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बुधवार, 30 सितंबर 2020

चन्द माहिए

 चन्द माहिए ...


1

सौ बुत में नज़र आया

सब में दिखा वो ही

जब दिल में उतर आया


2

जाना है तेरे दर तक

ढूँढ रहा हूँ मैं

इक राह तेरे घर तक


3

पंछी ने कब माना

मन्दिर-मस्जिद का 

होता है अलग दाना 


किस मोड़ पे आज खड़े ?

क़त्ल हुआ इन्सां

मज़हब, मज़हब से लड़े 


5

इक दो अंगारों से 

समझोगे क्या ग़म 

दरिया का, किनारों से?


-आनन्द  पाठक-


शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

एक युगल गीत

 एक  युगल   गीत 


कैसे कह दूँ कि अब तुम बदल सी गई
वरना क्या  मैं समझता नहीं  बात क्या !

एक पल का मिलन ,उम्र भर का सपन
रंग भरने का  करने  लगा  था जतन
कोई धूनी रमा , छोड़ कर चल गया
लकड़ियाँ कुछ हैं गीली बची कुछ अगन

कोई चाहत  बची  ही नहीं दिल में  अब
अब बिछड़ना भी  क्या ,फिर मुलाक़ात क्या !
वरना क्या मैं समझता----

यूँ जो नज़रें चुरा कर गुज़र जाते हों
सामने आने से तुम जो कतराते हो
’फ़ेसबुक’ पर की ’चैटिंग’ सुबह-शाम की
’आफ़-लाइन’- मुझे देख हो जाते हो

क्यूँ न कह दूँ कि तुम भी बदल से गए
वरना क्या मैं समझती नहीं राज़ क्या !

ये सुबह की हवा खुशबुओं से भरी
जो इधर आ गई याद आई तेरी
वो समय जाने कैसे कहाँ खो गया
नीली आंखों की तेरी वो जादूगरी

उम्र बढ़ती गई दिल वहीं रह गया
ज़िन्दगी से करूँ अब सवालात क्या !
वरना क्या मैं समझता नहीं-------

ये सही है कि होती हैं मज़बूरियाँ
मन में दूरी न हो तो नहीं  दूरियाँ
यूँ निगाहें अगर फेर लेते न तुम
कुछ तो मुझ में भी दिखती तुम्हें ख़ूबियाँ

तुमने समझा  मुझे ही नहीं आजतक
ना ही समझोगे होती है जज्बात क्या !

