---- वो अपनी माँ के चार बेटों में सबसे छोटा बेटा था । माँ ने बड़े प्यार दुलारा से पाला था कि उसका बेटा डाक्टर बन जाय । माँ के आशीर्वाद से वह डाक्टर बन भी गया
... जीवन के आखिर में माँ को "लकवा" मार गया और वो शैया ग्रस्त हो गई। 3-महीने तक खाट पर पड़ी रही ,उठ बैठ नहीं सकी, आँखे निरन्तर राह देखती रही कि "छुट्ट्न" एक बार आ जाता तो देख लेती....खुली आंखें हर रोज़ छत को निहारती रही ....मगर ’वह’ नहीं आया ।एक ही बहाना -कार्य की व्यस्तता।---वो पिछले 2-साल से एक नि:संतान "बुढ़िया’ की प्राण-प्रण से सेवा कर रहा था क्योंकि उस "बुढिया’ के पास 3-कठ्ठा ज़मीन का टुकड़ा था और उस की कोई सन्तान नही थी।
... प्रतीक्षा करते करते आखिर माँ ने एक दिन आँखें मूद ली । माँ की ’तेरहवीं’ में आया मगर ’ब्रह्म भोज’ खाने से पहले ही फ़्लाइट से वापस चला गया।कारण वही -कार्य की व्यस्तता। उसे मालूम था घर की ज़मीन तो बँट्वारे में मिलेगी ही मिलेगी ,जो मर गया उसको कौन रोये जो मरने जा रही है उसको पकड़ो
---कुछ दिनों बाद वो ’बुढ़िया" भी मर गई और उसने वो ज़मीन अपने नाम लिखवा लिया था।
वो लड़का ’गिद्ध’ तो नहीं था ,मगर - ’गिद्ध-दॄष्टि’-ज़रूर थी।
-आनन्द.पाठक-
09413395592
बहुत ही सुन्दर कहानी। यही दुनिया की रीत है।
जवाब देंहटाएंआप का बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसादर
आनन्द पाठक
बहुत ही अच्छी कहानी ... अफ़सोस जनक है ऐसी औलाद..... ...
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.