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शनिवार, 30 अप्रैल 2022

एक ग़ज़ल - ख़ुदाया ! काश वह मेरा

 एक ग़ज़ल 


ख़ुदाया ! काश वह मेरा कभी जो हमनवा होता ,

उसी की याद में जीता, उसी पर दिल फ़ना होता !


कभी तुम भी चले आते जो मयख़ाने में ऎ ज़ाहिद !

ग़लत क्या है, सही क्या है, बहस में फिर मज़ा होता ।


किसी के दिल में उलफ़त का दिया जो तुम जला देते

कि ताक़त रोशनी की क्या ! अँधेरों को पता होता । 


उन्हीं से आशनाई भी , उन्हीं से है शिकायत भी ,

करम उनका नहीं होता तो हमसे क्या हुआ होता ।


नज़र तो वो नहीं आता, मगर रखता ख़बर सब की,

 जो आँखें बन्द करके देखता, शायद दिखा होता  ।


वो आया था बुलाने पर, वो पहलू में भी था बैठा ,

निगाहेबद नहीं होती , न मुझसे वो ख़फ़ा होता ।


निहाँ होना, अयाँ होना, पस-ए-पर्दा छिपा होना ,

वो बेपरदा चले आते समय भी रुक गया होता ।


हसीनों की निगाहों में बहुत बदनाम हूँ ’आनन’ ,

हसीना रुख बदल लेतीं, कभी जब सामना होता ।


-आनन्द.पाठक-

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