वरना क्या मैं समझती नहीं--------

-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 21 सितंबर 2020

एक व्यंग्य : आमन्त्रण लिंक

 एक हास्य- व्यंग्य : आमन्त्रण-लिंक

मिश्रा जी ने आते ही आते अपनी उँगलियाँ दबानी शुरू कर दी।
,यह उनकी आदतों में शुमार है । वह तब तक ऐसा कुछ न कुछ करते रहेंगे
जब तक कि आप उन से पूछ न लें कि मिश्रा जी ! क्या हुआ ?
इससे पहले कि वह कुछ कहते,मैने ही पूछ लिया -’ मिश्रा जी ! क्या हुआ ?
’भई पाठक ! सुबह से सबको "आमन्त्रण-लिंक" भेजते भेजते उँगलिया दर्द करने लगी ,वही दबा रहा हूँ।
"आमन्त्रण -लिंक? कैसा? किसलिए? छोटे की शादी तय कर दी क्या ? निमन्त्रण-पत्र ही छपवा लेते’
-हा हा हा ! -मिश्रा जी अचानक हँस पड़े और सोफ़ा में धँस पड़े और मुखर हो पड़े-" शास्त्रों में लिखा है कि कुएँ के मेढक को कभी कभी कुएँ से बाहर भी निकलना चाहिए।"
-"क्या मतलब"?
"मतलब यह कि दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई और तुम हो कि कलम-घिसाई में लगे हो।भइए ! कभी ’फ़ेसबुक’पर आओ ,कभी "व्हाट्स अप’ पर जाओ तो पता चले कि धूप कहाँ से कहाँ चढ़ चुकी है कविता-ग़ज़ल कहाँ से कहाँ पहुँच गई है ।क्या क्या ऊँचाइयाँ छू रही हैं। 25-30 मंच से जुड़ा हूँ। हर जगह से बुलावा आता है-- मिश्रा जी मेरे ’फ़ेसबुक’ पर लाइव आइए--कविता पाठ कीजिए--यहाँ आइए- इधर आइए --उधर मत जाइए - हम ’ज़ूम’ से प्रसारण कराते है -ओरिजिनल वर्जन पेड वर्जन से----मेरे यहाँ वाच पार्टी में आइए--ग़ज़ल सुनाइए
एकल काव्य पाठ कीजिए--समूह में कीजिए ---वाह वाह पाइए तालियाँ मुफ़्त में -मेरी काव्य-गोष्ठी में आइए --मालूम भी है तुम्हे कुछ?
कितनी माँग चल रही है मेरी --मेरी कविताओं की --मेरी गज़लों की ।-बेताब हैं लोग सुनने के लिए।कभी इस फ़ेसबुक पर कभी उस फ़ेसबुक पर । कभी यहाँ, कभी वहाँ ।उसी प्रोग्राम का सबको लिंक भेज रहा था सुबह से -लगा हुआ था कि उँगलियाँ थक गईं
-" तो लिंक के नीचे यह भी लिख दिया होता - मैने सुझाव दिया।
भेज रहा हूँ नेह निमन्त्रण ,प्रियवर तुम्हे बुलाने को
हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को
-’मगर मिश्रा जी मैने आप को कभी कुछ लिखते हुए तो देखा नहीं ?
-"-तो पढ़ते हुए देख लो ।-मिश्रा जी ने एक कुटिल मुस्कान उड़ेली ।- इसीलिए तो कह रहा हूँ कि कुएँ के बाहर
भी एक दुनिया होती है । 4 बजे शाम को आलाना साइट पे मुझे सुनो--5 बजे फ़लाना मंच से सुनो--6 बजे ढकाना महफ़िल में देखो
--7-बजे विश्व हिंदी मंच से मेरा एकल काव्य पाठ सुन कर आशीर्वाद दो--8-बजे अन्तर्राष्ट्रीय मंच से-आन लाइन-9 बजे अन्तरराष्ट्रीय मंच से--आन लाइन--।-भाई साहब साँस लेने की फ़ुरसत नहीं--नन्ही सी जान है, कितने काम है !-
-मिश्रा जी ने सीना चौड़ा करते हुए यह बात कही
-" हाँ ! फ़ुरसत कहाँ मिलती होगी कुछ नया लिखने पढ़ने की ?
शायद मिश्रा जी इस वाक्य का निहित अर्थ नहीं समझ सके। और समझते भी कैसे ? अभी तो वह ’खुद को दिखाने" में व्यस्त हैं
’तुम कभी "आन लाइन लाइव’ हुए हो ?-मिश्रा जी ने पूछा”
"नहीं । मगर ऐसे निमन्त्रण/आमन्त्रण रोज़ आते हैं मेरे .’इन-बाक्स’ में ।हाँ ,एक बार एक ’लिन्क’ पर क्लिक किया था--खुला नहीं ।
फोन कर के पूछा--तो उन्होने बताया कि शाम 8-बजे खुलेगा भाई।
तब मालूम हुआ कि कुछ लोग शाम 8-बजे के बाद ही ’खुलते" हैं -- मखना चखना के साथ ।
"हाँ, गया था"-अब मैने सीना चौड़ा कर के कहा। जाने के पहले चार बार दरपन देखा, चालिस बार कंघी किया,बाल सँवारा। "अर्ध गंजे सर" से
माँग निकालना आसान होता है क्या !
गया था एक लिंक पर ।-एक घंटा तो "प्र्नाम-पाती ’ होता रहा ।-कोई सज्जन आत्म मुग्ध हो कर एकल कविता पाठ कर रहे थे।कभी बाल सँवार रहे थे।कभी हाथ जोड़ रहे थे,कभी सर झुका रहे थे ।कभी आँख मूँद रहे थे। एक लाइन सुनाते थे फिर पता नहीं झाँक झाँक कर क्या देख रहे थे? बीच बीच में कहते जा रहे थे -
-अहा दद्दा आ आ गए--सादर प्रनाम -शर्मा जी आ गए -अहा धन्य हो गया मैं ----स्वागत है--भाई वर्मा जी --किधर रह गए थे महोदय -
-। हाँ तो अगली लाइन सुने --अच्छा लगे तो अपने इस बेटे को आशीर्वाद ज़रूर दीजियेगा--हर 1-2 लाइन गाने के बाद -किसी न किसी का स्वागत ही कर रहे थे ।
-कुसुम दीदी आ गईं --स्वागत है--मीरा बहन का बहुत --अहा ’प्रिया आंटी- भी आ गई ? आंटी शब्द सुनते ही प्रिया जी बिना रुके ही चली गईं।
आई भी और गई भी । रिया भाभी --धन्यवाद --पधार कर मुझे कॄतार्थ कर दिया --हा तो-अगली लाइन सुनें-। अगली लाइन गाने के लिए जैसे ही उन्होने
अपनी आँखें बन्द की कि किसी आने वाले पर नज़र पर पड़ गई --और जैसे ही स्वागत के लिए मुँह खोला की नेट -आफ़ हो गया--।
पाँच मिनट की कविता में आधा घंटा लगा दिया ।
फ़ेसबुक वालों यू -ट्यूब वालों ने क्या इन्तज़ाम कर दिया कि अब हर आदमी गीत सुना रहा है--ग़ज़ल सुना रहा है -माहिया गा रहा है--लगता है हर लिंक पे गीतकार बहुत हैं -- ग़ज़लकार बहुत है --अदाकार बहुत हैं ।
एक और लिंक पर गया था । --देखा कोई देवी जी मुखरित थीं । बड़े लय से तरन्नुम में अपनी कोई गीत गा रही थी।बीच बीच में अपना आँचल भी सँभाल रही थी । यहाँ भी वही स्वागत --स्वागतम-- कार्यक्रम-चल रहा था --गीता दीदी का स्वागत-- नीता दीदी स्वागतम कमेन्ट बाक्स में धड़ाधड़ कमेन्ट दिए जा रहे थे--वाह वाह--बहुत मधुर आवाज-- कोकिल कंठी है---क्या आवाज़ पाई है
खुदा की देन है --वाह बहुत खूब-- क्या गीत गा रही है मोहतरमा --अभूतपूर्व --कभी सुना नही ऐसा --क्या दर्द समेटा है -अपने दिल में ,--- कलेजा मुँह को आ जावे है ।क्या सूरत पाई -वल्लाह -क्या सीरत पाई-या खुदा- क्या जल्वा नुमाई--यारब। खुदा जब हुस्न देता है---।
सैकड़ो --वाह वाह-- के बाद आधे घंटे का कार्यक्रम एक घंटे में सम्पन्न हुआ ।
लोग अपने अपने घर गए। जो घर पे सोए रह गए -उन्हें कार्यक्रम की " विडीयो रिकार्डींग ’ भेज दिया गया --इस संदेश के साथ कि जब आप सो रहे थे तो मैने गीत ग़ज़ल को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया ---आप भी इस विडियो को देखें ,अपने दोस्तों रिश्तेदारों को भेजे ,अपने मंच के सदस्यों को आगे पहुँचाए---पुण्य मिलेगा--लाभ होगा ।आप पर लक्ष्मी की कृपा बरसेगी।
हम पर लक्ष्मी की कृपा बरसे न बरसे मगर विडियो के हर अग्रेषण पर फ़ेसबुक वालों पर कृपा ज़रूर बरसेगी ।
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--- ख़ैर ।
कुछ दिनों बाद वह देवी जी टकरा गई और टकराते ही वाह वाह की प्र्त्याशा में उन्होने मुझसे पूछ लिया -’उस दिन मेरी कविता कैसी लगी आप को ?"
"कविता ? कौन सी ? मैं तो बस आप को ही देखता रहा । क्या साड़ी पहनी थी वाह वाह आप -वाह बहुत सुन्दर लग रही थी । क्या करीने से ’प्लेट’ लगाई थी आप ने ! बनारसी थी? मेक अप भी कमाल का ।कौन सा पार्लर था ?
हाँ आप के गले का चेन बहुत वज़नी लग रहा था 7-8 तोले से कम तो क्या रहा होगा?
-अरे महराज ! मैं कविता के बारे में पूछ रही हूँ-कविता कैसी लगी ?कविता के बारे में ?
कौन सी कविता ? क्या कहने ! वाह वाह ! आप का रंग रूप देख कर ही कविता की सुन्दरता का अन्दाज़ा लगा लिया था। मैं ’कवर’ देख पुस्तक पढ़ने का आदी हूँ
। क्या सुना ?मैं क्या बताऊँ? बस इतना ही समझ लीजै
- -गिरा अनयन ,नयन बिनु बानी--
कॄष्ण बिहारी ’नूर’-साहब से भी पूछती तो वह भी यही कहते
हो किस तरह से बयाँ तेरे हुस्न का आलम
जुबां नज़र तो नहीं है ,नज़र ज़ुबाँ तो नहीं
तारीफ़ उस ख़ुदा की जिसने तुझे बनाया--
-॑॑"हट मुए" - कह कर वह जो गईं सो गईं ।बाद में मुझे "ब्लाक" भी कर दिया।
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यारमिश्रा ! उन्होने मुझे "ब्लाक" क्यों कर दिया ? -
मिश्रा ने रहस्य बताया ,अनुभवी आदमी था -- वह अपनी कविता पर ’वाह’ वाह सुनना चाहती थी -तुम-भगवान की रचना पर वाह वाह करने लगे ।--
वह अपनी रचना के सौन्दर्य के बारे में पूछ रही थी । तुम भगवान की रचना के सौन्दर्य का वाह वाह करने लगे ।
-और -"मुए"- क्यों बोला ?-
-इसलिए कि "जा मर" और भगवान की रचना का वाह वाह भगवान के पास जा के कर।
एक बात और बता दूँ- तुम्हारी इसी हरकत के कारण सब महिला कवयित्रियॊं ने तुम्हें "ब्लाक" कर रखा है।
अस्तु
-आनन्द.पाठक-

