सुनो,
आज तुम
मुझसे मिलने
इन बरसती रातों में
मत आना !
सोचा है मैंने,
आज बारिशें और मैं,
मैं और ये बारिशें,
भीगेंगें देर तक,
एक दूसरे में,
जब तलक,
एक एक बूंद में मैं
रच बस न जाऊं !
और,
हर बूंद से रग रग,
मैं भीग न जाऊं !
नही चाहिए .. कोई,
हमारे दरमियां!
बस हो तो,
बादल हो,
बूंदे हो ,
नशीली बारिशें हो,
और हूं, बस मैं !
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-06-2022) को चर्चा मंच "बहुत जरूरी योग" (चर्चा अंक-4468) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हमेशा की तरह उत्साह वर्धन करने के लिए आपका कोटि कोटि धन्यवाद सर
हटाएंआप मुझसे बहुत नवीन कवि को ये मंच देकर अभिभूत कर दिया
आभार सर
वाह , बारिश और मेरे बीच और कोई नहीं चाहिये ..कितना खूबसूरत भाव और सौन्दर्यबोध . प्रकृति का सान्निध्य सबसे आनन्दमय होता है . बहुत अच्छी भावपूर्ण कविता .
जवाब देंहटाएंहृदय से धन्यवाद ज्ञापन करती हूं.. आपका ये मान बेशकीमती है मेरे लिए ..
हटाएंआभार गिरिजा जी
सृष्टि से एकात्म होने के पथ पर
जवाब देंहटाएंकोई भय नहीं एकाकी जीवन से
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बिलकुल सही कथन है ... सृष्टि... जल थल वायु अग्नि और व्योम से बनी ये देह, उसी सृष्टि के साथ घुलमिल जाना चाहती है
हटाएंआभार आपका
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत आभार ओमकार जी
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