एक ग़ज़ल
यूँ उनकी शान के आगे है मेरी शान क्या !
इनायत हो न जब उनकी मेरी पहचान क्या !
हवा नफ़रत जो फ़ैलाए तो है किस काम की,
न फैलाए अगर ख़ुशबू हवा का मान क्या !
गिरह तू चाहता है खोलना ,खुलती नहीं
तेरा अख़्लाक़ क्या है ताक़त-ए-ईमान क्या !
शराइत हैं हज़ारों जब, हज़ारों बंदिशें
तुम्हारे दर तलक जाना कहीं आसान क्या !
दिखाता राह इन्सां को मुहब्बत का दिया
जले ना आग सीने में तो फिर इन्सान क्या !
कभी तुमने नहीं देखा ख़ुद अपने आप को
वगरना ज़िंदगी होती कभी अनजान क्या !
जो कहना चाहते हो तुम ज़रा खुल कर कहो
तुम्हारी चाहतें क्या ,ख़्वाब क्या, अरमान क्या !
अक़ीदत हो तुम्हारे दिल में हो जो हौसला
तो ’आनन’ सामने हो आँधियाँ तूफ़ान क्या !
-आनन्द.पाठक-
अख़्लाक़ = सदाचार ,शील, शिष्टाचार
शराइत = शर्तें
अक़ीदत = श्रद्धा विश्वास
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21-04-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4407 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
आभार आप का--सादर
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएं्धन्यवाद आप का--सादर
जवाब देंहटाएंजो कहना चाहते हो तुम ज़रा खुलकर कहो
जवाब देंहटाएंतुम्हारी चाहते क्या ख़्वाब क्या अरमान क्या
अहा क्या कहने