रविवार, 20 सितंबर 2020

मेरी बर्बादी में कल तुम भी तो शामिल थे

 

मेरी बर्बादी में कल तुम भी तो शामिल थे

दुश्मनों की आबादी में कल तुम भी तो शामिल थे

 

वाह तुम गवाह हो गए उस मजलूम की तलाक पे

कल इनके ही शादी में तुम भी तो शामिल थे

 

देख लोग फिर खूं पीने लगे है दूजे का शहर में

इस खूंखार आॅधी में तुम भी तो शामिल थे

 

सियासत तुमने धरती को लाल लाल कर दिया है

इस नफरतों की वादी में तुम भी तो शामिल थे

 

कल हमने तुम्हे देखा था गलियों में मत माॅगते

हाॅ लिबास-ए- खदी में तुम भी तो शामिल थे

 

एक नया युग एक नया मुल्क बनाना था तुम्हे

कल विकास की मुनादी में तुम भी तो शामिल थे

 



 sanjay kumar maurya

शनिवार, 19 सितंबर 2020

मुहब्बत जाग उठी दिल में --

 ग़ज़ल  : मुहब्बत जाग उठी दिल में --


मुहब्बत जाग उठी दिल में ,ख़ुदा की यह इनायत है ,

इसे रुस्वा नहीं करते ,अक़ीदत है , इबादत है    ।


जफ़ा वो कर रहें मुझ पर ,दुआ भी कर रहें मेरी ,

ख़ुदा जाने इरादा क्या ,ये नफ़रत है कि उल्फ़त है ?


मरासिम ही  निभाने हैं ’हलो’ या ’हाय’ ही कह कर ,

अगर वाज़िब समझते हो ,हमें फिर क्या शिकायत है ।


ज़माने की हवाओं से  मुतस्सिर हो गए तुम भी ,

न अब वो गरमियाँ बाक़ी न पहली सी रफ़ाक़त है ।


कहाँ ले कर मैं जाऊँगा  ,ये अपना ग़म तुम्हीं कह दो ,

तुम्हारा दर ही काबा है ,यही अपनी ज़ियारत है  ।  


रकीबों के इशारों पर ,नज़र क्यों फेर ली तुम ने?

हमीं से पूछ लेते  तुम -’ कहो ! क्या क्या शिकायत है ?’ 


इधर मैं जाँ ब लब ’आनन’ उधर वो रंग-ए-महफ़िल में ,

यही हासिल मुहब्बत का , हसीनों की  रवायत है  ।   


-आनन्द.पाठक-



मरासिम - रस्में

मुतासिर = प्रभावित

रफ़ाक़त =दोस्ती

जाँ ब लब = मरणासन्न स्थिति


सोमवार, 14 सितंबर 2020

एक हास्य व्यंग्य़ : हिंदी पखवारा और मुख्य अतिथि

 नोट- आज 14-सितम्बर-हिंदी दिवस। है । जो सरकारी विभाग में सेवारत हैं वह हिंदी की ’उपयोगिता ’ समझते होंगे।जो नहीं हैं  हिंदी का ’महत्त्व’ समझते होंगे।

सभी हिंदी प्रेमियों को ,हिंदी सेवकों को हार्दिक बधाई ।  हिंदी एक सतत प्रवाहिनी सलिला गंगा है ।हम सबका दायित्व है  कि ’हिंदी’ की  अस्मिता ,शुचिता एवं स्वच्छता

बनाए रखें । और इसके विकास में हम सब अपना योगदान करें । सादर

-शेष अगले साल । 

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एक हास्य व्यंग्य :  हिंदी पखवारा और मुख्य अतिथि 


"अरे मिश्रा जी ! कहाँ भागते जा रहे हो भाई? "-आफिस की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए  मिश्रा जी टकरा गए ।

’भई पाठक ! तुम में बस यही बुरी आदत है । प्रथमग्रासे मच्छिका पात:।  मालूम नहीं  कि आज से ’हिन्दी पखवारा" शुरू हो रहा है और सरकारी विभाग में हिन्दी पखवारा का क्या महत्व होता है  ? मरने की फ़ुरसत नहीं होती "---मिश्रा जी ने अपना तात्कालिक और सामयिक महत्त्व बताया।

’अरे ’ ’मार कौन रहा है तुम्हें  ?-’ मै ने सहानुभूति जताई ।

इसी बीच मिश्रा जी की हिंदी चेतना जग गई-" मरने" की बात कर रहा  ’मरण’ की  बात कर रहा ,हूँ मरण-मरण-- ’डाईंग’--’डाईंग- । ’मारने’  की बात नहीं कर रहा हूँ ’बीटिंग’ की नहीं ।’मरना’ अकर्मक क्रिया है --’मारना’ सकर्मक क्रिया है । मालूम भी है तुम्हें कुछ । मालूम भी कैसे होगा? "फ़ेसबुकिया" हिंदी से फ़ुरसत मिलेगी तब न ।उन्होने मुझे ’हिंदी’ अँगरेजी माध्यम से समझाई।

’अरे जाओ  न महराज,मरो ’--मै ने अपना पीछा छुड़ाते हुए ,खिसकना ही उचित समझा।

   मेरे पुराने पाठकगण  ,मिश्रा जी से अवश्य परिचित होंगे। जो नहीं परिचित हैं ,उन्हें मिश्रा जी के बारे में संक्षेप में बता दूँ । मेरा सम्बन्ध मिश्रा जी से वही है जो किसी ज़माने में  राजनारायण जी का चौधरी चरण सिंह से हुआ करता था , के0पी0 सक्सेना जी का किसी ’मिर्ज़ा’ से हुआ करता था या  अमित शाह जी का मोदी जी से हुआ करता है। मिश्रा जी अति उत्साह में, जब कहीं ’लंका-दहन’ कर के आते हैं तब मुझे ही ’लप्पो-चप्पो’ कर के स्थिति सँभालनी पड़ती है।

 

मिश्रा जी ने सही कहा ।अबतक मैं  ’फ़ेसबुकिया हिंदी ’को ही असली  हिंदी समझ रहा था। शुद्ध  हिन्दी समझ रहा था । मैं आत्म-चिन्तन में डूब गया । सरकारी विभाग में हिंदी-पखवारा के दौरान एक हिन्दी -अधिकारी का  काम कितना  बढ़ जाता है ।कितनी भाग -दौड़ करनी पड़ती है ।जाके पैर न फटी बिवाई ,सो  क्या जाने पीर पराई। ।उनका जूता उनको कहाँ कहाँ काट रहा है, किसी को क्या मालूम !

