उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 30 [ बह्र-ए-हज़ज [ सालिम बह्र-1]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
फिछली क़िस्त में हमने बहर मुतक़ारिब और बहर मुतदारिक की सालिम , मुज़ाहिफ़ और इसकी ’मुज़ाअफ़’ पर चर्चा कर चुके है । हालाँ कि उसके बाद भी चर्चा की और भी गुंजाइश थी मगर ज़रूरी नहीं थी।
ये दोनो बह्रें ’ख़म्मासी’ [5- हर्फ़ी] कहलाती है कारण कि इन की जो बुनियादी रुक्न ’फ़ऊलुन’ [122] और ’फ़ाइलुन’ [ 212] हैं वो 5- हर्फ़ी हैं यानी [ --फ़े--अलिफ़--ऐन--लाम--नून] से बनी है
अब हम बह्र-ए-हज़ज की चर्चा करेंगे । यह बह्र सुबाई बहर[7-हर्फ़ी] कहलाती है यानी इनके रिक्न में 7-हर्फ़ का वज़न होता है
इस बहर का बुनियादी रुक्न है --मुफ़ाईलुन [1 2 2 2] यानी [ --मीम --फ़े--अलिफ़---ऐन--ये--लाम ---नून]
यह बहर एक बतद [3 हर्फ़ी] और 2 सबब [2-हर्फ़ी] से मिलकर बना है
मुफ़ाईलुन [ 1222] = वतद+सबब+सबब
= यानी वतद-ए-मज़्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़+सबब-ए-ख़फ़ीफ़
मुफ़ा [1 2] + ई [2} + लुन [2]
= 1 2 2 2 = मुफ़ाईलुन
आज हज़ज के सालिम बहर की चर्चा करेंगे । सालिम क्यों कहते है अब बताने की ज़रूरत नहीं है शायद। इस बहर में सिर्फ़ सालिम रुक्न ’मुफ़ाईलुन’ का ही प्रयोग करेंगे कोई ज़िहाफ़ का प्रयोग नहीं करेंगे
[क] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: सालिम
मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन [दो बार]
1 2 2 2------1 2 2 2
यानी यह रुक्न अगर किसी शे’र में 4-बार या मिसरा में 2-बार] प्रयुक्त हो तो उसे मुरब्ब: सालिम कहेंगे [ मुरब्ब: मानी ही 4-होता है]
एक ख़ुद साख़्ता [खुद की बनाई हुई] शे’र सुनाते हैं [पसन्द न आए कोई बात नहीं मयार भले न हों वज़न तो है ---हा हा हा ]
चले आओ मिरे दिल में
फ़ँसी है जान मुश्किल में
तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 2 / 1 2 2 2
=1222--1222
चले आओ / मिरे दिल में
1 2 2 2 / 1 2 2 2
=1222---1222
फ़ँसी है जा /न मुश् किल में
एक दूसरा शे’र भी सुन लें [कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से ]
कभी इक़रार की बाते
कभी इनकार की बातें
तक़्तीअ कर के देखते है
1 2 2 2 / 1 2 2 2
= 1222--1222
कभी इक़ रा /र की बाते
1 2 2 2 / 1 2 2 2
=1222---1222
कभी इन का /र की बातें
जब तक अगली बहर पर जायें -एक खेल खलते हैं [ गुस्ताखी मुआफ़ी के तहत]
सिद्द्क़ी साहब के शे’र को आगे बढ़ाते हुए और अपने कलाम का पेबन्द लगाते हुए
कभी इक़रार की बातें
कभी इनकार की बातें
चले आओ मिरे दिल में
नहीं कटती हैं अब रातें
[तक़्तीअ आप कर लीजियेगा] इसी तरह आप भी चन्द अश’आर [ क़ाफ़िया बरक़रार रखते हुए] जोड़ सकते हैं --मश्क़ [ प्रैक्टिस] भी हो जायेगी] ख़याल रखियेगा --- ’बातें ’ का क़फ़िया --गाते--- आते---जाते---खाते---नहीं होगा -कारण कि इन में हर्फ़ उल आखिर [आखिरी हर्फ़] में ;नून गुन्ना’ नहीं होगा। सौगातें---मुलाक़ातें चलेगा। ख़ैर--
एक बात और--
मुरब्ब: बहर में सिर्फ़ सदर/इब्तिदा---अरूज़/जर्ब ही होता है। हस्व का मुक़ाम नहीं होता । होगा भी कैसे? एक मिसरा में 2-रुक्न है --तो जगह ही कहाँ बचा ’हस्व’ के लिए ?
