डा श्याम गुप्त की सद्य प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह------पीर ज़माने की -----
अनुशंसा
महाकवि डा श्यामगुप्त
का नया ग़ज़ल-संग्रह ‘पीर ज़माने की’ प्रकाशित होरहा है जिसमें उन्होंने उनके
मन-लुभावनी, उत्साहवर्धक एवं तनाव को खुशी में, दुःख को शांति में बदलने की क्षमता
रखने वाली अपनी सोच का एक अनूठा दर्पण शायरी के रूप में प्रस्तुत करके शायरी के
खजाने को मालामाल किया है | उनकी नवीन उद्भावनाओं को देखकर आत्मचिंतन, आत्ममंथन
एवं एकाग्रता का एहसास खुद ब खुद पैदा होजाता है |
डा श्यामगुप्त का नवीन संग्रह ‘पीर
ज़माने की ‘ उनके द्वारा लिखित अनेक लोकप्रिय ग़ज़ल संग्रहों की परम्परा में
एक नया अध्याय आपके समक्ष प्रस्तुत है, जिसमें एक संपन्न कवि की प्रतिभा, वैभव एवं
चिन्तन को ग़ज़ल के धरातल पर शिद्दत से महसूस किया जा सकता है | डा श्यामगुप्त ने
शुरू में ही ‘ग़ज़ल की बात’ में स्पष्ट रूप से लिखा है की काफिया, रदीफ़, गैर–रदीफ़
ग़ज़ल, कसीदा और ग़ज़ल का अर्थ क्या होता है |
ग़ज़ल की परम्परा और इतिहास पर उनका ये तुलनात्मक लेख उनकी विद्वता का परिचायक है |
वह लिखते हैं---
‘मतला बगैर हो ग़ज़ल, हो रदीफ़ भी नहीं ,
यह तो ग़ज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
इसी तरह डा श्यामगुप्त
अन्य ख़ूबसूरत शेर पेश करते हुए लिखते हैं—
‘उसमें घुसने की मुझको ही मनाही है,
दरो-दीवार जो मैंने ही बनाई है |’
‘इस सूरतो रंग का क्या फ़ायदा’ श्याम,
जो मन नहीं पीर जमाने की समाई है |’
इसी तरह वह छोटी बहर में
बहुत आसान ग़ज़ल ‘खुशी लुटाकर खुश ‘ में इस तरह के शेर प्रस्तुत करते
हैं जो दिलों को मोह लेने का दम रखते हैं, जैसे ---
देख मुझको जला होगा,
वो कोइ दिलजला होगा |
गज़ब हैं श्याम की गज़लें,
कोइ तो मामिला होगा |
----तथा----
‘कोई गले लगा कर खुश,
कोई हमें सताकर खुश |
कोई सबकुछ पाकर खुश,
श्याम तो खुशी लुटाकर खुश |’
गजल ‘आज आदमी ‘ में वह इस तरह मुखर
होते हैं जैसे वक्त की सचाई बयां कर रहे हों ----
‘अब आदमी के सर पे बैठा आज आदमी,
छत अपने सर की ढूंढता आज आदमी |
हर आदमी है त्रस्त मगर होंठ बंद हैं,
अपने ही मकड़जाल बंधा आज आदमी |
२.
चूंकि डा श्यामगुप्त
स्वयं में कलम व कलाम के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं इसलिए वह ‘कविता–कामिनी’
में लिखते हैं---
‘किस दिल में कविता-कामिनी का राज नहीं है |
है बात और काव्य जो दिलसाज नहीं है |’
कवि बादशाह है सदा अपने कलाम का ,
है बात और उसके सर पे ताज नहीं है |’
डा श्यामगुप्त को उर्दू
ग़ज़ल के बुनियादी उसूल अच्छी तरह मालूम हैं तभी वह मतला और मख्ता भी जानते हैं और
काफिया रदीफ़ भी | उन्होंने अपनी शायरी में जिन्हें अच्छी तरह बरता भी है | वह कहते
हैं---
शेर मतले का न हो तो कुंवारी ग़ज़ल होती है ,
हो काफिया ही जो नहीं, बेचारी ग़ज़ल होती है |
हर शेर एक भाव हो वो जारी गजल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है || ----एवं—
कुछ तुम रुको कुछ हम रुकें चलती रहे ये ज़िंदगी |
कुझ तुम झुको कुछ हम झुकें ढलती रहे ये ज़िंदगी |
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें सुनती रहे ये ज़िंदगी ,|
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें कहती रहे ये ज़िंदगी |
इसी
तरह डा श्यामगुप्त के इस नए ग़ज़ल संग्रह ‘पीर ज़माने की; में ऐसी बेशुमार गज़लें
मौजूद हैं जिसमें दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई जो गज़लें देखी हैं
वह भाव और विचारों से परिपूर्ण हैं, बल्कि एसी ही शायरी को ग़ज़ल कहते हैं और शायरी
में गजलों को मालिका कहा जाता है | वह शायरी जिसमें सुन्दरता हो, तुकांत, लय, गति,
भाव, विषय और प्रवाह हो जिसे पढ़ते पढ़ते शायरी के सागर में डूबने का ऐहसास, वादियों
में घूमने का पुरमस्त कैफ, जवान और वयान की नुदरत साफ़ व शफ्फाफ़ नज़र आती हो | डा
श्यामगुप्त ऐसी ही शायरी के लिए जाने जाते हैं | मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना
करता हूँ और इस नए संग्रह के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रस्तुत करता हूँ |
डा सुलतान
शाकिर हाशमी
पूर्व सलाहकार सदस्य, योजना आयोग, भारत सरकार
मो.
८०९०३०१४७१ ..
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-01-2019) को "कुछ अर्ज़ियाँ" (चर्चा अंक-3210) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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उत्तरायणी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'