1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।करोडो रुपए खर्च होते है हर साल । कितनी प्रगति हुई? हम कहाँ से कहाँ तक पहुँचे -पता नहीं? हाँ इतना पता है कि कुछ लोग जुगाड़ लगा कर हिंदी के  नाम पर कहाँ से कहाँ  पहुँच गए ।ऐसे वैसे लोग भी  कभी सेमिनार के नाम पर,कभी वर्कशाप के नाम पर,कभी हिंदी के उत्थान के नाम पर समितियों में घुस गए अकादमी में घुस गए । भारत से अमेरिका तक, जापान तक ,रूस तक ,चाइना तक आते जाते रहते हैं -हिंदी का विस्तार करना है ।विश्वव्यापी बनाना है ।


  उधर मिश्रा जी ने चिन्तन शुरू कर दिया। -आसान  है क्या ’हिंदी-अधिकारी ’ का काम ।बड़े साहब का हिंदी में  सन्देश लिखना ,स्वागत-भाषण लिखना, धन्यवाद प्रस्ताव लिखना, हिन्दी की क्या महत्त्व है -पर आलेख लिखना । सैकड़ों काम ।उदघाटन के लिए मुख्य-अतिथि चुनना ,पकड़ना और पकड़-धकड़  कर लाना ।और  मुख्य-अतिथि चुनना भी आसान काम होता है क्या? बड़े-बड़े साहित्यकार तो पहले से ही बुक हो जाते है । शादी के मौसम में बैंड बाजा वालों को समय से ’बुक’  न करो तो  बजाने वाले भी नहीं मिलते मौके से । नखरे ऊपर से।मुख्य अतिथि  पकड़ने-धकड़ने में पिछली बार कितनी परेशानी हुई थी ।एक तथाकथित ठलुआ निठ्ठल्लुआ साहित्यकार के पास गया था। बैठा मख्खी मार रहा था । ’किसी  हिंदी कविता कहानी  ग्रुप का ’फ़ेसबुकिया एड्मिनिस्ट्रेटर’ था । हिंदी-ग्रुप के कुछ फ़ेसबुकिया संचालक भी अपने आपको हिंदी का "मूर्धन्य साहित्यकार’ मानता है  और जो उसे नहीं मानते हैं , उन्हे वह ’लतिया’ देता है अपने ग्रुप से । वह अपने नाम के आगे ’कवि अलानवी ’, ..शायर फ़लानवी ,कथाकार ढेकानवी  ,वरिष्ठ लेखक आदि लिख लेता है । ख़ुद ही मोर पंख लगा कर जंगल में नाचने लगता है ।और अपने ग्रुप पर  ’अखिल भारतीय साहित्यकार चयन’ प्रतियोगिता करा कर  प्रथम , द्वितीय ,तॄतीय पुरस्कार और सांत्वना पुरस्कार बाँटने लगता है । अंधा बाँटे रेवड़ी--फिर फिर अपने दे ।


 ऎसे ही एक महानुभाव के पास .हिंदी-दिवस पर ’मुख्य अतिथि’ बनाने के लिए निमन्त्रित  करने गया था ।


"भई मेरे पास ’मुख्य अतिथि’ बनने का  टैम तो नहीं है । दसियों जगह से निमन्त्रण आए हैं ।आप ही बताएँ  कहाँ कहाँ जाऊँ?  आप तो मेरे ’रेगुलर क्लाईन्ट’ है, तो कुछ न कुछ  करना ही पड़ेगा ।डायरी देख कर बताता हूँ।"

भाई साहब ने अपनी डायरी देखी,माथे पर कुछ चिन्ता की लकीरें उभारी, कुछ मुँह बनाया,कुछ ओठ बिचकाया ,कभी चश्मा उतरा ,कभी चश्मा चढ़ाया और अन्त में प्रस्फुटित हुए--" मुश्किल है  भाई साहब । टाइट प्रोग्राम है ।

मैं चिन्ताग्रस्त हो गया तो अगले पल उन्होने मेरी चिन्ता भी दूर कर दी।

 "-बड़ी मुश्किल से  किसी प्रकार एक-घंटा निकाल सकता हूँ आप के लिए।आप अपने जो ठहरे ।

मगर---

 एक बार मैं फिर चिन्ताग्रस्त हो गया ।

-,भई मेरे पास गाड़ी नहीं है। हम सच्चे हिंदी-साहित्यकारों  और उपासको के पास गाड़ी कहाँ से होगी ?  आप को ही ले जाना ,ले आना  पड़ेगा । हाँ ,बच्चों के लिए कुछ उपहार हो तो अच्छा ।यही बच्चे तो कल के मुख्य-अतिथि बनेंगे।हिंदी के भविष्य बनेंगे , हिंदी के वाहक बनेंगे। -’पत्रम-पुष्पम’ वाला लिफाफा  ज़रा वज़नदार----- हें हें हें आप तो समझते ही होंगे ---।"-उन्होने अपने दाँत चियारे।

"सर ! यह कुछ ज़्यादा नहीं  है ?  इतना बजट नहीं है इस साल ’-मैने सरकारी असमर्थता जताई ।अब मैने अपने  दाँत चियारे।

सरकारी विभाग में बज़ट की क्या कमी है ।आप चाहें तो--हें हें हें। तो आज ही उदघाटन करवा लो,फीता कटवा लो । सस्ते में कर दूँगा’--- हिंदी सेवा का उन्होने अपना व्यापारिक रूप दिखाया ।

’सर !’हिंदी दिवस’ आज नहीं है न ,वरना मैं  आज ही -----।

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पितॄ-पक्ष में कौए पूजे जाते हैं । अच्छे-अच्छे पकवान खिलाये जाते है।तर्पण करते है । इस उमीद से कि पुरखे तर जाएंगे ।हिंदी-पखवारा में हिन्दी के ”तथाकथित’  साहित्यकार ही बुलाए जाते हैं।न जाने क्यों ? इस उमीद से कि हिंदी तर जायेगी । मान्यता है बस।