वैसे सालिम बहर में ग़ज़ल कहना आसान होता है - ज़िहाफ़ से मुक्त होता है -- ज़िहाफ़ात की कोई झंझ्ट ही नहीं
[ख] बहर-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन
1222--------1222---------1222
यानी एक मिसरा में 3-सालिम रुक्न या शे’र में 6-रुक्न] मुसद्दस मानी ही 6
[जनाब आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]
मआल-ए-इश्क़ ख़जलत के सिवा क्या है
कहो सब से न कोई दिल लगाये याँ
अब इसकी तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 = 1222---1222---1222
मआले इश्/ क़ ख़ज लत के/ सिवा क्या है
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
= 1222----1222--1222
कहो सब से/ न को ई दिल / लगाये याँ
इस बहर की ’मुज़ाअफ़’ शकल भी मुमकिन है। उदाहरण आप बताएं तो अच्छा होगा अभी तक मेरे ज़ेर-ए-नज़र गुज़रा नहीं । कभी कहीं मिलेगा तो यहाँ लगा देंगे।
[
ग] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम यह वज़न ही बहुत मक़्बूल मानूस और मारूफ़ वज़न है अमूमन हर शायर ने इस बहर में अपनी ग़ज़ल /अश’आर कहें है और कसरत [ प्राचुर्य, अधिकता से,बहुतायत ] से कहें हैं और कसरत से उदाहरण दस्तयाब [प्राप्य ] हैं
इसका वज़न है
मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन
1222--------1222---------1222-------1222
यानी सालिम रुक्न -मुफ़ाईलुन- मिसरा में 4-बार और शे’र मे 8-बार आता है । मुसम्मन मानी 8
अल्लामा इक़बाल की एक नज़्म है
जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों ज़मीनो में
वो निकलें मेरे ज़ुल्मतखाना-ए-दिल के मक़ीनों में
ख़मोश ऎ दिल ! भरी महफ़िल में चिल्लाना नहीं अच्छा
अदब पहला क़रीना है मुहब्बत के क़रीनों में
एक शे’र की तक़्तीअ मैं कर देता हूँ ---एक की आप कर दें
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
=1222---1222---1222---1222 [यहाँ ख़मोश ए दिल --में ==ऐ - श के साथ वस्ल होकर ’शे’ का तलफ़्फ़ुज़ दे रहा है सो 2 का वज़न लिया
ख़मोश ऎ दिल /! भरी मह फ़िल /में चिल ला ना /न हीं अच् छा
1 2 2 2 / 1 2 2 2/ 1 2 2 2 / 1 2 2 2
= 1222---1222---1222---1222
अ दब पह ला /क़रीना है /मु हब बत के / क़रीनों में
पहले शे’र की तक़्तीअ आप कर के मुतमय्यिन [निश्चिन्त] हो लें
अब एक मीर का एक शे’र लेते है
कभू ’मीर’ इस तरफ़ आकर जो छाती कूट जाता है
ख़ुदा शाहिद है , अपना तो कलेजा टूट जाता है
[ मीर -का यह ख़ास अन्दाज़ था -कभी-को -कभू -लिखना । वज़न में वैसे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा]
इसकी तक़्तीअ भी कर के देख लेते है
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
= 1222----1222----1222----1222
कभू ’मीर’ इ स/ त रफ़ आ कर /जो छाती कू/ट जा ता है
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
=1222-----1222----1222---1222-
ख़ुदा शा हिद /है , अप ना तो / कलेजा टू /ट जा ता है
[यहां ’मीर इस’ को 2 2 की वज़न पर क्यों लिया -एक खटका सा लगा होगा आप को। कारण कि मीर के ’र ’ के साथ सामने जो ’इस’ वस्ल हो कर ---’मी रीस’-- का तलफ़्फ़ुज़ दे रहा है और यह 2- सबब है[सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है]
