मतदाताओं में ख़राबी है.
मुकंदी लाल जी को हम ने लाख समझाया पर इस बार उन्होंने हमारी एक न सुनी.
‘इस बार हम आपकी एक न सुनेंगे. हर बार हम अपना मन पक्का करते हैं और हर बार
आप हमारा विश्वास डगमगा देते हैं. इस बार हम अवश्य ही मुनिसिपलिटी का चुनाव
लड़ेंगे. कोई पार्टी हमें टिकट दे या न दे, हमारा निर्णय न बदलेगा. हम चुनाव में
खड़े होंगे, चाहे निर्दलीय ही खड़े हों. आप समझ नहीं रहे, अगर आप-हम जैसे अच्छे लोग
राजनीति में आयेंगे नहीं तो राजनीति
बदलेगी कैसे?’
उनकी बात सुन मन में गुदगुदी सी हुई. अनचाहे ही पर अपने साथ वह हमें भी
अच्छा कह रहे थे.
‘मुकंदी लाल जी, कितने ही लोग पहले से राजनीति को बदलने में अपना सब कुछ दांव
पार लगा कर बैठे हैं. अब आप भी राजनीति बदलने के अभियान में जुट जायेंगे तो
राजनीति बेचारी तो पूरी तरह त्रस्त हो जायेगी. राजनीति पर इतना अत्याचार न करें.
साठ वर्षों से हमारे राजनेता राजनीति की........’
‘आप जितना भी व्यंग्य करना चाहें करें पर हम अब रुकने वाले नहीं.’
और मुकंदी लाल जी नहीं रुके. किसी पार्टी से टिकट तो मिलना था नहीं, निर्दलीय
के रूप में ही उन्होंने पर्चा भर दिया और चुनाव अभियान में कूद पड़े. घर-घर जाकर
मतदाताओं के सामने उन्होंने अपने विचार रखे, राजनीति को बदलने का अपना निश्चय
बताया. सबने सहयोग का विश्वास दिलाया.
“हमारा विश्वास करें. अभी तक सब राजनेताओं ने आपको ठगा है. हम आपको ठगने के
विचार से राजनीति में नहीं आये हैं. इस देश के लिए, इस समाज के लिए कुछ करने का
निश्चय किया है. इस राजनीति को बदल देंगे. चुनाव समाप्त होते ही सब राजनेता लोगों
को भुला बैठते हैं. सब के सब सत्ता के पीछे दौड़ पड़ते हैं, अपने परिवार को राजनीति
में लाने के प्रयास में लगे रहते हैं. हम ऐसा नहीं करेंगे. हमारे परिवार को कोई भी
सदस्य हमारे आसपास भी न दिखेगा.” ऐसी ही कई बातें मुकंदी लाल जी ने लोगों से कही.
चुनाव के बाद उन्हें पूरा विश्वास था कि वह जीत जायेंगे, ‘लोगों का उत्साह
देखते ही बनता था. मुझे तो लगता है कि अन्य सभी उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो
जाएगी. जीत पक्की है. अच्छा किया जो आपकी बातों में न आया और इस बार चुनाव में
खड़ा हो ही गया. अब इस समाज को बदल कर रख दूंगा.’
यह डायलाग उन्होंने ऐसे कहा जैसे कह रहे हों, ‘पाप को जला कर राख कर
दूंगा.’
चुनाव का नतीजा आया. मुकंदी लाल जी को कुल उन्नीस वोट मिले थे. जीतने वाले
उम्मीदवार को चालीस हज़ार से अधिक वोट मिले थे. जो व्यक्ति दसवें स्थान पर आया था
उसे एक सौ बीस मत मिले थे. मुकंदी लाल जी को सब से कम मत मिले थे.
‘क्या लगता है आपको, क्या मशीन में कोई गड़बड़ थी? आपके जानने- पहचानने वालों
की संख्या ही पचास से ऊपर होगी. कम से कम पचास मत तो मिलने ही चाहिए थे?’
‘नहीं भाई साहिब, मशीन में कोई गड़बड़ नहीं थी. मशीन में क्या खराबी होगी. मुझे लगता है मतदाताओं में ही खराबी है, जानते
हैं जो व्यक्ति चुनाव जीता है उसने पांचवीं बार पार्टी बदली है. हम नई राजनीति की
बात कर रहे थे और लोग दल-बद्लूओं को वोट दे रहे थे. सुना है जितने लोग जीते हैं उन
में से कईयों के विरुद्ध अपराधिक मामले भी चल रहे हैं. मशीन बेचारी क्या करे, जब
मतदाता ही ऐसे लोगों को वोट दे देते हैं.’
‘पर दूसरी पार्टियों के नेता तो मशीन को ही दोष दे रहे हैं.’
‘मशीन उनकी बात का जवाब नहीं दे सकती इसलिए मशीन पर दोष लगाना सरल है. अपने
को कोई दोषी मानता नहीं. एक-दूसरे को हार का दोषी ठहराएंगे तो आपस में ही कहा-सुनी
हो सकती है.’
‘पर आप भी तो मतदाताओं को दोषी ठहरा रहे हैं?’
‘तो क्या गलत कर रहे हैं?’
हम चुप हो गए, मतदाता की भूमिका को नकारा तो नहीं जा सकता. आज की राजनीति
के लिए क्या सिर्फ राजनेता ही दोषी हैं, यह प्रश्न हमारे समक्ष भी खड़ा हो गया.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16-04-2017) को
जवाब देंहटाएं"खोखली जड़ों के पेड़ जिंदा नहीं रहते" (चर्चा अंक-2619)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
धन्यवाद्
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