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अन्तत: जब कोई नहीं मिला तो थक हार कर उन्हीं महोदय को मोल भाव कर सौदा पटाया । -गाड़ी से आने-ले जाने की शर्त पर, सस्ते में  मान गए ।

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हिंदी पखवारा का अन्तिम  दिन । 14-सितम्बर।


  सभागार भरा हुआ है । सरकारी अधिकारी  मंच पर बैठ गए  ।माला- फूल -हार पहना दिए गए । सरस्वती-वंदना हो गई । दीप-प्रज्ज्वलित कर दिया गया । उदघाटन हो गया-।


 मुख्य अतिथि महोदय माइक पर आए और भाषण शुरु किया ।


"-- पहले मैं आप सभी का धन्यवाद कर दूँ कि आप ने इस पावन अवसर पर इस अकिंचन को याद किया ।-आप सब जानते हैं। आज ही के दिन हमारी हिंदी ---गाँधी जी ने कहा था अगर देश को एक सूत्र में कोई पिरो सकता है तो वह है हिंदी---नेहरू जी ने कहा था-----हिन्दी एक भावना है -एक कवि ने कहा है --जो भरा नहीं है भावों से ,जिसमें बहती रसधार नहीं , वो हृदय नहीं है पत्थर है-- ।हिंदी भारत माँ के भाल की बिंदी है------हिंदी को हमे हिमालय की ऊँचाइयों से भी ऊँचा  ले जाना है----

 " आज बात यहीं से शुरु करते हैं --हिन्दी पखवारा--’ उन्होने पीछे मुड़ कर दीवार पर टँगे हुए बैनर को देखते हुए कहा--" हिंदी-पखवारा। कभी आप ने ध्यान दिया कि यह शब्द कैसे बना? नहीं दिया न ?  आज मैं बताता हूँ-- ’पखवारा ’- पक्षवार से बना है ।जैसे ’ईक्ष’ को "ईख’  बोलते हैं । अक्ष को आँख बोलते हैं यानी ’क्ष’ को ’ख’ बोलते है ।  पक्ष यानी 2-पक्ष - एक पक्ष--कॄष्ण पक्ष-दूसरा-शुक्ल पक्ष।  अब तो लोग ’हिंदी-सप्ताह’ को भी  हिंदी पखवारा बोलने लग गए हैं । कहीं कहीं कुछ लोग  ’हिंदी-पखवाड़ा’ भी बोलते है ।कुछ जगह तो लोग -’ड़’- को  भी -’र’   बोलते है जैसे "घोरा सरक पर पराक पराक दौर रहा है ’ ।यह किस प्रदेश की भाषा है यह न पूछियेगा । आप इस चक्कर में न पड़े कि पखवारा है कि  पखवाड़ा-है । मगर --बैनर हमेशा वक्ता के पिछवाड़े  ही टँगा रहता है। यानी वक़्ता आगे --हिंदी पीछे।

 

--तालियाँ बजने लगी । लोग वाह वाह करने लगे । क्या ज्ञान की बात कर रहा है बन्दा ।

उन्होने अपना भाषण जारी रखा।


"अन्त में । हिंदी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है---मैं  पिछली बार जब अमेरिका गया था-तो लोगों का हिंदी प्रेम देख कर मन अभिभूत हो गया --अगर आप कभी ’ऎडीसन’ गए हों --’ऎडीसन’ न्यूजर्सी  में है -तो आप को लगेगा कि आप फिर भारत में आ गए जैसे कि आप यू0पी0 में आ गए, बिहार में आ गए -वही संस्कृति वही हिंदी । उस से पहले मैं रूस गया था ।वहाँ भी हिंदी बोली जाती है--आवारा हूँ [मैं नहीं] -मेरा जूता है जापानी --मेरा दिल है हिन्दुस्तानी ---हिंदी सुन कर मेरा सिर श्रद्धा झुक गया  हिन्दी के अगाध  प्रेम के प्रति। जापान की बात तो खैर और है -। एक बार   मै जापान  गया था ।वहाँ के विश्वविद्यालय में आमन्त्रित था---

"अन्त में --. हमें हिंदी को आगे बढ़ाना है ।।हिंदी तो कब की मिट गई होती ..वह तो सरकार ने बचा रख्खा है -हम जैसों ने सँभाल रखा है --हिंदी पखवारा---हिंदी-सप्ताह के रूप में।आप लोग सरकारी अधिकारी हैं ,कर्मचारी है   ...देश भिन्न भिन्न भाग से आए होंगे --कोई .तमिल’ से आया होगा --कोई कन्नड  से -आया होगा कोई केरला से -। हिंदी बहुत ही सरल भाषा है । जिन भाइयों को हिंदी नही आती --घबराने की कोई बात  नहीं --आप आफ़िस -नोटिंग में . फ़ाइल में कठिन अंगरेजी शब्दों को देवनागरी लिपि में लिख दें --बस हो गई हिंदी--

"और अन्त में -----

और अन्त में --और अन्त में --- कह्ते कहते एक घन्टे के बाद "अन्तियाए"  और सभा समाप्त हो गई ।

हिन्दी दिवस मना लिया गया  ।मुख्यालय को  रिपोर्ट भेज दी गई ।हिंदी धन्य हो गई। हिन्दी का विस्तार हो गया,अगले साल तक।

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बड़े साहब-- ’ मिश्रा ! इस मुए को कहाँ से पकड़ के लाया था। इससे अच्छी हिन्दी तो मैं बोल सकता था।

मिश्रा जी -----’सर ! आप  विभाग के ’मुख्य महाप्रबन्धक’ हैं। सम्मानित हैं ,ओहदे  वाले है। आप हिंदी जैसी चीज़ के लिए  ’मुख्य अतिथि ’कैसे बन  सकते थे ?आप का सम्मान है - मिश्रा जी ने ’नवनीत लेपन ’[ अँगरेजी में बटरिंग] करते हुए कहा-"यह तो  सस्ते में पट गया सर ! , सो पकड़ लाया। ’सस्ते’ में ’अच्छा’ भाषण दिया।

