक्तित्व नहीं है ,

चाँद-चाँदनी एक साथ हैं

अलग अलग अस्तित्व नहीं है ।

 

 

 

-आनन्द.पाठक-


 

शनिवार, 11 जून 2022

मन्नतें...

 ख्वाहिशें तेरे दर पे आके 

रुक गई है 

मन्नतें तेरे दर पे आके 

झुक गई है 

अब यहां से मेरा

जाना होगा फिर कहां ?

तू मिरी तिशनगी

तू मिरी आवारगी

तू ही  हैं मेरी जन्नत

तू जहां 

तू है  जहां जहां 

मैं रहूंगी बस वहां  .....


रोक पाऊंगी दिल  में 

तुझ को कब तक

 मैं भला ?

 वक्त ठहरा कब कहां ,

 ये चला 

 वो तो हां चला ..

 

 इक एक पल मैं जोड़ लूं 

 पहनूं तुझको , ओढ़ लूं

 हर राह तुझपे

 मोड़ लूं 

अब तो आजा तू नज़र

जिस्मों जां में तू उतर 

 फिर राते हो या हो  सहर 

 कर मुझमें तू बसर 

 न रोक पाऊं ज्वार ये 

मैं,  जलजला

 भर दे मुझमें जो है,

 वो ख़ला ।

 तू है तो फ़िर किससे,

 क्यों  हो  अब गिला 

मैं बस  चलूं

जहां तू ले चला

कि अधूरा मैं हूं  तेरा 

सिलसिला 

  .....

गुरुवार, 9 जून 2022

चन्द माहिए

 


चन्द माहिए-


1

जब जब घिरते बादल,

प्यासी धरती क्यों,

होने लगती पागल ?


:2:

भूले से कभी आते,

मेरी दुनिया में,

वादा तो निभा जाते।


:3:

इस मन में उलझन है,

धुँधला है जब तक,

यह मन का दरपन है।


 :4:

जब छोड़ के जाना था,

फिर क्यों आए थे ?

क्या दिल बहलाना था ?

 

5

अब और कहाँ जाना,

तेरी आँखों का

यह छोड़ के मयखाना।


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 4 जून 2022

एक ग़ज़ल : तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो दिखा होगा

 एक ग़ज़ल 

तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो दिखा होगा ,

उन्हें कुछ तो सबूतों में, बयानों मे मिला होगा ।


बिना पूछॆ सफ़ाई में जो चाहे सो कहो, लेकिन-

धुआँ बिन आग का होता कहाँ ? तुमको पता होगा ।


तुम्हीं मुजरिम, तुम्ही मुन्सिफ़, गवाही में खड़े तुम ही,

सियासत की है मजबूरी ,तुम्हें करना पड़ा होगा ।


हमें तुम क्या समझते हो, हमे सच क्या नहीं मालूम?

"हरिशचन्दर’ नहीं हो तुम ,तुम्हें भी तो पता होगा  ।


तुम्हारी झूठ की खेती, तुम्हारे झूठ का धन्धा ,

तुम्हारा "ऎड" टी0वी0 पर निरन्तर चल रहा होगा ।


वो कह कर तो यही आया 'बदलना है निज़ामत को'

ख़बर क्या थी कि "कुर्सी" के लिए अन्धा हुआ होगा ।


जहाँ अपनी सफ़ाई में सदाक़त ख़ुद क़सम खाती,

समझ लो झूठ की जानिब यक़ीनन फ़ैसला होगा ।


कहें हम क्या उसे ’आनन’,  मुख़ौटॊं पर मुखौटे हैं ,

लिए मासूम सा चेहरा वो सबको छल रहा होगा ।


-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ 

सदाक़त =सच्चाई

निज़ामत = शासन व्यवस्था

बुधवार, 1 जून 2022

उलझनों में दिल यूं पड़ा

 ख्वाबों का सिलसिला 

जब कभी चल पड़ा

मैं ज़मीन पे चलूं

आसमां में उडूं

उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...


ख्वाहिशें थी मुझे तुम 

जहां जब मिलो

हाथ थामे मुझे तुम 

वहां ले चलो 

दिन जहां पर ढले

शब जहां पर जगे

उस क्षितिज पे हो एक घर मेरा ... 

ख्वाबों का सिलसिला जब कभी चल पड़ा


कहकशां हूं सितारा तुम 

मुझ में पलो

हूं धनक आओ रंगो में 

मेरे ढलो

स्याह से रतजगे

आंखों में अब पले 

तेरे  शानो पे हो  सर मेरा ....

उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...


ख्वाबों का सिलसिला 

जब कभी चल पड़ा

उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...