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सोमवार, 11 नवंबर 2019

एक ग़ज़ल : भले ज़िन्दगी से हज़ारों शिकायत---

एक ग़ज़ल : भले ज़िन्दगी से हज़ारों ---

भले ज़िन्दगी से  हज़ारों शिकायत
जो कुछ मिला है उसी की इनायत

ये हस्ती न होती ,तो होते  कहाँ सब
फ़राइज़ , शराइत ,ये रस्म-ओ-रिवायत

कहाँ तक मैं समझूँ ,कहाँ तक मैं मानू
ये वाइज़ की बातें  वो हर्फ़-ए-हिदायत

न पंडित ,न मुल्ला ,न राजा ,न गुरबा
रह-ए-मर्ग में ना किसी को रिआयत

मेरी ज़िन्दगी ,मत मुझे छोड़ तनहा
किसे मैं सुनाऊँगा अपनी हिकायत

निगाहों में उनके लिखा जो पढ़ा  तो
झुका सर समझ कर मुहब्बत की आयत

बुरा मानने की नहीं बात ,’आनन’
है जिससे मुहब्बत ,उसी से शिकायत

-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ
फ़राइज़ = फ़र्ज़ का ब0व0
शराइत = शर्तें [ शर्त का ब0व0]
रह-ए-मर्ग = मृत्यु पथ पर [ मौत की राह में ]
अपनी हिकायत  = अपनी कथा कहानी
आयत = कलमा-ए-क़ुरान [ की तरह पाक] -

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-11-2019) को    "आज नहाओ मित्र"   (चर्चा अंक- 3517)  पर भी होगी। 
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।  
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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