’या ,या ’ ओके--ओके टेक केयर -कह कर बड़े साहब ने अपने घर की राह ली।

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  बाद में  मालूम हुआ कि वह वक्ता भाई साहब जो ”दसियों निमन्त्रण’ की  बात कर रहे थे वह अपना भाव बढ़ाने के लिए कर रहे थे ।और जो डायरी देख कर बताने की बात कर रहे थे  वह उनका रोज़नामचा था ।वह देश-विदेश कहीं नहीं आते-जाते ।साल में एक बार अपने गाँव चले जाते या ससुराल चले जाते हैं  और उसी को ’विदेश-यात्रा " कह कर उल्लेख करते रहते हैं ।यह रहस्य उनके एक दूसरे प्रतिद्वन्दी हिंदी सेवक भाई ने बताई,जो अबतक कहीं ’मुख्य अतिथि’ नहीं बन सके हैं 

 

’------

मुख्य अतिथि महोदय के ’अंगरेजी के कठिन शब्दों को देवनागरी में लिखने वाले ’प्रवचन’ का तमिल --कन्नड़ -मलयालाम भाषा-भाषी  भाइयों पर कितना प्रभाव पड़ा होगा  ,मालूम नहीं ? ,मगर मिश्रा जी पर  इसका काफी गहरा प्रभाव पड़ा ।

अगले दिन उन्होने ’हिंदी वर्जन विल फ़ालो"  वाले एक अंगेरेजी सर्कुलर का हिन्दी अनुवाद कर अधीनस्थ कार्यालयों को यूँ भेंज दिया---


" टू द मैनेजर

प्लीज रेफ़र दिस आफिस लास्ट लेटर डेटेड----

आइ एम डाइरेक्टेड टू स्टेट दैट-------

नान कम्प्लाएन्स आफ़ द इनस्टरक्शन विल भी ट्रीटेड सीवीयर्ली--


हिंदी आफ़िसर

फ़लाना आफ़िस


अस्तु ।


-आनन्द पाठक-


रविवार, 13 सितंबर 2020

पंचिक "पट्टी बाँधी"


पंचिक

पट्टी बाँधी राज माता भीष्म हुआ दरकिनार,

द्रौपदी की देखो फिर लज्जा हुई तार तार।

न्याय की वेदियों पर,

चलते बुलडोजर,

शेरों के घरों में जब जन्म लेते हैं सियार।।

*****


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

शनिवार, 12 सितंबर 2020

चन्द माहिए--

 चन्द माहिए---

1

रिश्तों की तिजारत में 

ढूँढ रहे हो क्या

नौ फ़स्ल-ए-रवायत में  ?

2

क्या वस्ल की रातें थीं

और न था कोई 

हम तुम थे,बातें थीं

3

कुरसी से रहा चिपका

कैसे मैं जानूँ

यह ख़ून बहा किसका ?

4

अच्छा न ,बुरा जाना

दिल ने कहा जितना

उतना ही सही माना

5

वो आग लगाते हैं

फ़र्ज़ मगर अपना

हम आग बुझाते हैं


-आनन्द.पाठक--


मंगलवार, 8 सितंबर 2020

एक व्यंग्य : अनाम "कविता-चोर" जी का उत्तर

[नोट : इसी मंच पर दिनांक 01-09-20202 को एक पत्र -’कविता- चोर" महोदय के नाम लिखा था जिसे आप लोगों ने पढ़ा भी होगा ।
उन्ही ’चोर श्रीमान  जी ’ का उत्तर अब प्राप्त हो गया है । पाठकों का आग्रह था कि वह पत्र भी प्रकाशित करूँ -सो कर रहा हूँ ।

                     एक व्यंग्य :  अनाम "कविता-चोर" जी का उत्तर 

आदरणीय श्रीमन !
दूर से ही नमस्कार

 पत्र मिला । समाचार जाना ।आरोप भी जाना ।

इधर ’करोना’ का प्रकोप कम नहीं हो रहा है , हम सब साथी गण अपने
अपने अपने घरों में कैद हैं । मंच ,मुशायरों से भी ’माँग नहीं आ रही है। घर में बैठे बैठे
’आन लाइव---वाच पार्टी -- फ़ेसबुक-पर अपनी ही कविता का कितनी बार पाठ करें?
 अपनी  शकल  देखते दिखाते झाँकते झाँकते मन उब सा गया है ।कुछ वीर बहादुर है
  जो "फ़ेसबुक लाइव" में अभी तक डटे हैं ।हर रोज़ सज-सँवर कर चेहरा दिखाते रहते हैं।

तो हे सयाणॆ श्री !

पत्र में तुमने जिस भाषा का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा ज़रूर किसी "मुन्यसपिल्टी
स्कूल" में हुई होगी । अगर ’कान्वेन्ट स्कूल" में हुई होती तो ’अंगरेजी’ में गाली देते । डिग्री पाना अलग बात है-’शिक्षित होना
अलग बात है-’आदमी होना अलग बात है -शायर  होना तो  ख़ैर दूर की बात है ।। भारत सरकार को नई शिक्षा नीति
 में मोदी जी को इस पर विचार करना चाहिए कि आनन्द जैसा आदमी भी एक आदमी बन सके ।

आप ने कविता चोरी का जो आरोप मुझ पर लगाया है ,वह झूठ है ।मीडिया ने , तुम ने, सब ने  तोड़-मरोड़ कर पेश किया  है ।
मुझे अपनी सफ़ाई का मौक़ा दिए बिना ही  ’चोर’ ठहरा दिया। यह कहाँ का न्याय है ? वस्तुत: तुम्हारी उस ’तथाकथित’ कविता के
 -नीचे मैं अपने नाम और अपने नाम के आगे  ’प्रस्तोता"-या -"प्रस्तुतकर्ता"  -लिखने ही जा रहा था कि लोगों ने चोर चोर कह कर शोर मचाना
शुरु कर दिया। कुछ लोग थाना-पुलिस की बात करने लगे तो मैं छोड़ कर भाग गया । प्रस्तोता छूट गया -- मेरा नाम रह गया-।चिराग़ हसन ’हसरत’
साहब ने कहा भी

ग़ैरों से कहा तुम ने, ग़ैरों से सुना तुम ने
कुछ हम से कहा होता, कुछ हमसे सुना होता 

तो हे -काव्य शिरोमणि ! -

 तुम्हारी वह घटिया कविता चुरा कर मैं तब से पछता रहा हूँ । कौड़ी की कविता थी ।ऐसी कविता तो कौड़ी के तीन मिल जाती है।
 सुनने को कोई तैयार नहीं  । चाय पिलाने की शर्त पर भी कोई सुनना नहीं चाहता ।।पैसा देकर मैं ’सम्मान’ तो करा सकता हूं
मगर पैसा देकर कविता नही सुना सकता ?राम ! राम! राम!

और  वो कविता ! धत !