यानी -कभू -12 -वतद-ए-मज़्मुआ -मुफ़ा [12] के वज़न पर
मी [2] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ -ई-[2] के वज़न पर
रिस [2] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ -लुन-[2] के वज़न पर
अब एक शे’र ग़ालिब का भी देख लेते हैं
न था कुछ तो ख़ुदा था ,कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने ,न होता मैं तो क्या होता
हुई मुद्दत कि ’ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो इक हर बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता
[यहाँ एक बात वाज़ेह [स्प्ष्ट] कर दें अगर आप मतला समझ गये होंगे तो ज़िन्दगी के दर्शन भी समझ गए होंगे ।इस मतला का कोई सानी नहीं ,खुदा मग़फ़रत करें]
चलिए एक शे’र की तक़्तीअ मैं कर देता हूँ मतला की आप कर लें
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 12 2 2
= 1222---1222---1222---1222
हुई मुद् दत / कि ’ग़ालिब’ मर/ ग या पर या /द आता है
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
== 1222---1222---1222---1222
वो इक हर बा /त पर कहना /कि यों होता /तो क्या होता
तो यह होते हैं मुस्तनद शो"अरा [प्रामाणिक और उस्ताद शायरों] के कलाम -- ऐब से पाक ,मयार में बुलन्द. तवाज़ुन में एक भी मज़ीद ’हर्फ़’[ अतिरिक्त हर्फ़ ]की गुंजाईश नहीं ----हमारे जैसे ग़रीब को तो बहुत और बहुत कुछ सीखने के ज़रूरत है
उदाहरण तो बहुत है अज़ीम शो’अरा के है
अब चलते चलते एक शे’र इस हक़ीर का भी बर्दास्त कर ले[मेहरबानी होगी]
जो जागे हैं मगर जगते नहीं उनको जगाना क्या
खुदी को ख़ुद जगाना है किसी के पास जाना क्या
इबारत है लिखी दीवार पर गर पढ़ सको ’आनन’
समझ जाओ इशारा क्या ,नताइज़ को बताना क्या
पहले शे’र की तक़्तीअ कर के देखते हैं--मतला की आप कर लें-आसान है
1 2 2 2/ 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
=1222--1222--1222--1222
जो जागे हैं / म गर जगते /नहीं उनको /जगाना क्या
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 12 2 2 / 1 2 2 2
=1222---1222----1222--1222
खुदी को ख़ुद/ जगाना है /किसी के पा /स जाना क्या
चलते चलते एक खूब सूरत दिलकश गाना सुनाते है --आप ने सुना भी होगा --यू ट्यूब- पर उपलब्ध है गीतकार राजेन्द्र कृष्ण जी है
फ़िल्म ’शहनाई’ [1964] का है जिसको विश्व जीत और राजश्री पर फ़िल्माया गया है ।लिन्क नीचे लगा दिया हूँ आप भी सुने
https://www.youtube.com/watch?v=W_YckCpQAoY
गाने की इबारत लिख रहा हूँ
न झटको जुल्फ़ से पानी ,ये मोती फूट जायेंगे
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा ,मगर दिल टूट जायेंगे
ये भींगी रात ये भींगा बदन ये हुस्न का आलम
ये सब अन्दाज़ मिल कर दो जहाँ को लूट जायेंगे
हमारी जान ले लेगा ,ये नीली आँख का जादू
चलो अच्छा हुआ मर कर जहाँ से छूट जायेंगे
ये नाज़ुक लब है या आपस में दो लिपटी हुई कलियाँ
ज़रा इनको अलग कर दो तरन्नुम फूट जायेंगे
अब 1-2 शे’र की तक़्तीअ कर के देखते है बाक़ी का आप कर के तस्दीक कर लें
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2/ 1 2 2 2
1222-1222-1222-1222
न झटको जुल् /फ़ से पानी / ,ये मोती फू /ट जायेंगे
