मित्रों!

आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं।

बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए।


फ़ॉलोअर

शनिवार, 30 अप्रैल 2022

एक ग़ज़ल - ख़ुदाया ! काश वह मेरा

 एक ग़ज़ल 


ख़ुदाया ! काश वह मेरा कभी जो हमनवा होता ,

उसी की याद में जीता, उसी पर दिल फ़ना होता !


कभी तुम भी चले आते जो मयख़ाने में ऎ ज़ाहिद !

ग़लत क्या है, सही क्या है, बहस में फिर मज़ा होता ।


किसी के दिल में उलफ़त का दिया जो तुम जला देते

कि ताक़त रोशनी की क्या ! अँधेरों को पता होता । 


उन्हीं से आशनाई भी , उन्हीं से है शिकायत भी ,

करम उनका नहीं होता तो हमसे क्या हुआ होता ।


नज़र तो वो नहीं आता, मगर रखता ख़बर सब की,

 जो आँखें बन्द करके देखता, शायद दिखा होता  ।


वो आया था बुलाने पर, वो पहलू में भी था बैठा ,

निगाहेबद नहीं होती , न मुझसे वो ख़फ़ा होता ।


निहाँ होना, अयाँ होना, पस-ए-पर्दा छिपा होना ,

वो बेपरदा चले आते समय भी रुक गया होता ।


हसीनों की निगाहों में बहुत बदनाम हूँ ’आनन’ ,

हसीना रुख बदल लेतीं, कभी जब सामना होता ।


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

आवाज़ को बना दो बदन का लिबास

 सुनो,

अपनी आवाज़ से कहो

 कुछ मुलायम भी रहे...

कि 

छिल जाता है 

तेरी आवाज़ से 

मेरे बदन का लिबास



तुम आ जाना जब उग आए

 मुझसे मिलने 

 बदन  में मेरे ...

सुनो , 

तुम उस रोज़

बस उस वक्त

तुम आ  आना ......


जब ...

उग आए 

उन दो नयनों में 

प्यार को प्यासी 

सौ सौ  आंखें...

तुम आ जाना 


तुम आ जाना 

जब ...

उग आए 

उन  हाथों  में 

 मुझे छूने को मचलती 

 कितनी ही 

बेकरार  उंगलियां...

तुम आ जाना 


तुम आ जाना 

जब ....

उग आए 

उन  होंठो से

कितने ही दहकते 

अंगारे...

बुझने मेरे ही पानी में 

तुम आ जाना 


तुम आ जाना   

जब ...

उग आए

एक महक 

नशीली  रातों में ...

कोई  कसक रिसे

जब आहों से...

तुम आ जाना 


तुम आ जाना 

जब ...

जग जाए 

रोम रोम में कामना 

रति की रातों की 

तुम आ जाना 


मैं यहीं मिलूंगी

तुझमें खिलूंगी 

तुझमें  ढलूंगी 

....

हां ...

तुम आ जाना ...

सुनो....

तुम आ जाना 

~ Sandhya Prasad 

बुधवार, 20 अप्रैल 2022

एक ग़ज़ल : यूँ उनकी शान के आगे

एक ग़ज़ल 


यूँ उनकी शान के आगे है मेरी शान क्या  !

इनायत हो न जब उनकी मेरी पहचान क्या !


हवा नफ़रत जो फ़ैलाए तो है किस काम की,

न फैलाए अगर ख़ुशबू हवा का मान क्या !


गिरह तू चाहता है खोलना ,खुलती नहीं

तेरा अख़्लाक़ क्या है ताक़त-ए-ईमान क्या  !


शराइत हैं हज़ारों जब, हज़ारों बंदिशें

तुम्हारे दर तलक जाना कहीं आसान क्या !


दिखाता राह इन्सां को मुहब्बत का दिया

जले ना आग सीने में तो फिर इन्सान क्या !


कभी तुमने नहीं देखा ख़ुद अपने आप को

वगरना ज़िंदगी होती कभी अनजान क्या !


जो कहना चाहते हो तुम ज़रा खुल कर कहो

तुम्हारी चाहतें क्या ,ख़्वाब क्या, अरमान क्या !


अक़ीदत हो तुम्हारे दिल में हो जो हौसला

तो  ’आनन’ सामने हो आँधियाँ तूफ़ान क्या !


-आनन्द.पाठक-


अख़्लाक़ = सदाचार ,शील, शिष्टाचार

शराइत = शर्तें

अक़ीदत = श्रद्धा विश्वास


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

कुछ अनुभूतियाँ

 


कुछ अनुभूतियाँ



1

कोई बची न चाहत मन में 

और न मन में कुछ दुविधा है ,

प्यार-मुहब्बत लगता ऐसे

पल दो पल की नई विधा है ।



2

एक समय था वह भी जब तुम

मेरी ग़ज़ल हुआ करती थी,

साथ रहेगा जीवन भर का-

बार बार तुम दम भरती थी ।



3

सुबह सुबह ही उठ कर तुम ने

बेपरवा जब ली अँगड़ाई,

टूट गया दरपन शरमा कर

खुद से खुद तुम भी शरमाई ।



4

सोच रही हो अब क्या, मुझमें

क्या कमियाँ है, क्या अच्छा  है

नेक चलन, बदनाम है ’आनन’

इन बातों में क्या रख्खा  है ! 


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

चन्द माहिए--

 

चन्द माहिए---

 

:1:

 क़िस्मत की बातें हैं,

कुछ को ग़म ही ग़म,

कुछ को सौग़ातें हैं।

 

 :2:

कब किसने माना है,

आज नहीं तो कल,

सब छोड़ के जाना है।

 

 :3:

कब तक भागूँ मन से,

देख रहा कोई

छुप छुप कर चिलमन से।

 

 :4:

कब दुख ही दुख रहता,

किस के जीवन में,

बस सुख ही सुख रहता ?

 

5

लगनी है तो लगती,

आग मुहब्बत की

लगने पे नही बुझती।

 

 

-आनन्द.पाठक-

8800927181

रविवार, 3 अप्रैल 2022

एक ग़ज़ल

 

एक ग़ज़ल

 

 

दुश्मनी कब तक निभाओगे कहाँ तक  ?
आग में खुद को जलाओगे  कहाँ  तक  ?         
 
है किसे फ़ुरसत  तुम्हारा ग़म सुने जो ,
रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक ?         

नफ़रतों की आग से तो खेलते हो ,
पैरहन1 अपना बचाओगे  कहाँ  तक ?             

रोशनी से रोशनी का सिलसिला है ,
इन चरागों को बुझाओगे कहाँ  तक ?              

ताब-ए-उलफ़त2 से पिघल जाते हैं पत्थर ,
अहल-ए-दुनिया3 को बताओगे कहाँ  तक ?      

सब गए हैं, छोड़ कर, जाओगे तुम भी ,
महल अपना ले के जाओगे कहाँ  तक ?           

जाग कर भी सो रहे हैं लोग ’आनन’ ,
तुम उन्हें कब तक जगाओगे कहाँ  तक ?         

 


-आनन्द.पाठक-

8800927181


1- लिबास  2-प्रेम की तपिश से , 3- दुनिया के लोगों को,