मैं जीना चाहूं बचपन अपना,
पर कैसे उसको फिर जी पाऊं!
मैं उड़ना चाहूं ऊंचे आकाश,
पर कैसे उड़ान मैं भर पाऊं!
मैं चाहूं दिल से हंसना,
पर जख्म न दिल के छिपा पाऊं।
मैं चाहूं सबको खुश रखना,
पर खुद को खुश न रख पाऊं।
न जाने कैसी प्यास है जीवन में,
कोशिश करके भी न बुझा पाऊं।
इस चक्रव्यूह से जीवन में,
मैं उलझी और उलझती ही गई।
खुशियों को दर पर आते देखा,
पर वो भी राह बदलती गई।
बनकर इक पिंजरे का पंछी,
मैं बंधन में नित बंधती गई।
आंखों के सपने ,सपने ही रहे,
औरों के पूरे करती रही।
हर मोड़ पर सबका साथ दिया,
अपने ग़म में बस अकेली रही।
मेरे मन की बस मन में रही,
पल-पल बस मैं घुटती रही।
नित नई परीक्षा जीवन की,
बस जीवन को ही पढ़ती रही।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-09-2019) को "आलस में सब चूर" (चर्चा अंक- 3467) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय 🙏
हटाएंवाह बहुत सुंदर लिखा है ,बधाई हो
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
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