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
1222--1222-1222-1222
तुम्हारा कुछ / न बिग ड़े गा ,/ म गर दिल टू /ट जायेंगे
1 2 2 2 /1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
1222-1222-1222-1222
ये भींगी रा/ त ये भींगा /बदन ये हुस् / न का आलम
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 /1 2 2 2
1222-1222-1222-1222
ये सब अन् दा / ज मिल कर दो /जहाँ को लू /ट जायेंगे
अरे ! यह तो बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम की बहर आ गई। तो क्या यह गाना हज़ज मुसम्मन सालिम में लिखा गया है } जी हां
गाना लिख कर उदाहरण देने का मेरा मक़सद यही रहता है कि आप बहर/वज़न की ताक़त को पहचाने, कितनी तर्न्नुम होती हैं ये बह्रें ,,,,कितनी दिल कश मौसिकी [संगीत] लय तान धुन सुर आरोह अवरोह से बाँधी जा सकती हैं ये ग़ज़लें । पुरानी पीढ़ी के गीतकार .शायर कितना पास [ख़याल] रखते थे अपनी शायरी में । ऊपर के शे’र मे एक भी हर्फ़ न ज़्यादा हुआ न कम हुआ-क्या ग़ज़ल कही है हर वज़न हर शे’र अपनी जगह मुकम्मल । यही कारण है कि ग़ज़ल लिखना आसान भले हो कहना आसान नहीं
आज के फ़िल्मी गीतों की क्या बात करे ---चार बोतल वोडका---काम है मेरा रोज़ का---हो गया गाना । अल्ला अल्ला ख़ैर सल्ला--भगवान ही मालिक है।
एक बात और
एक बात मेरे ज़ेहन में आ रही है ,आप के ज़ेहन में भी आ रही होगी?
मुतक़ारिब और मुतदारिक के केस में मुज़ाअफ़ [ 16-रुक्नी] बहर का ज़िक़्र किया था मगर अरूज़ की किताबों में बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम मुज़ाअफ़ का कहीं ज़िक़्र नही देखा और न कोई मिसाल [उदाहरण] ही देखी? न जाने क्यों ? पता नही? इस सवाल का जवाब तो कोई मुस्तनद व मारूफ़ अरूज़ी [प्रमाणित व प्रतिष्ठित ] ही दे सकते हैं आप में से भी शायद कोई दे सकता है। मैं तो नहीं दे सकता ,मेरी बिसात कहाँ ।
हाँ लाल बुझक्कड़ की तरह कुछ बूझ सकता हूं सही भी हो सकता है ग़लत भी हो सकता है कॄपा कर के इसको प्रमाणिक नहीं मानियेगा } मैं तो ऐसे ही सोच रहा हूँ
मुतक़ारिब या मुतदारिक बहरें ख़म्मसी बहरें [5-हर्फ़ी]बहरें थी अगर इनकी ’मुसम्मन मुज़ाअ’फ़ बहर बनती है
तो कुल मात्रा 122----122------------------122- = 5 गुना 8 =40 हर्फ़
या 212---212-------------------------------212-= 5 गुना 8 = 40 हर्फ़
मगर जब सुबाई बह्रे [हज़ज------रमल----रजज़ ] की मुसम्मन मुज़ाअफ़ बनेगी तो क्या होगा =56 हर्फ़ आ जायेंगे
इतनी लम्बी बहर क्या मौसिकी [संगीत] सपोर्ट कर पायेगी या नहीं ? मालूम नहीं?
मगर हाँ --जिस गज़ल को संगीत बद्ध या लय पूर्ण गाया न जा सके तो फिर वो ग़ज़ल क्या है । ’दाग़’ की ग़ज़लें कोठेवालियाँ यूँ ही तो नहीं गाती थी !
आ
प की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा
अब अगले क़िस्त में बहर-ए-हज़ज के मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा करेंगे
अस्तु
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........
[नोट् :- पिछले अक़सात [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर भी देख सकते हैं
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-आनन्द.पाठक-
0880092 7181