न वो ज़मीं के लिए ,है न आस्मां के लिए
तेरा कलाम है महज ’ख़ामख़्वाह’ के लिए

 बहुत से लोग अपने नाम के आगे -शायर अमुक सिंह--गीतकार प्रमुख शर्मा--ग़ज़लकार कुमुक वर्मा--लिख लेते है।
 ऐसे लोगों की कविताएँ मैं नहीं चुराता। जानता हूँ वो क्या लिखते है । उनकी चुरा कर उन्हें और क्यों मशहूर कराना ?
तुम्हारी कविता इस उमीद से चुराई थी कि गली कूचे के अनाम कवि हो -क्या शोर मचाओगे ।मशहूर हो जाओगे।
इब्ने इन्शा साहब मरहूम ने कहा था

इक ज़रा सी बात थी जिसका चर्चा पहुँचा गली गली 
तुम गुमनामों ने फिर भी ऐहसान न माना  यारों  का

 इन्शा साहब ने  तो ’हम’ लिखा है --’तुम’-तो मैने कर दिया कि बात ज़रा साफ़ रहे।

हे ढक्कन श्री ! माटी के माधो !

पत्र में तुमने  पूछा है  कि मैं -कहानी--नाटक -उपन्यास क्यों नहीं चुराता ?भई मेरे!
। साहूकार, सुनार के घर से भूसा का झौआ चुरायेंगे क्या --ख़ाद की बोरी उठायेंगे क्या ?
तेली के घर से ’कोल्हू’ सर पे उठा कर लायेंगे क्या ?जल्दी जल्दी में जो माल-पत्तर मिलेगा वही उठायेगे न ?
इतनी ’व्यंजना’ तो समझते होंगे?कोल्हू के बैल जो ठहरे !

तो हे कलम घिसुए महराज जी !

अब में अपनी औक़ात पर आता हूँ-
- तेरी बात से अपुन का माथा सटकेला है --कलम थकेला है - करोना से डरेला है, वरना--
---ज़ादे शन-पट्टी मत दिखा --थाना पुलिस करेगा --तो अपुन का तेरी  अख्खा क़लम  उठा लेगा
--न रहेगा बाँस न बाजेगी बँसुरी।भेजा में घुसेला क्या !
जा अपना काम कर !फिर चिट्ठी मत लिखना ।
तेरा --
शुभ चिन्तक
-अनाम-
-----------------
-आनन्द.पाठक--

बुधवार, 2 सितंबर 2020

हां कल ही ...

 


मैं (सांझ ) ...

तुम्हारे ख़यालो में कहीं  ...

और

ये सूरज ...

पेड़ो की इन्हीं शाखों में 

उलझ कर 

रह गए थे कहीं कल ...


हां...कल!!

गर याद हो तो ...

मैं ( सांझ) और ये  सूरज,

दोनों ही....

घर, देर से लौटे थे !!

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

एक व्यंग्य : एक पत्र कविता चोर के नाम

एक व्यंग्य : एक पत्र 
कविता- चोर के नाम 

हे मेरे कविता प्रेमी !

सादर चरण स्पर्श

अत्र कुशलम ! तत्रास्तु ?आशा करता हूं कि आप ’चुल्लू भर पानी’ ढूँढ रहे होंगे ।

सुबह ही सुबह ,जब मेरे मित्रों ने ’ब्रेकिंग न्यूज़ ’ शैली में यह ख़बर सुनाई की मेरी एक कविता
फिर चोरी हो गई तो मेरा मन अति प्रफ़्फ़ुलित हो गया । अब मेरी कविता गीत ग़ज़ल ’चोरी’ होने के योग्य
हो गई ।बड़ी हो गईं। चोरों की नज़रों में चढ़ गई और मैं स्वयं अपनी नज़रों चढ़ गया। मेरी वह कविता चोरी कर के आप ने उसे अमर कर दिया ।

ना "ब्लाग" की सीमा हो, ना ’व्हाट्स अप" का बन्धन
मेरे गीत चुरा लेना , जब चाहे तेरा मन 

मेरे गीत चुरा कर तुम --मेरे गीत अमर कर दो
इस चोरा-चोरी की, सखे! रीति अमर कर दो 

सुबह से ही फ़ोन की घंटियाँ टनटना रही है । मित्रों की उत्सुकता है। जानना चाह्ते है कि कौन सी वह  कविता थी
जिसे ’चुरा’ कर आप ने अमरत्व प्रदान कर दिया । वे सब इस अदा से पूछ रहें कि हाय ! वो गीत उन्होने  क्यों न चुराया ।

हे प्रियवर !
तुझे  सूरज कहूँ या चन्दा ,तुझे दीप कहूँ  या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन ,तू गीत चुरा के दुबारा

मैं कब से तरस रहा था --मेरा गीत  चुरा ले कोई--

माफ़ करना मित्र ! मारे खुशी के, मैं क्षण भर के लिए विषय पथ से भटक गया ।
आप को सूरज-चन्दा क्या कहूँ। और भी बहुत से शब्द हैं आप के लिए --चोर --चोरकट-- उच्चक्का
-चाईं--गिरहकट--उठाईगीर- --पाकेटमार--जेबकतरा--चोर -महाचोर--।किस पद्म श्री से विभूषित करूँ, महराज!
डकैत इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि डकैतों के सम्मान में  गुस्ताखी हो जायेगी।और ’लुच्च्चा,लफ़ंगा,आवारा--दूसरी श्रेणी के शब्द हैं।

चाईं तो आप समझते होंगे ? नहीं ? तो मुगल सराय जंक्शन पर ऐसे बहुत से मिल जायेंगे कहते हुए
"सौ चाईं --एक मुगलसराई"
कभी पाला नहीं पड़ा । बस सुना ही सुना है ।

हे मित्र प्रवर !
आप स्वयं पर शर्मिन्दा न हों ।
बहुत से लोग ऐसा काम करते रहते हैं। कोई दिल चुराता है ,कोई नज़र चुराता है, कोई "टैक्स’ चुराता है।
राजकुमार जी तो खुली आँखों से ’सुर्मा"  चुरा लेते थे ।
मेरा तो एक ’दिल चुरा" के ले गई सो आज तक लौटाई ही नहीं।
" कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया "--अच्छा है ,मत देना ,मगर मेरा दिल किसी और को न दे देना।
इक तुम ही नहीं तनहा चोरी में मेरे रुस्वा
तुम जैसे यहाँ  मंचो पर चोर हज़ारों हैं

