लघुकथा
जब उन्होंने उसकी पहली
अजन्मी बेटी की हत्या करनी चाही तो उसने हल्का सा विरोध किया था. वैसे तो वह स्वयं
भी अभी माँ न बनना चाहती थी. उसकी आयु ही कितनी थी-दो माह बाद वह बीस की होने वाली
थी. उन्होंने उसे समझाने का नाटक किया था और वह तुरंत समझ गयी थी.
लेकिन उसके विरोध ने उन्हें
क्रोधित कर दिया था. किसी विरोध को सहन करने की आदत उन्हें नहीं थी.
जब उसकी दूसरी अजन्मी बेटी
को उन्होंने मार डालने की बात कही थी तो उसने फिर विरोध किया था, और इस बार उसने
प्रचंडता से विरोध किया था.
उन्हें इस विरोध की अपेक्षा
थी, इसलिये वह पूरी तैयारी के साथ आये थे. उन्होंने कठोरता से जतला दिया था कि उसे
तो उनका आभारी होना चाहिये; वह सिर्फ उसकी बेटी को मार रहे थे, वह चाहते तो उसे भी
मार सकते थे.
उसके हाथ-पाँव बाँध दिए गये
थे. बाकी कार्यवाही बड़ी दक्षता के साथ पूरी कर ली गई थी.
चार
माह बाद वह फिर गर्भवती हुई. इस बार वह बहुत भयभीत थी. उन्हें दबी आवाज़ में बातें करते उसने
सुन लिया था. वह जानती थी कि वह नितांत अकेली और असुरक्षित थी. विरोध तो दूर, वह
एक शब्द भी न बोल पाई.
उसकी
दशा चालाक शिकारियों के बीच घिरे एक असहाय पशु समान थी. वह आये और उन्हें देखते ही
वह समझ गयी कि इस बार उसके अजन्मे शिशु की नहीं, उसकी हत्या की जायेगी.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (28-01-2019) को "सिलसिला नहीं होता" (चर्चा अंक-3230) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पूर्वाग्रह से ग्रसित लोग : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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