मैं भी ऐसा ही चोर कर्म करता रहता हूँ यदा-कदा । किसी के-ग़ज़ल की ज़मीन चुरा लेता हूँ। भाव चुरा लेता हूँ ।
भावना चुरा लेता हूं।किसी की कल्पना चुरा लेता हूँ ।कभी कभी 1-2 मिसरा भी चुरा लेता हूँ ।
 परन्तु मैं इसे चोरी का नहीं, ’प्रेरणा’ का नाम देता हूँ।,
एक सलाह है आप को। आप यह " चोर-कर्म ’ शौक से करें परन्तु 1-2 शब्द ज़रा इधर उधर ज़रूर कर दें
1-2 रदीफ़-क़ाफ़िया ही बदल दें । अरे नहीं नहीं --रदीफ़ नहीं बदलना भाई मेरे--रंगे हाथ पकड़े जाओगे।
एकाध मिसरा ऊपर नीचे कर दें । हू-ब-हू न उतारें । फिर आप का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
 तन कर खड़े हो सकते हो।ग्लानि-मुक्त हो सकते हैं।

न हारा हूँ मैं  - न तुम ही थके हो 
मैं तो हूँ कच्चा --तुम तो पके हो

अगले पत्र में आप को”चौर्य कर्म ’के और भी गुर सिखा सकते है ।
एक मंच भी बना सकते हैं -जैसे बड़े बड़े शहरों में -एक ’चोर बाज़ार ’ होता है । चोर-हटिया होता है ।

हे मेरे शुभ चिन्तक !
मुझे आजतक यह बात समझ में न आई कि लोग गीत, ग़ज़ल, माहिया ही क्यों चुराते हैं? कहानी, उपन्यास  क्यॊं
नही चुराते? इस प्रश्न का उत्तर लौटती डाक से अवश्य दीजियेगा।

इस कविता चोरी पर मेरे कुछ मित्रॊ ने अयाचित सलाह दी कि मैंअविलम्ब  इस चोरी की रिपोर्ट किसी थाने में
करूँ।मैने किया था एक बार वह भी  । । यह एक अलग किस्सा है । अब लौं नसानी ,अब ना नसइहों। अगले किसी पत्र
में इसकी चर्चा करूँगा । किसी ने सलाह दी कि अपनी ग़ज़ल में ”तख़ल्लुस’ का ताला लगा दो । मैने वह भी किया।
आप के हुनर के आगे मेरा हुनर कुछ काम न आया।

मित्रवर !
एक श्रीमान ने तो मेरा तख़ल्लुस हटा कर अपना ’तख़ल्लुस’ डाल दिया ।वह शख़्स पूर्व जनम में ज़रूर शायर रहा होगा । उसने  अपना तख़ल्लुस इस सफ़ाई
से डाला ’हम वज़न ’ हम क़ाफ़िया ’ बा-बह्र , बना कर डाला  वल्लाह क्या कहने  कि  एक बार तो हम भी अपनी ग़ज़ल को उसका ही ग़ज़ल समझ बैठे ।
वाह वाह कर बैठे। दाद दे बैठे ।ख़ुदा उसके इस ’हुनर’ को  और बुलन्दी अता करे।

मेरी एक मित्राणी  [ महिला मित्र ] ने सलाह दी  कि मै  अपनी ग़ज़ल में ऐसी भयंकर ग़लती कर के डाल दूँ  कि वैसी ग़लती बड़े से बड़ा शायर  भी न कर सके।
वह ग़लती ही आप का ’सिगनेचर स्टेट्मेन्ट" होगी और चोरी तुरन्त पकड़ी जायेगी ।श्रीमन! मैने  वह भी किया । मगर ’अली बाबा चालीस चोर ’ शैली में सभी ने
अपनी अपनी  ग़ज़ल में वैसी ही ग़लतियाँ डालनी  शुरु कर दी । मेरी रचना चोरी होने से वंचित तो हो गई पर मै उस सुख से वंचित हो गया जो चोरी होने के बाद
मुझे मिलता था । वही सुख -वही आनन्द --तुम्हें सूरज कहूँ या चंदा -वा्ला  सुख -।
उन महिला मित्र ने सबको यही सलाह दी और सभी ने माना। कारण-सभी शादी-शुदा थे ।

किसी मित्र ने सलाह दिया कि तुम अपनी रचना के अन्त में "अपनी स्वरचित रचना" लिख दो। कोई माई का लाल नहीं चुरा पायेगा ।
तो हे मेरे काव्य प्रिये ! तुम भी तो किसी माई के लाल ही होगे ?
अब तो बहुत से लोग अपनी रचना के नीचे ’ कापी राइट -फ़लाना सिंह ’ लिख देते हैं । हा हा हा । वो अज्ञानी है । मूढ़ हैं।
आप जैसे खानदानी चोर के लिए  इन छोटे-मोटे तालों की क्या औक़ात !
आप के इस " चौर्य कर्म " में आप का ’शौर्य’ झलकता है -जैसे आप कह रहे हों --हाँ मैने चुराया है --क्या कर लोगे ?
प्रभु ! मैं एक दीनहीन  कवि क्या कर सकता हूँ । आप ने यशोधरा को नहीं पढ़ा

  हाँ तुम मुझ से कह ,ले जाते 
तो क्या अपने चोर-कर्म में मुझको बाधा पाते ?
 हाय !तुम मुझ से कह  ले जाते 

हे मित्रवर !
अगर आप कहते तो आप के श्री चरणॊ में ऐसे ही 2-4 गीत  ऐसे ही  समर्पित कर देता  -फ़्री में । कम से कम यह पाप तो आप को नहीं करना पड़ता।
"फ़्री में"- इसलिए कि मेरे एक साहित्यिक मित्र बता रहे थे कि उनके पास किसी का [ महिला या पुरुष ,नहीं बताया ] एक ऐसा प्रस्ताव आया था कि वह अपनी रचनाएँ
उन्हे देते जाएँ -और उनसे धन लेते जाए । धनोपार्जन का अच्छा साधन हो जायेगा ।
पता नहीं इसमें कितनी सत्यता थी  --मगर अन्त में  उन्होनें जो बताया वह बिल्कुल सत्य था।

उन्होने बड़े दर्द भरे स्वर में बताया ---पाठक जी -जानते हैं -मैं बिक सकता हूँ , मेरी ’क़लम’ नहीं बिक सकती ।
फिर मैने उनकी क़लम को प्रणाम किया।

तो हे मित्र !
यह पत्र अब लम्बा हो चला है और आप को भी जम्हाई आ रही होगी रात में "सत्कर्म" करते करते थक जो गए होंगे।
"ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता। ख़ैर।कभी साक्षात मिलेंगे तो चरण वन्दना भी कर लूँगा
अपने अन्य साथियों को मेरा प्रणाम कहिएगा ।अगले पत्र में अन्य  बातों पर मिल कर विस्तार से चर्चा करेंगे।
 । भगवान आप के ’ हुनर’ को यूँ ही ज़िन्दा रखे।

उत्तर की प्रतीक्षा में

भवदीय

-आनन्द.पाठक-